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“सिर्फ 10 हज़ार करोड़ के लिए सरकार ने पूरी अर्थव्यवस्था को पीछे धकेल दिया?”

तारीख 8 नवंबर 2016, समय रात 8 बजे, यह वह समय था जब खुद को जनता का सेवक बताने वाले प्रधानमंत्री ने नोटबन्दी की घोषणा की थी और भारत की जनता से सिर्फ 50 दिनों का समय मांगा था।

अगर हम पता करें कि सरकार ने नोटबन्दी का फैसला क्यों लिया तो पता चलता है कि इस नोटबन्दी के कई बड़े-बड़े फायदे गिनाये गए थे, जिनमें देश में बड़े पैमाने पर व्याप्त कालेधन को खत्म करना और टैक्स कलेक्शन को बढ़ाना सबसे बड़े लक्ष्य थे। इसके साथ ही डिजिटलीकरण को बढ़ावा देना, आतंकवाद पर अंकुश लगाना आदि के साथ-साथ और भी ना जाने कितने फायदे गिनाये गए थे।

नोटबन्दी लागू हो गई। बैंकों में इसका क्रियान्वयन भी होने लगा। लोग बैंकों में बड़ी-बड़ी लाइनों में लगने लगे। इस क्रम में लगभग 144 या 145 लोगों की जानें भी चली गयीं। लोगों को भयंकर परेशानी का सामना करना पड़ा। बैंकों के कर्मचारियों को दिन रात एक करके काम करना पड़ा। इस नोटबन्दी के कारण लाखों रोज़गार नष्ट हो गए। कितने ही लोग बेरोज़गार हो गए। लघु एवं लघु मध्यम उद्योगों को भारी नुकसान पहुंचा तथा कितने तो उजड़ गए। किसानों को भी भारी परेशानी हुई। कुल मिलाकर नोटबन्दी ने लगभग हर क्षेत्र पर अपना प्रभाव दिखाया।

इन सबके बीच नोटबन्दी के 50 दिन पूरे भी हुए और अब जब लगभग 1 साल 10 महीने बाद नोटबन्दी पर भारतीय रिज़र्व बैंक ने अपनी रिपोर्ट पेश की है तो उसमें यह बात सामने आई है कि नोटों की गिनती पूरी कर ली गयी है। नोटबन्दी के दौरान 15 लाख 41 हज़ार करोड़ रुपये चलन से बाहर हुए थे। रिपोर्ट में कहा गया है कि अब तक कुल 15 लाख 41 हज़ार करोड़ रुपये में से 15 लाख 31 हज़ार करोड़ रुपये यानी कुल रुपयों के 99.3% नोट वापस आ चुके हैं तथा सिर्फ 10 हज़ार करोड़ रुपये यानी 0.7% नोट ही वापस नहीं आ पाए हैं। जबकि उस समय सरकार का कहना था कि बड़ी संख्या में नोट वापस नहीं आ पाएंगे क्योंकि देश में कालाधन बहुत बड़ी मात्रा में है और नोटबन्दी से सब सिस्टम से बाहर हो जाएगा।

जिस समय नोटबन्दी हुई उस समय बहुत बड़ी मात्रा में देश में तथा देश से बाहर भी कालाधन पकड़ा गया था, उस पैसे का क्या हुआ कुछ पता नहीं है। ज़ाहिर सी बात है कि वो सारा कालाधन किसी ना किसी तरीके से सफेद किया गया और तभी इतनी बड़ी मात्रा में रिज़र्व बैंक के पास नोट पहुंचे। लोगों के मन में यह भी विचार आ सकता है कि क्या नोटबन्दी के वही उद्देश्य थे जो बताये गए थे या फिर कुछ और थे। अगर नोटबन्दी के वही उद्देश्य थे जो बताये गए थे तो क्या सिर्फ 10 हज़ार करोड़ रुपये के लिए सरकार ने नोटबन्दी की और इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था को पीछे धकेल दिया?

जब हम इन सवालों पर नज़र डालते हैं तो पता चलता है कि नोटबन्दी पूरी तरह से असफल रही है (नोटबन्दी को लागू करने में भी प्रकिया भी इसका एक कारण थी)। हमारे समाज का बुद्धजीवी वर्ग तो यह भी कह रहा है कि नोटबन्दी का फैसला ठीक वैसे ही था जैसे कि एक चूहे को मारने के लिए पूरी खड़ी फसल में आग लगा दिया जाए।

इस तरह हम देखते हैं कि नोटबन्दी का जो फैसला था वो ना तो सही फैसला था और ना ही उसे ठीक तरीके से लागू किया गया क्योंकि हमें यह पता है कि नोटों को बदलने के लिए बैंकों में उस समय बड़ी-बड़ी गड़बड़ियां की गई थीं। ध्यान रहे, हमारे यहां के नोट अभी भी जिम्बाब्वे, नेपाल, भूटान आदि देशों में हैं तथा उनका आना अभी बाकी है, अगर वे सभी नोट भारत में आ जाये तो यह भी हो सकता है कि कुल नोटों की कीमत 15 लाख 41 हज़ार करोड़ रुपये से भी अधिक हो जाए। अर्थात जितने रुपये चलन से बाहर हुए थे, उससे भी अधिक आ जाएं। इसका मतलब यह होगा कि नोटबन्दी से कालेधन को सिस्टम से बाहर नहीं बल्कि अंदर किया गया यानी कालेधन को सफेद बनाया गया।

इतनी बड़ी रिपोर्ट आने के बाद भी सरकार की तरफ से कोई भी ज़िम्मेदार व्यक्ति ज़िम्मेदारी पूर्वक कुछ भी बोलने को तैयार नहीं है। इस रिपोर्ट पर तो खुद प्रधानमंत्री को उसी समय बोलना चाहिए जब इसे जारी किया गया था, ठीक वैसे ही जैसे उन्होंने 8 नवंबर 2016 को रात 8 बजे नोटबन्दी की घोषणा की थी लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं है। ऐसे में अगर देश का कोई नागरिक नोटबन्दी के उद्देश्य तथा सरकार के निर्णय पर संदेह करे तो उसे गलत नहीं माना जा सकता है।

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