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“सामाजिक कार्यकर्ताओं की आवाज़ दबाने का हथियार है ‘अर्बन नक्सल’शब्द”

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कुछ चालाक स्क्रिप्ट राइटर घटनाओं के पहले की घटना लिख लेते हैं और उस घटनाओं को भविष्य में ढाल की तरह इस्तेमाल करने का गुर भी खूब जानते हैं। ‘अर्बन नक्सल’ की स्क्रिप्ट मुझे लगता है कि बहुत पहले लिख दी गई थी। सभी आरोपियों पर जिसे हिरासत में लिया गया है उनकी कहानी पुणे के कोरेगांव से शुरू होती है। भीमा-कोरेगांव युद्ध की 200 वर्षगांठ मनाने के लिए दलित समाज के असंख्य लोग इकट्ठे हो गए थे। कई सामाजिक कार्यकर्ता भी उस आयोजन में शामिल हुए थे।

सबसे पहले इसे समझना ज़रूरी है कि आखिर भीमा-कोरेगांव की घटना क्यों हुई? कहा जाता है कि 1818 को ब्रिटिश सेना ने मराठा पेशवा पर चढ़ाई कर दी थी। ब्रिटिश सेना के साथ दलित समाज के कई सैनिक थे। पेशवा उन दलितों को अछूत समझते थे। ऐसा माना जाता है कि ब्रिटिश सेना द्वारा पेशवा को हरा देने की खुशी में भीमा कोरेगांव में दलित समाज जश्न मानते हैं। उसी को लेकर जब दलित कार्यकर्ता जश्न मनाने युद्ध स्मारक पुणे पहुंचे, पुलिस के मुताबिक कुछ लोगों ने उनपर पत्थरबाज़ी शुरू कर दी, उस भगदड़ में एक व्यक्ति की मृत्यु हो गई।

ये सभी सामाजिक कार्यकर्ता आदिवासी और दलित समाज के लिए कार्य करते हैं। भला ये लोग अपने ही लोगों पर हमला क्यों करेंगे? दूसरा मामला प्रधानमंत्री की सुरक्षा के लिए कुछ फर्ज़ी सबूत के आधार पर जिन लोगों की गिरफ्तारी हुई है उसकी जांच में पांच वर्ष क्यों लग गए? कहीं ना कहीं यह सब एक स्क्रिप्ट का हिस्सा लगता है।

खालिस किसी न्यूज़ चैनल की झूठे खबरों के आधार पर और एक कागज़ पर लिखी चंद लाइन को आधार बनाकर कुछ लोगों की गिरफ्तारी कर उनके जान को जोखिम में डाल देना क्या अमानवीय नहीं है? झूठी न्यूज़ की बिसात पर की गई कार्रवाई पर पुणे पुलिस सुप्रीम कोर्ट को कोई सबूत क्यों नहीं पेश कर पाई? ऐसी फर्ज़ी खबरों को प्रसारित करने वाली न्यूज़ मीडिया को देश की जनता से माफी मांगनी चाहिए।

‘अर्बन नक्सल’ के क्या मायने हैं, उसका मुझे पता नहीं, जैसे ‘नक्सल’ शब्द का कोई मायने नहीं है। इस शब्द की रचना किस महान भाषा-वैज्ञानिक ने की है उसका भी कोई पता नहीं। भारत की न्यायपालिका ‘नक्सल’ और ‘अर्बन नक्सल’ को कैसे परिभाषित करती है पता नहीं लेकिन कुछ बुद्धिजीवियों ने इसपर कई पुस्तके लिख डाली हैं। दो तीन दिन पहले ही ‘नैशनल मीडिया’ में बड़ी खबरें आ रही थीं, जिनमें मैंने पहली दफा ‘अर्बन नक्सल’ शब्द सुना था।

थोड़ी बहुत छानबीन करने पर भी बात समझ में नहीं आई। ‘नैशनल मीडिया’ के लोग इसकी ‘शहरी नक्सलवादी’ के रूप में व्याख्या कर रहे हैं। उनका कहना है कि देश में कुछ ऐसे फेक लेखक, कवि, बुद्धिजीवी, वकील और कई सामाजिक कार्यकर्ता कुछ ऐसी गतिविधियां कर रहे हैं जो राष्ट्रहित के लिए उचित नहीं है। प्रश्न यह है कि बिना सबूत के किसी भी देश के नागरिक को एक ऐसे नाम से नवाज़ा जा रहा है जिसका कोई अस्तित्व ही नहीं। इस तरह तो कोई भी किसी शहरी नागरिक को ‘अर्बन नक्सल’ बोलकर उसके जान को जोखिम में डाल सकता है।

