जी हां, बात थोड़ी कड़वी है, इसलिए दो-चार घूंट पानी पी लें। अब हम पूरे इत्मीनान के साथ इस खेल को समझने का प्रयत्न करते हैं। सबसे पहले हमें ‘आईटी सेल’ के राजनीतिक जन्म और उसके बढ़ते प्रभाव को समझना बहुत ज़रूरी है। ठीक-ठीक याद करना तो मुश्किल ही है कि किस राजनेता या राजनीतिक दल के गर्भ से इसका राजनीतिक उदय हुआ लेकिन, पहली बार इसकी एक झलक वर्ष 2011 में अन्ना आंदोलन के दौरान देखने को मिली।
हालांकि यह आंदोलन तब की केंद्र में बैठी कॉंग्रेस सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ था लेकिन, इसे कभी राजनीतिक नहीं माना गया। अरविन्द केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, कुमार विश्वास, स्वामी अग्निवेश, किरण बेदी और उनकी टीम ने पहली बार देश की आम जनता को झकझोर कर रख देने वाला आंदोलन किया। ये सही है कि अन्ना हज़ारे और उनका 10 दिनों का भूख-हड़ताल ज़्यादा चर्चा में रहा लेकिन, इस आंदोलन को बेहद करीब से देखने वाले लोग जानते हैं कि किस प्रकार से पहली बार आईटी के छात्रों ने इस आंदोलन को सोशल मीडिया पर हवा दी।
हालांकि ऐसी चीजें अन्य देशों में पहले हो चुकी थीं लेकिन, भारत में यह पहली बार था कि सोशल मीडिया ने एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन खड़ा किया। बाद में मेनस्ट्रीम मीडिया ने अपने हिस्से का खेल खेला। बतौर कुमार विश्वास, ”देश को हमने फेसबुक और ट्विटर चलाना सिखाया”।
लोकपाल की स्थापना के लिए हुए इस आंदोलन को कई लोगों ने जेपी के ‘संपूर्ण क्रांति’ से तुलना की लेकिन, हकीकत यही है कि इस बड़े आंदोलन के बाद सत्ता बदल गयी मगर ना तो लोकपाल आया और ना ही भ्रष्टाचार गया। हां, इस आंदोलन के सभी लोग ‘सेटल’ ज़रूर हो गए। अर्थात पहली झलक के साथ ही आईटी सेल ने अपना खेल दिखाना शुरू कर दिया। वह खेल था, लोगों को बेवकूफ बनाने का।
अन्ना आंदोलन में आईटी सेल के माध्यम से सोशल मीडिया के क्रांतिकारी प्रयोग को हमारे शातिर नेता भली-भांति समझ चुके थे। लोकतंत्र में चुनावी राजनीति किसी भी तिकड़म के सहारे जनसमर्थन हासिल करने का खेल है और आईटी सेल इस प्रयास में चमत्कारी प्रदर्शन करता दिख रहा था।
पहली बार कायदे से 2013 में गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री नरेंद्र मोदी को तीसरी बार गुजरात की सत्ता दिलाने और इसके साथ ही उन्हें प्रधानमंत्री प्रोजेक्ट करने की परियोजना आईटी सेल को दी गयी। जिसका नेतृत्व मेरे हम शहर के एक आईटी एवं प्रबंधन के विद्वान कर रहे थे।
इस परियोजना की वजह से हमें ‘नरेंद्र मोदी, चायवाला’ की इमेज का साक्षात्कार करने का मौका हासिल हुआ। गुजरात में नरेंद्र मोदी को भावी प्रधानमंत्री घोषित करके, गुजरात गौरव को जगाया गया और तीसरी बार मुख्यमंत्री का पद हासिल हुआ। अब आईटी सेल की कृपा से प्राप्त इस जीत को नरेंद्र मोदी के ‘राम-राज्य’ की सफलता के किस्सों में परिवर्तित कर, पूरे देश में एक माहौल बनाने का कार्यक्रम शुरू हुआ।
सोशल मीडिया और मैनेज्ड मेनस्ट्रीम मीडिया के माध्यम से देश में ‘गुजरात मॉडल’ की चर्चा करके श्री नरेंद्र मोदी को विकास पुरुष के रूप में स्थापित किया गया। जिसके बाद बेहद खूबसूरती से इस चर्चा को नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के रूप में पेश कर पार्टी के अंदर मोदी के पक्ष में राय बनाई गई।
यह पूरा खेल किसी फिल्मी पटकथा की तरह आगे बढ़ रहा था। जिसका लेखन और निर्देशन प्रशांत किशोर के नेतृत्व में एसी कमरों में बैठे सैकड़ों आईआईटी, आईआईएम और विदेश से शिक्षा प्राप्त कर लौटे युवा कर रहे थे। ‘चाय पर चर्चा’ और ‘पटेल का स्टेच्यू’ आईटी सेल की ही उपज थी।
