सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पर 4 दिन पहले बहस हुई लेकिन, तमाम मीडिया हलकों में चर्चा सिर्फ राहुल गांधी की झप्पी पर हुई। जितने शब्द उस झप्पी पर खर्च किए गए, उसका एक तिहाई भी उन विषयों पर खर्च नहीं हुआ जो अविश्वास प्रस्ताव के दौरान उठाए गए थे।
सरकार के खिलाफ आए अविश्वास प्रस्ताव और राहुल गांधी की झप्पी पर हर किसी की अपनी-अपनी राय हो सकती है परंतु, जिस विषय पर (मॉब लिंचिंग) सदन की एक राय होनी चाहिए और तमाम सांसदों की पेशानियों पर बल आने चाहिए थे, उसपर खामोशी का परिणाम तब देखने को मिला, जब अलबर में “गौरक्षकों” की भीड़ ने अकबर खान को पीट-पीटकर मार डाला।
मुझे अचरज सा हुआ, जिस समाज में हर रोज़ कहीं ना कहीं लोग आवारा भीड़ का शिकार हो रहे हों, जहां आम लोग सार्वजनिक जीवन में अलग तरह की एहतियात बरतने को मजबूर हो रहे हों, कमोबेश देश का हर नागरिक स्वयं को सचेत करने की कोशिश कर रहा हो कि वह किसी भीड़ की हिंसा का शिकार ना बन जाए, उस देश की संसद के लिए मॉब लिंचिंग एक गंभीर राजनीतिक सवाल भी नहीं बन सका। केवल अपनी ज़िम्मेदारियों से कंधे झटकने भर की कोशिश ज़रूर दिखी। गृह मंत्रालय के पास तो पीट-पीटकर हत्या की घटनाओं के बारे में कोई आंकड़े ही नहीं हैं।
जबकि, न्यायालय तक कह रही है कि डर और अराजकता के माहौल से निपटना सरकार की ज़िम्मेदारी है, नागरिक अपने आप में कानून नहीं बना सकते, भीड़ की हिंसा और लोगों को पीट-पीटकर मारने की घटनाओं के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को जवाबदेह होना ज़रूरी है। ज़ाहिर है कि भीड़तंत्र की इस भयावह गतिविधियों को नया चलन नहीं बनने देने के लिए, सख्ती से निपटने की ज़रूरत है।
अफवाहों के प्रसार का माध्यम बनी व्हाट्सएप्प और कई सोशल नेटवर्किंग साइट्स अपने गले पर कसा फंदा हटाने के लिए कई स्तरों पर सक्रिय भी दिख रही है। पर राजनीतिक समझदारी का आलम यह है कि सरकारी अलमदार ना केवल “मॉब लिंचिंग” में शामिल लोगों को प्रोत्साहित कर रहे हैं, बल्कि इस पर राजनीतिक माइलेज लेने से पीछे भी नहीं हैं।
संसद में केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने मॉब लिंचिंग का इतिहास बताते हुए कहा, “1984 का सिख दंगा देश के इतिहास में सबसे बड़ी मॉब लिंचिंग की घटना है।” गृहमंत्री यह बताना भूल गए उस वक्त भी मॉब लिंचिंग के खिलाफ कठोर कानून नहीं थे, जिसके कारण 1984 के सिख दंगे के आरोपियों को सज़ा नहीं मिल सकी और ना आज मॉब लिंचिंग के खिलाफ कठोर कानून है। केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह यह बताना भूल गए कि जिन राज्यों में मॉब लिंचिंग की घटनाएं हो रही हैं, वहां उनकी ही पार्टी की सरकारे हैं और मॉब लिंचिंग अब केवल राज्य का नहीं देश के लिए चिंता का सबब है।
उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री अपने जवाबी भाषण में मॉब लिंचिंग पर कटाक्ष करेंगे, पर उन्होंने सारी मेहनत आंखों के इशारों को बताने में ही झोंक दी। राजनीतिक महत्वकांक्षा से प्रेरित नागरिक, कानून अपने हाथों में ले रहे हैं और संसद मॉब लिंचिंग इतिहास बताने और ज़िम्मेदारीयों का फुटबॉल खेलने में व्यस्त है।
देश की मौजूदा आवारा भीड़ की घटनाओं को देखकर तो यही लगता है कि देश अपने नागरिकों में कानून के शासन के प्रति स्वाभाविक निष्ठा नहीं पैदा कर सका है। इसलिए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने वाली ताकतें समाज और कानून के शासन दोनों को ठेंगा दिखा रही हैं और हम या तो किसी आवारा भीड़ का हिस्सा बनने को मजबूर हैं या भीड़ के कानून को मानने को मजबूर हैं। क्योंकि हमारी संसद और सरकारें बस कड़ी निंदा की खुशफहमियों में है जबकि मॉब लिंचिंग को राजनीतिक सवाल बनना ज़रूरी है।
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