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“क्या सरकार राष्ट्रद्रोह की आड़ में वैचारिक विरोध को हथकड़ी लगा रही है”

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आख़िरकार अब ये भी हो रहा है। वंचितों, दलितों, अनुसूचित जनजातियों के पक्ष में सालों से संघर्ष कर रहे नागरिकों को दबोचा गया है, उनके घरों पर छापा मारा जा रहा है। जिन्हें पुलिस ने हिरासत में लिया है वे लोग संविधान की सीमा के अंदर रहते हुए नागरिक और मानवीय अधिकारों को बचाने के लिए सालों काम करते रहे हैं। सुधा भारद्वाज मज़दूरों को संगठित करने के साथ उनकी वक़ील भी बनीं, और एनएलयू दिल्ली में मानवाधिकार की प्रोफ़ेसर भी हैं। गौतम नवलखा प्रतिष्ठित जर्नल ईपीडब्लू के सलाहकार सम्पादक हैं और पीपल्स यूनियन फ़ॉर डेमोक्रेटिक राइट्स के सचिव रहे हैं।अरुण फ़रेरा मुंबई हाई कोर्ट में वकालत करते हैं और दलित अधिकारों की आवाज़ उठाते रहे हैं। वरवर राव क्रांतिकारी कवि हैं जिन्होंने ये भी लिखा है- “कब डरता है दुश्मन कवि से? जब कवि के गीत अस्त्र बन जाते हैं”। वरनॉन गोंज़ाल्विस भी लेखक और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। इन लोगों पर इल्ज़ाम है कि वे देश के लिए ख़तरा हैं। हालाँकि अदालत में पुलिस का अभी ये स्पष्ट करना बाक़ी है कि ये लोग किस तरह ख़तरा पैदा कर रहे हैं और किसे।

वैसे इन पाँचों नागरिकों का पेशा मानवाधिकार से जुड़ा है। इसलिए ऐसा लगता है कि सरकार ने उन लोगों पर हमला बोल दिया है जो अधिकारों और संवैधानिक मूल्यों की बात करते हैं। इनके अलावा भी दलित और वाम चिंतकों, कार्यकर्ताओं की गिरफ़्तारियाँ और घरों पर छापेमारी हुई है। ये जिस सिलसिलेवार ढंग से और जिस तेज़ गति से किया जा रहा है उससे सरकार की मंशा बिलकुल साफ़ है। सरकार संकेत दे रही है कि राष्ट्र्द्रोह के आरोप की आड़ में वो हर तरह के वैचारिक विरोध को हथकड़ी लगाएगी। लेकिन उन्हें भूलना नहीं चाहिए कि विचारों को हथकड़ी नहीं पहना सकते। किसी ने ठीक कहा है कि ये सरकार बुद्धिजीवियों से नहीं बल्कि बुद्धि से ही दुश्मनी ठान बैठी है।

जब भी सरकार अपनी नाकामियों पर घिरती है और उसे जनता के सवाल से बचना होता है तो वो ऐसे कारनामे करती है जिससे ध्यान भटकाया जा सके। इस सरकार के पास वो ताक़त तो है ही जो पारम्परिक तौर से सत्ता पक्ष के पास होती हैं- यानी कि सेना, पुलिस, राजनीतिक पार्टी के गुंडे। लेकिन इसके अलावा इस सरकार की बड़ी ताक़त उस सेना से आ रही है जिसे वो सार्वजनिक रूप से अपनाती नहीं। इसे ट्रोल सेना कह सकते हैं। ट्रोल वो लोग हैं जो सरकार की आलोचना करने पर बिना कोई स्पष्ट तर्क दिए देशद्रोही, टुकड़े-टुकड़े गैंग, लिबटार्ड और अब अर्बन नक्सल कहते है। इसके अलावा ये मार्क्सवादी, कम्युनिस्ट, लिबरल आदि शब्दों को भी गाली की तरह इस्तेमाल करते हैं। यानी अगर इन्होंने किसी को कम्युनिस्ट कहा तो इसका मतलब कि ये उसकी राजनेतिक सोच को सम्बोधित नहीं कर रहे हैं। बल्कि उसकी राजनीतिक सोच और तर्क को ताक पर रखते हुए पहले उसे ‘कम्युनिस्ट’ मूर्ख/षड्यंत्रकारी बताते हैं और फिर इस ख़ुद के बनाए हुए दुश्मन को सरेआम धमकाते, डराते, लज्जित करते हैं। इनमें से ज़्यादातर को गालियाँ देने से या जान की धमकी देने तक से भी कोई गुरेज नहीं रहता।