इस देश में कुछ ऐसे वर्ग भी हैं जो दलित एवं आदिवासियों के संरक्षण और सुरक्षा से सम्बंधित विशेष कानून के समर्थक नहीं हैं और उनका पुरज़ोर विरोध कर रहे हैं। वे लोग पढ़े-लिखे शिक्षित हैं कई विशिष्ट पदों पर आसीत हैं। एक विशेष विचारधारा के लोग संविधान को ना मानने और उस संविधान के पन्नों को सरेआम जला देने और संविधान के प्रति नफरत करते हैं क्या ऐसे लोग ‘अर्बन नक्सल’ नहीं हैं? जो लोग दिन रात धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर समाज के अंदर नफरत का ज़हर फैला रहे हैं क्या ऐसे लोग ‘अर्बन नक्सल’ नहीं हैं? नाहक किसी निर्दोष की ‘मॉब लिंचिंग’ कर मार डालना यह ‘अर्बन नक्सलवाद’ नहीं है?

‘मॉब लिंचिंग’ पर केंद्रीय गृह सचिव की अध्यक्षता में बनी समिति ने अपनी रिपोर्ट सौंप दी है। ये रिपोर्ट गृह मंत्री की अध्यक्षता वाले मंत्री समूह को दी गई है और अब मंत्री समूह अंतिम निर्णय के लिए प्रधानमंत्री को सिफारिश भेजेगा। रिपोर्ट में कहा गया है कि सोशल मीडिया पर पोस्ट की गई झूठी सूचनाओं के कारण ‘मॉब लिंचिंग’ को बढ़ावा मिला। दरअसल, रिपोर्ट में उन घटनाओं की ओर ध्यान दिलाया गया है जिनमें पिछले एक साल में 40 लोग ‘मॉब लिंचिंग’ के शिकार हो गए थे। प्रश्न यह है कि इस एक वर्ष के अंदर उन दोषी लोगों के ऊपर कर्रवाई क्यों नहीं हुई जिसने मॉब लिंचिंग के लिए भीड़ को उकसाया था। उनके ऊपर जांच क्यों नहीं हुई। क्या यह ‘अर्बन नक्सल’ गतिविधि के दायरे में नहीं थी क्या ?

क्या इस देश के लिए किसी दुर्दशा से कम नहीं कि जो लोग दलित एवं आदिवासियों के हक और अधिकार के लिए उनके साथ खड़े हों और उनको इन्साफ दिला सकें। तो उन सोशल एक्टिविस्टों को न्यूज़ चैनलों द्वारा ‘फेक सामाजिक कार्यकर्ता’ एवं ‘अर्बन नक्सल’ बना दिया जाता है।

बात सोचने की है कि ‘अर्बन नक्सल’ शब्द का सृजन किसने किया, यह एक पहेली है। जो लोग छत्तीसगढ़, झारखण्ड, बिहार जैसे उन क्षेत्रों से आते हैं, जहां आदिवासी एवं दलित समुदाय के लोग रहते हैं, जहां उन आदिवासियों एवं दलितों का जमकर शोषण किया जाता है, उनके घरों को जला दिया जाता है, जवान महिलाओं के साथ समूह में जानवरों जैसा शिकार किया जाता है वैसे ही समूह में उनका बलात्कार किया जाता है और उनको मार डाला जाता है। अगर कुछ समाज के लोग उनकी मदद के लिए आगे आते हैं चाहे वे किसी भी विचारधारा के भी क्यों ना हों क्या फर्क पड़ता है? उनकी नज़र में वे लोग किसी मसीहा से कम नहीं होंगे। अगर आदिवासियों एवं दलितों की सुरक्षा एवं उनके विकास के लिए खुद सरकार सामने आती तो क्या आज आदिवासियों एवं दलितों की ऐसी दुर्दशा होती? कहीं ना कहीं सरकार अपनी नाकामी को छुपाने की कोशिश कर रही है।

