पब्लिकेशन डिवीज़न की ही तरह फोटो डिवीज़न सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार की अधीनस्थ संस्था है। यह एक फोटो आर्काइव की तरह है, जो सरकारी फोटोग्राफ्स का संकलन, संचयन और प्रकाशन करती है। इस संस्था द्वारा संकलित फोटो डिजिटल रूप में इसकी वेबसाइट पर भी उपलब्ध होती है।
कुछ महीनों पहले तक इसकी ऑफिशियल वेबसाइट पर 1950 के दशक से लेकर वर्त्तमान साल तक के फोटोग्राफ्स हुआ करते थे। इस वेबसाइट पर उपलब्ध 1950 के दशक के फोटोग्राफ्स का इस्तेमाल मैंने खुद कई बार किया है, जिनमें एक उल्लेखनीय फोटो जवाहरलाल नेहरू की है।
इस फोटो में नेहरू दिल्ली के आसपास (शायद मथुरा रोड, वज़ीराबाद या आज़ादपुर) के किसी गांव में किसी निर्माण के शिलान्यास के लिए मज़दूरों के साथ टोकरी में मिट्टी ढो रहे हैं।
इस वेबसाइट के फोटोग्राफ्स का इस्तेमाल शोध-सन्दर्भों के रूप में किया जाता था, क्योंकि फोटोग्राफ्स के साथ कैप्शन में संक्षिप्त सूचना भी होती थी। चूंकि इन फोटोग्राफ्स की प्रमाणिकता असंदिग्ध होती थी, इसलिए इन्हें बहस-मुबाहिसों में फोटोग्राफिक प्रमाण के तौर भी इस्तेमाल कर लिया जाता था। इस कलेक्शन में प्रायः उन तमाम राजनैतिक झूठ का फोटॉग्राफिक जवाब होता था जो संघी फोटोशॉप गिरोह वाले फैलाते रहे हैं।
आज मैंने इस वेबसाइट से ‘हल जोत रहे किसान से खेत में मिल रहे प्रधानमंत्री नेहरू’ की एक तस्वीर लेनी चाही तो मालूम हुआ कि सर्चवर्ड Jawaharlal Nehru के लिए कुल 316 रिजल्ट हैं, जिनमें नेहरू के अपने समय की एक भी नहीं है। जो रिज़ल्ट दिखाया गया था उसमें अन्तिम रिज़ल्ट 18/02/2011 को प्रकाशित ‘संसदीय संग्रहालय’ की फोटो है, जिसके डिस्क्रिप्शन में Pandit Jawaharlal Nehru शब्द आया है।
आखिरकार, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसकी राजनैतिक इकाई भारतीय जनता पार्टी आम पहुंच से आज़ादी की लड़ाई के इतिहास को क्यों मिटाना चाहती है? केवल इसलिए कि उसके दुष्प्रचारों की काट तुरन्त और फोटो या वीडियो जैसे विश्वास योग्य डिजिटल फॉर्मेट में उपलब्ध ना हो पाए? केवल इसलिए कि उसके खेमे की कोई ऐसी तस्वीर नहीं है, जिससे वह यह सिद्ध कर पाए कि आरएसएस ने भी आज़ादी की लड़ाई में ब्रिटिश हुकूमत से लोहा लिया था? कुछ भी हो, सच तो यही है कि हिन्दू महासभा और आरएसएस आज़ादी की लड़ाई के खिलाफ, अंग्रेज़ों की तरफदारी कर रहे थे, फोटो हटाने से इतिहास नहीं बदल जाता है।
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