देश के लगभग सभी टीवी समाचार, कई डिजिटल प्लैट्फ़ॉर्म, सभी तरह के सोशल मीडिया (फेसबुक, व्हाट्सएप, यूट्यूब और अन्य), पर ये ट्रोल सेना ज़बरदस्त रूप से सक्रिय है। ट्रोल का मिशन है कि सत्ता पक्ष के प्रति असहमति को सूँघते हुए पहुँच जाना और प्रोपागैंडा का पहले बचाव करना, असफल होने पर सरकार के विरोधियों को देश का विरोधी बोल देना और उसके बाद हिंसात्मक हो जाना। इस तरह की ब्रांडिंग के ज़रिए एक माहौल बनाया गया है कि जिसमें विरोधियों की बात सुने जाने की बजाय बोलती बंद कर देने की रिवायत को बहुत हवा मिली हुई है। साहित्यकारों और पत्रकारों की हत्या, समाचार चैनलों से सरकार की आलोचना करने वालों को बर्खास्त करना और हाल ही में उमर ख़ालिद पर हमला इस के पुख़्ता उदाहरण हैं।

सबको याद है कि दो साल पहले इसी तरह सत्तावर्ग ने एक सिस्टमेटिक षड्यंत्र रच कर अपनी ट्रोल सेना को छात्रों, छात्र नेताओं, छात्र राजनीति पर टूट पड़ने के लिए संकेत कर दिया था। वो सिलसिला पिछले दो साल से चल रहा है। ये कभी जेएनयू बंद कराने की माँग से शुरू हुआ था और देखिए अब कैसे “तू जेएनयू से है क्या?” और “कहीं एंटी-नेशनल न कह दिया जाए” की हँसी-ठिठोली में बदल गया है। छात्रों को क़ाबू में करने की कोशिश सरकार को उलटी पड़ गयी और छात्र ही सरकार के लिए सबसे मज़बूत विपक्ष बन गए हैं। 

इन दिनों सरकार बुरी तरह घिरी हुई है- मॉब लिंचिंग, राफ़ेल मामले में भ्रष्टाचार, शिक्षा और स्वास्थ्य में कोई सुधार नहीं। ऊपर से नोटबंदी, जीएसटी जैसी ‘आर्थिक आपदाओं’ पर बोलना भी भारी है। इस सरकार के आका असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। असुरक्षा से उपजती छटपटाहट में दमनकारी ताक़तें अपने दमन को नंगा कर देती हैं। हिंसा के और भीषण होते जाने की सम्भावना बहुत ज़्यादा है। तो क्या हम सजग नागरिकों को डर लगना चाहिए? क्या हमें थोड़ा पीछे हटकर डिफ़ेन्सिव हो जाना चाहिए?

जनसंघर्ष संभवतः ऐसे मौक़े का इंतज़ार ही करता है। ऐसे समय की गुणात्मक पहचान ये है कि सत्ता पक्ष की कमज़ोरियों प्रकट होने लग जाती हैं और उनको छुपा पाने में वो असफल हो रहा होता है। ये समय आलोचनात्मक संघर्ष को बहुत सतर्कता से आगे ले जाते हुए उसे रचनात्मक संघर्ष का रूप देने का है। संसदीय लोकतंत्र का त्योहार बहुत पास है। #metooUrbanNaxal और #NoMoreFalseCharges को सोशल मीडिया पर मिली सफलता उत्साहित करने वाली है। अगर बचे हुए समय में जनांदोलन की ऊर्जा विकल्पों को ढूँढने या किसी विकल्प के पीछे लामबंद होने की बजाय नया विकल्प पैदा करने में जाए तो संविधान के सम्मान को ज़रूर बचाया जा सकेगा। और हो सकता है कि हम संविधान की आत्मा को जनता के और भी करीब ला पाएँ।

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