मैं पूरे देश की जनता और इस देश की सरकार से पूछना चाहता हूं कि कभी उन्होंने छत्तीसगढ़, झारखण्ड और बिहार के आदिवासियों एवं दलितों की दुर्दशा पर कोई ठोस कदम उठाया है? जिस तरह से नेशनल मीडिया वाले अर्बन नक्सल की मनगढ़ंत परिभाषा देश को सीखा रहे हैं, थोड़ा उन आदिवासी एवं दलित समुदाय के क्षेत्र के बारे में भी देश की आवाम को बताते कि उनके क्षेत्र में उनकी क्या दुर्दशा हो रही है।

अगर एक बीमार आदिवासी को इलाज की ज़रूरत पड़ती है तो उसे एम्बुलेंस में नहीं चारपाईयों में डालकर, कंधो पर इलाज के लिए शहरों में लाया जाता है उसके बाद भी बेचारा मरीज़ बच नहीं पाता। स्कूल की जर्जर व्यवस्था शिक्षा विभाग का उदासीन रवैया और अपने मौलिक अधिकारों से वंचित आदिवासी और दलित समुदाय आज भी विकास की आस देख रहा है।

मैं यहां सबकी बात नहीं करूंगा लेकिन एक ऐसी शख्सियत जिसने अपना पूरा जीवन देश के सबसे वंचित समाज के हक के लिए लगाया हो, जिस पर ना तो किसी मिडिया की नज़र पड़ती और ना किसी सरकार की। जी हां , मैं बात कर रहा हूं सुधा भारद्वाज की। एक सामाजिक कार्यकर्ता एवं मानवाधिकार से जुड़ी, पेशे से वकील महिला। यह एक लम्बे समय से ट्रेड यूनियन से जुड़ी हुई हैं। इन्होंने देश के गरीब, मज़ूदरों, किसानों, दलितों, आदिवासियों के लिए लड़ाई लड़ रही है। छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा से जुड़े रहते हुए इन्होंने भीलाई के माइन्स और प्लान्ट्स में काम करने वाले मज़दूरों के हकों के लिए भ्रष्ट नौकरशाहों के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद की है।

जिन पांच लोगों के ऊपर ‘अर्बन नक्सल’ का आरोप लगा है उनमें सुधा भारद्वाज के नाम को भी शामिल किया गया है। कुछ नेशनल मीडिया के एंकर उन्हें फेक सामाजिक कार्यकर्ता बोलते हैं! क्या उन्हें नहीं पता कि सुधा भारद्वाज जी नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली की विज़िटिंग प्रोफेसर और जनहित लॉयर कलेक्टिव’ की संस्थापक भी हैं। एक ईमानदार सामाजिक कार्यकर्ता को फेक यानी नकली सामाजिक कार्यकर्ता बोलकर अपमान करते हुए ऐसे न्यूज़ एंकर को शर्म आनी चाहिए।

सुधा भारद्वाज के खिलाफ आईपीसी की धाराओं, 153 ए, 505(1) (बी), 117, 120 (बी), 34 और यूएपीए की धाराओं 13, 16,17, 18, 18(बी), 20, 38, 39, 40 के तहत आरोप लगाए गए हैं। इतनी सारी धाराओं को देखकर किसी को भी यह लग सकता है कि वे एक ‘खतरनाक आतंकवादी’ हैं। क्या इस तरह की गलत खबरों के द्वारा किसी नागरिक की जान को जोखिम में डालने का षड्यंत्र नहीं किया जा रहा है?

आरोप लगाने वाले कौन लोग हैं? उनका बैकग्राउंड क्या है? सबकी जांच होनी चाहिए। अगर कोई एलिगेशन लगा है तो यह देश की ‘जुडिशल सिस्टम’ का काम है कि अलग से इंक्वायरी कमिटी बनाये और उसकी निष्पक्ष जांच कराये। लेकिन जिस तरह से न्यूज़ चैनल के एंकर खबरें सुना रहे हैं और अखबारों की हेडलाइन छापी जा रही है ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे वे खुद न्यायपालिका है और सर्वोच्च न्यायालय के जज हैं। इससे मीडिया के कुछ खास लोगों की पारदर्शिता पर ही शक होता है। अगर कोई किसी की विचारधाराओं से सहमत नहीं है तो इसका मतलब यह नहीं कि उसको अपराधी करार कर दिया जाए।

