कलेंडर की गणना के कारण कई बार देश में एक त्यौहार दो दिन तक मनाया जाता है इसी तरह राजनीतिक गणना के कारणों से कर्नाटक में एक महीने में दो-दो शपथ ग्रहण के बाद जनता दल सेक्युलर पार्टी के नेता कुमारस्वामी ने मंगलवार को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली है।
येदियुरप्पा के इस्तीफे के बाद 23 मई को एक बार फिर सजे सत्ता के इस मंच पर कुमारस्वामी के अलावा भारत के वो सभी नेता मौजूद रहे जो खुद को सेक्युलर कहना सुनना पसंद करते है। भले ही सत्ता के दौरान किसी के दामन पर कितने ही दाग क्यों न हो लेकिन 2019 की चुनावी वैतरणी में हर कोई धर्मनिरपेक्षता की डुबकी लगा रहा है।
यदि इसे राजनीतिक चश्मे से देखें तो मंच पर कई भावी प्रधानमंत्री मौजूद थे और चश्मे का नम्बर थोड़ा सा धार्मिक करें तो वो सभी लोग मौजूद थे जो केंद्र की सत्तारूढ़ पार्टी बीजेपी की कथित हिन्दू विचारधारा के खिलाफ हैं। इसे विपक्षी महाएकता कहा जा रहा है जिसमें अधिकांश पहली और दूसरी पीढ़ी के लाडले बेटे शामिल थे।
पर ऐसे में सवाल यही उठता है कि क्या राजनीति में सचमुच ही विचारधारा को प्राथमिकता दी जाती है? शायद ऐसा सोचने वाले अभी भी मोगली और शक्तिमान धारावाहिक के दौर में जी रहे है। क्योंकि यदि यह सच होता तो क्या कश्मीर में बीजेपी और पीडीपी गठबंधन होता?
दूसरी बात हमें यह भी समझ लेनी होगी कि आज़ादी के बाद से ही देश में भले ही लोकतंत्र आ गया हो किन्तु हमेशा से देश को कुछेक राजनीतिक घराने, मीडिया और व्यापारिक घराने चलाते आये हैं। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक हर एक राज्य में राजनीतिक परिवारों की ही उपस्थिति रही है।
तीसरा जब तक उत्तर प्रदेश में बीजेपी मज़बूत स्थिति में नहीं थी तब तक मायावती और अखिलेश एक दूसरे की विचाधारा के प्रबल विरोधी थे।किन्तु आज साथ हैं। ये अलग बात है जिस समय उत्तरप्रदेश में काँग्रेस मज़बूत हुआ करती थी तब ये दोनों दल भाजपा के सहयोग से सरकार भी बना चुके हैं।
2016 के पश्चिम बंगाल के चुनाव में वामपंथी दल काँग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ें थे तो दूसरी तरफ केरल में दोनों आमने-सामने थे। क्या आपको इसमें विचारधारा की लड़ाई दिखाई दी? शायद नहीं! क्योंकि असल लड़ाई सत्ता की बंदर बांट की रही है।
खैर आगे बढ़ें तो कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण में विपक्ष की भारी गोलबंदी के बीच दिल्ली के क्रांतिकारी मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल भी दिखे जो कभी भारत में स्वराज और व्यवस्था परिवर्तन की बात करते थे, काँग्रेस की सत्ता के विरोध में आन्दोलन खड़ा किया। लेकिन अगले ही साल काँग्रेस से गठबंधन कर लिया, आज भले ही पूर्ण बहुमत की सरकार हो लेकिन अगला लोकसभा चुनाव मिलकर लड़ेंगे, क्या आपको इसमें भी कहीं विचारधारा की लड़ाई नज़र आई?
कयास लगाये जा रहे हैं कि पश्चिम बंगाल में काँग्रेस और सीपीएम अगले चुनाव में साथ आ सकती हैं, लेकिन मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी बीजेपी के खिलाफ विपक्षी एकता में कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में नज़र आईं। वो एनडीए और यूपीए दोनों के साथ रह चुकी हैं। अब उनका झुकाव मोदी के खिलाफ और काँग्रेस के साथ नज़र आता है। यह देखना दिलचस्प होगा कि अगले साल चुनाव में पश्चिम बंगाल में सीपीएम, काँग्रेस और टीएमसी कैसे साथ आएंगी। इसलिए अभी सत्ता पाने के इस युद्ध में कुछ कह पाना आसान नहीं है।
कुमार स्वामी के मंच पर राष्ट्रवादी काँग्रेस प्रमुख शरद पवार भी नज़र आये। कभी विचाधारा ना मिलने पर कांग्रेस से अलग हुए थे लेकिन गठबंधन की चासनी में वो भी डूबे दिखे। इनके अलावा कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में नायडू भी पहुंचे थे। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू कुछ महीने पहले तक मोदी सरकार में शामिल थे, लेकिन आज खिलाफ हैं। संभव है कि वो काँग्रेस के साथ मिलकर लोकसभा चुनाव लड़ें।
लालू के बेटे तेजस्वी यादव के साथ-साथ कुमारस्वामी के मंच पर पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरणसिंह के पुत्र और लगभग सभी सरकारों में मंत्री रहे चौधरी अजित सिंह का भी चेहरा नज़र आया। कभी जनता दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे अजीत सिंह 2009 में काँग्रेस के खिलाफ थे पर आज साथ हैं और भविष्य में कुछ कहा नहीं जा सकता है।
असल में यह पहली बार नहीं हो रहा है 1975 में भी रायबरेली के चुनाव में गड़बड़ी के आरोप और जेपी नारायण द्वारा संपूर्ण क्रांति के नारे के बाद समूचे विपक्ष ने एकजुट होकर इंदिरा गांधी की सत्ता के खिलाफ संघर्ष छेड़ दिया था। 1977 में जनता दल के बैनर तले एकजुट होकर पार्टियों ने इंदिरा के नेतृत्व वालली काँग्रेस को हरा दिया था लेकिन जनता पार्टी की जीत के बाद नेतृत्व का संकट आ गया। दावेदारी तीन लोगों की थी। जगजीवन राम, चौधरी चरण सिंह और मोरारजी देसाई। जैसे आज भी विपक्षी एकता में साफ तौर पर दिखाई दे रही है।
उस समय सत्ता की भूख और नीतियों को लेकर इसमें एकजुटता नहीं दिखाई दी थी। ना ही इस समूह के पास ऐसा कोई मुद्दा था जिससे अपने-अपने राज्यों में इन सबका प्रदर्शन बेहतर हो जाए। बस इंदिरा का विरोध था जैसे आज मोदी का। इंदिरा की निंदा तो सबके मुंह पर थी लेकिन नीति किसी के पास नहीं थी। वर्तमान हालात भी ज्यों के त्यों ही दिखाई दे रहे हैं।
सवाल अब भी यही है कि जब तक ये सभी दल अपनी वैचारिक स्थिति और नीतियों में बदलाव नहीं लाएंगे, ज़मीनी स्तर पर संघर्ष से नहीं जुड़ेंगे, परिवारवाद का त्याग नहीं करेंगे, चर्च और मस्जिदों का उपयोग अपनी राजनीतिक लाभ के लिए करेंगे, नई राजनीतिक रणनीति नहीं बनाएंगे, तब तक इनका संकट से निकलना मुमकिन नहीं दिख रहा है। शायद यही वजह है कि लोग इस गठबंधन को गम्भीरता से ना देखकर फेसबुक पर लिख रहे हैं कि बस कुमारस्वामी के मंच पर हरियाणवी सिंगर सपना चौधरी की कमी रह गयी।
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