बिहार के मुज़फ्फरपुर में सरकारी मदद से चलने वाले एक बालिका गृह में रहने वाली 40 बच्चियों के साथ बलात्कार का मामला सामने आया है। मेडिकल रिपोर्ट में 40 में से 29 बच्चियों के साथ बलात्कार की पुष्टि हुई है। कई बच्चियों के गर्भवती होने की भी पुष्टि हुई है। कई के शरीर पर जले के निशान हैं। एक बच्ची ने आरोप लगाया है कि असहमति जताने पर एक बच्ची को पीटकर मार डाला गया और उसे कैंपस में ही दफना दिया गया।
आरोपों की माने तो बच्चियों के साथ यौन-शोषण के इस मामले में मुज़फ्फरपुर से लेकर पटना तक के बड़े-बड़े मंत्री, प्रशासनिक अधिकारी, सांसद, विधायक सभी शामिल हैं। पटना में लोगों से बात करने पर पता चला कि यह लंबे समय से चल रहा था और दूसरे ज़िलों के बालिका-गृह भी शक के दायरे में हैं।
हालांकि यह मामला अप्रैल-मई में ही सामने आ गया था। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस की एक टीम ने अपने सोशल ऑडिट में पाया था कि कई बच्चियों ने यौन-शोषण की शिकायत की है लेकिन, सरकारी दबाव में इस मामले को दबाया जाता रहा।
छिटपुट मीडिया रिपोर्ट्स को छोड़ दें तो लगातार दो महीने बिहार के लगभग सभी प्रमुख अखबारों ने इस मामले को दबाने की कोशिश ही की। अब जाकर जब काफी हो-हल्ला मचा है तो वे लोग भी जागे हैं।
40 बच्चियों के साथ बलात्कार की इतनी बड़ी घटना राज्य में हुई है, लेकिन बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का कोई खास बयान नहीं आया है। उपमुख्यमंत्री और भाजपा नेता सुशील मोदी भी ‘विशेष चुप्पी’ ओढ़े हुए हैं शायद। मैं टीवी नहीं देखता, इसलिए ठीक-ठीक नहीं बता पाउंगा कि राष्ट्रीय मीडिया और टीवी चैनल इस मामले की ठीक रिपोर्टिंग कर रहे हैं या सिर्फ खानापूर्ती।
यह जानना ज़रूरी है कि मुज़फ्फरपुर के जिस बालिका-गृह में घटना हुई है, उसका संचालक बृजेश पाठक सत्ता का करीबी रहा है। नीतीश कुमार उसके पक्ष में चुनाव प्रचार तक कर चुके हैं। क्या आपको नहीं लगता कि मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री और पूरे सत्ता के करीबी आदमी के खिलाफ जांच को निष्पक्ष बनाने के लिये मुख्यमंत्री को जांच परिणाम आने तक इस्तीफा दे देना चाहिए?
क्या अब दिखावे के लिये भी राजनीति में नैतिकता की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए? जयप्रकाश नरायण के चेलों से इतनी नैतिकता की उम्मीद बेमानी है? क्या बिहार की जनता इस खबर से हिली नहीं है? क्या हम बिहारियों के लिये यह समय सड़क पर उतरकर उन बच्चियों के लिये न्याय की मांग करने का नहीं है?
हालांकि बिहार की विपक्षी पार्टियां इस मामले को विधानसभा में और सार्वजनिक मंचों पर लगातार उठा रही हैं। सरकार ने एसआईटी का गठन भी किया है।
हम बिहारी अक्सर दिल्ली और मीडिया द्वारा कवर किये जा रहे बलात्कार की घटना पर अपना गुस्सा ज़ाहिर करते रहते हैं। हो सकता है हम में से कई लोग इन घटनाओं के खिलाफ किसी कैंडल मार्च में भी शामिल हुए हों, लेकिन आज पूरा प्रदेश अगर इस मामले पर चुप है तो उसका क्या अर्थ लगाया जाए?
क्या एक राज्य के नागरिक होने के नाते, एक बिहारी होने के नाते इन अनाथ बच्चियों के साथ यौन-शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाना हमारा कर्तव्य नहीं है? क्या अपने राजनीतिक निष्ठाओं से ऊपर उठकर यह वक्त इन बच्चियों के न्याय के लिये खड़े होने का नहीं है?
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