बड़े ही शातिराना ढंग से जेएनयू चुनाव को भी जातिवादी दिखाने की कोशिश जारी है। जब जयंत जिज्ञासु कन्हैया के साथ थे तो वे प्रोग्रेसिव माइंड के थे और आज जब वे खुद छात्र चुनाव लड़ रहे हैं तो जातिवादी हो गए हैं।
जब भी कोई पिछड़ा नेतृत्व करने आगे आता है तो उसे इसी तरह जातिवाद के मकड़जाल में फंसा दिया जाता है। हर तरफ तुम्हीं हमारी अगुवाई करो ये कहां से सही है। भाजपा को उठाओ तो भी तुम्हीं हो, कॉंग्रेस को उठाओ तो भी तुम्हीं हो, कम्युनिस्ट को उठाओ तो वहां भी तुम्हीं मिले।
हमें सिर्फ वोट बैंक समझते हो। हमसे वोट लेकर सरकार बनाते हो और हमारे ऊपर ही अत्याचार करते हो। एक ग्रुप सहानुभूति दिखता है तो दूसरा धौंस दिखता है। बीच से कोई आता है तो दोनों मिलकर टांग खींचते हैं। तमाम आरोप प्रत्यारोप लगाकर उसके पीछे हाथ धोकर पड़ जाते हो। भूल से कोई छूट गया या फिर तुम्हारी हेकड़ी तोड़ दी तो तुम अपने सबसे बेहतरीन पासे ‘जातिवाद’ फेंककर उसे बदनाम करते हो।
सारे ‘स्तम्भों’ में तुम्हीं पाये जाते हो चाहे वो लोकतंत्र का चौथा स्तंभ ही क्यों ना हो। तुम्हारी ऐसी ताल मेल है कि सारे स्तम्भों को कंट्रोल कर लेते हो। बेहतरीन इस्तेमाल भी उनका तुम जानते हो। किसको ‘कन्हैया’ बनाना है और किसको ‘कंस’ वो तुम चौथे स्तम्भ से कराने का काम करते हो। भूल से कोई निष्पक्ष होकर हमारे लिए भी कुछ कर दिया तो तुम सब उनके नाम को गुमनामी में बदल देते हो।
देश का नेता तुम तय करते हो। तुम्हारे अपने हमेशा देश के नेता कहलाते हैं और हमारे सिर्फ अपनी जाति के। अम्बेडकर को चालाकी से दलित का नेता घोषित करवा दिया, ‘महात्मा’ देश के नेता बने रहे। ‘मिश्रा’ चारचोर नहीं बन सका पर ‘एक पिछड़ा’ चाराचोर से संबोधित होने लगा।
कभी तो जातिवाद से निकलकर लड़ो, वर्षों से खून चूस रहे हो अब तो भारत को आगे बढ़ने दो। पिछड़ों और दलितों में अपार संभावनाएं हैं। कभी तो निष्पक्ष और मर्यादा में रहकर लड़ो। खैर जो भी हो गलती तो हमारे ही समुदाय की है जो हर बार ‘मकड़जाल’ में फंस जाते हैं। देखो ना हम फिर ‘फेकू’ और ‘पप्पू’ में फंस गए जबकि ‘तेजस्वियों’ से भरा पड़ा है समाज।
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