अर्बन नक्सल जैसी कोई चीज़ नहीं है। अगर इसकी परिभाषा देश की सुरक्षा और शांति भंग करने वाले समूह से की जा रही है तो इस देश में ऐसे संगठनों पर कठोर कर्रवाई होनी चाहिए और गलत खबरें समाज में फैलाने वाले मीडिया पर भी कठोर कर्रवाई होनी चाहिए। हम इसे क्या समझें कि देश के अंदर हो रही गतिविधियों से देश की सुरक्षा एजेंसी अनजान है?

एक तरफ हमें इस बात को भी समझना होगा कि जिस आदिवासी क्षेत्र में नक्सलवाद पनप रहा है उसके मुख्य कारण क्या हैं? आखिर आदिवासी नक्सल से प्रभावित क्यों है? क्षेत्र की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी राज्य के प्रशासन और पुलिस व्यवस्था को दी गई है, क्या उन क्षेत्रों में पुलिस प्रशासन आदिवासियों के विश्वास को जीत पाई है? क्या सरकार ने ऐसे नक्सल प्रभावित क्षेत्र में इस समस्या के मूल जड़ों को समझने की कोशिश की है? सरकार सिर्फ नक्सलवाद को खत्म करने के नाम पर निरीह आदिवासियों की हत्या करवा रहा है। फेक इनकाउंटर की जा रही है। उनके घरों को उजाड़ा जा रहा है। उसके पीछे कई राष्ट्रीय कम्पनी भी पीछे-पीछे अपने प्रोजेक्ट लेकर उनके क्षेत्रों भी घुस रही है। क्या यह इसी प्रयोजन से तो नहीं  किया जा रहा है। कहीं ना कहीं वर्ष 2019 को ‘अर्बन नक्सल’ जैसे शब्द राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित कर सकती है।

वर्ष 2014 से 2018 के बीच इस देश में कई ऐसे मुद्दे उठे जिससे देश का विकास से कोई सम्बन्ध नहीं था। कभी गौरक्षा के नाम पर कभी दलितों को सार्वजनिक स्थानों में पीटने जैसी घटना सोशल मीडिया में खूब वायरल हुई। 9 अगस्त 2018 को पार्लियामेंट स्ट्रीट में कुछ संविधान विरोधियों द्वारा संविधान के पन्ने जलाने के जघन्य अपराध खुलेआम किये गए और उसका वीडियो भी सोशल मीडिया में वायरल किया गया। क्या ये अर्बन नक्सल गतिविधियां नहीं थीं? बाबा साहब अंबेडकर को अपशब्द बोलना क्या यह ‘अर्बन नक्सल’ के दायरे में नहीं था?

उस वक्त क्या नैशनल मीडिया के लोग सो रहे थे? अचानक इनकी नींद खुली तो अचानक से इतने सारे ‘अर्बन नक्सल’ इनको नज़र आ गए लेकिन ज़रा उन लोगों के नाम भी देश की आवाम के सामने लेकर आएं जो धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर समाज में ज़हर फैला रहे हैं। मुझे नहीं पता है कि देश के राजनेता सत्ताधारी पार्टियां और तथाकथित बुद्धिजीवी एवं धार्मिक कट्टरपन्थी समूह वर्ग हमारे देश को किधर लेकर जा रहे हैं? लेकिन न्यूज़ चैनलों पर आने वाली खबरें और डिबेट यह सब बताती हैं कि क्यों उनके पास भारत के युवाओं और किसानों के लिए कोई मास्टर प्लान नहीं है? उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि देश की स्थाई स्थिति कैसे सुधारी जाए। कैसे रोज़गार, शिक्षा, स्वास्थ्य को बेहतर किया जाए। टी.आर.पी की हवस ने समाचार एजेंसियों को इस कदर अंधा कर दिया है कि वह यह तक भूल गए हैं कि जो झूठ का ज़हर, जो नफरत के बीज वह समाज में बो रहे हैं, जिस शैली से वह समाचारों की प्रस्तुति दे रहे हैं उनका असर क्या होगा।

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