खैर, आईटी सेल सफलता के झंडे गाड़ते रहा, हालांकि वे सभी झंडे भाजपा के ही थे। क्योंकि अभी तक अन्य दल इस क्रांति को गंभीरता से नहीं ले रहे थे। जब तक समझते, तब तक सब कुछ खेत हो चुका था। नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में भाजपा ने वर्ष 2014 में पूर्ण बहुमत हासिल की और पहली बार देश में आईटी सेल निर्मित कृतिम आंधी में उड़ती हुई एक सरकार सत्ता के आंगन में आ गिरी।
आईटी सेल का यह पूरा खेल इस हद तक सटीक था कि हमें इस बात का कभी आभाष भी ना हुआ कि भावी प्रधानमंत्री जी जो मंच से चटाखेदार जुमले और सतरंगी सपने अपने भाषण में परोस रहे हैं, उसकी थाल कहीं और से पकाई/सजाई गयी है।
यह कुछ ऐसा था, जैसे कोई कन्या आपके सम्मान में होटल से मंगाया छप्पन-भोग परोसे, और आप उसे अन्नपूर्णा समझ लोटमलोट हो जाएं। इस दौरान भारतीय लोकतंत्र में पहली बार नेता को फिल्मी कलाकार की तरह कॉमेडी, जुमला, व्यंग्य, और चुटकुले बोलते देखा गया, जिस पर भीड़ भी रंग-बिरंगे चेहरे से सीटियां मारती दिखी। शायद विश्व का सबसे युवा देश आईटी सेल के मायाजाल में उलझा बदहवास हुआ जा रहा था। राजनीति में हमने नेताओं को व्यवहारिकता के न्यूनतम स्तर तक गिरते देखा था लेकिन, अब ज़ोर गिराने पर हो रहा था।
विपक्षी नेताओं के बारे में आईटी सेल ने कई चमत्कारी आरोप पैदा किये, जिनका हमारी मीडिया ने तेज़ी से पालन-पोषण कर बड़ा किया। स्विस बैंकों में कालेधन पर बेहद सुनयोजित ढंग से एक से बढ़कर एक आकड़ें चुनावी मंचों से बोले गए। किसी ने कहा 2 लाख करोड़ तो, किसी ने 4 लाख करोड़। मनमोहन सरकार की नींव हिलाकर रख देने वाला 2G स्पेक्ट्रम घोटाला 4 वर्षों की सघन जांच के बाद फर्ज़ी निकलता है। इस मामले में सीबीआई न्यायधीश को कहना पड़ता है, ”यह घोटाला हुआ ही नहीं सिर्फ मीडिया/सोशल मीडिया की हवाबाज़ी थी”।
चुनावों के दौरान हमने बेहद ज़ोश-खरोश के साथ सरदार पटेल और सुभाष चंद्र बोस को प्रकट होते देखा है। इसी दौरान हर-हर महादेव की जगह “हर-हर मोदी” का उदय हुआ, जो गंगापुत्र भी बने।
कुल-मिलाकर पूरा खेल किसी बेहतरीन इवेंट की तरह संपन्न हुआ, जिसमें झूठ-अफवाहों की थाल सजाकर, जनता को परोसी गई और गूंगे प्रधानमंत्री की वजह से 10 वर्षों की भूख में तड़पती जनता ने चटखारे लेकर स्वाद उड़ाए।
भाजपा के केंद्र में आसीन होते ही लोगों को लगा कि पहले की तरह ही चुनावी राजनीति अब सिर्फ संसदीय राजनीति में बदल जाएगी। नेता दिल्ली चले जायेंगे, हम अपने काम में लग जायेंगे। लेकिन इस बार लोकतंत्र नए दौर में प्रवेश कर चुका था। अब हमारे नेता के कई चेहरे हो चुके थे, लाखों हाथ हो चुके थे। उनके पास आईटी सेल के रूप में ऐसा विकल्प था, जो चुनावी राजनीति के माहौल को बनाये रख सकता था। उसे सुनने वालों की संख्या नेताजी के सामने खड़ी भीड़ से कहीं ज़्यादा थी। अर्थात आईटी सेल का खेल आगे भी चलते रहा अपितु कहीं ज़्यादा प्रगति पर चला। देखा-देखी अन्य दलों ने भी अपने-अपने आईटी के पहलवान सोशल-मीडिया के अखाड़े में उतार दिए।
(आईटी सेल का यह खेल और उसकी रोचक कमेंट्री कई खण्डों में आप तक पहुंचेगी। अगली कड़ी में हम विमर्श करेंगे 2014 के पश्चात आईटी सेल के बढ़ते प्रभाव और दूषित होती हमारी लोकतान्त्रिक एवं सामाजिक व्यवस्था के सम्बन्ध में।)
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