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उग्र होती भीड़ और हिन्दुत्व वाली गुंडागर्दी क्या संविधान की अवहेलना नहीं करती?

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भारत के संविधान की प्रस्तावना कहती है कि- “हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिर्पेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए, दृढ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ई0 (मिति मार्ग शीर्ष शुक्ल सप्तमी, सम्वत् दो हजार छह विक्रमी) को एतद द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।”

प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता ये सिर्फ शब्द ही नहीं हैं बल्कि इन शब्दों के बहुत व्यापक अर्थ हैं। इन शब्दों को संविधान में शामिल करने के लिए बहुत संघर्ष करने पड़े हैं। संघर्ष के दौरान एक ओर जहां मज़दूर, किसान, महिला, अल्पसंख्यक, दलित, आदिवासी, प्रगतिशील बुद्धिजीवी, कलाकार और तमाम लेखक खड़े थे, वही दूसरी तरफ इनके खिलाफ सामन्तवादी, राजशाही के समर्थक, फासीवादी, हिन्दुत्ववादी और जातिवाद किस्म के लोग विरोध के राग भी आलाप रहे थे।

मगर जीत धर्मनिर्पेक्ष मेहनतकश आवाम की हुई, क्योंकि इस आवाम ने ही गुलामी की जंज़ीरें तोड़ने के लिए कुर्बानियां दी थी। देश के इस आवाम की आज़ादी का सपना सिर्फ अंग्रेज़ों से ही मुक्ति पाना नहीं था, बल्कि इन्हें उनसे भी आज़ादी चाहिए थी जिनका आधार ही जातीय और धार्मिक शोषण पर टिका था। उसी सपने और संघर्ष की कुछ झलक संविधान के इन शब्दों में निहित है। लेकिन क्या ज़मीनी स्तर पर भारत का संविधान काम कर रहा है? क्या इतने सालों बाद भी भारत धर्मनिर्पेक्ष राज्य बन पाया?

संविधान के लागू होने से लेकर अब तक जितनी भी सरकारें सत्ता पर काबिज़ रहीं, सभी ने संविधान के खिलाफ गैर जिम्मेदाराना रूख अपनाया। इन सभी सरकारों ने हिन्दुत्व के नाम पर साम्प्रदायिक राजनीति करने वालों और उनके संगठनो के आगे घुटने टेके है। इन सभी ने समय-समय पर अल्पसंख्यकों के खिलाफ साम्प्रदायिक दंगे करवाये।

हिन्दुत्व के नाम पर वोटबैंक बटोरने वाली पार्टी जब साल 2014 में सत्ता पर काबिज़ हुई तब से पूरे देश में मुसलमानों, दलितों, आदिवासियों, बुद्धिजीवियों, कलाकारों और लेखकों पर हमलों की बाढ़ सी आ गई है। गाय के नाम पर मुसलमानों की हत्या के अलावा छात्रों, पत्रकारों और लेखकों की हत्या की घटनाओं ने इस बात को बल दे दिया। लेखिका गौरी लंकेश की हत्या और स्वामी अग्निवेश पर जानलेवा हमला इसके हालिया उदहारण हैं।

हरियाणा के रोहतक ज़िले के टिटौली गांव की ताज़ा घटना को ही ले लीजिए जहां ग्राम पंचायत द्वारा मुस्लिम धर्म को मानने वालों के खिलाफ फरमान जारी कर दिया गया। इसे देखकर तो नहीं लगता कि भारत का संविधान काम कर रहा है।

भारत के कुछ मुख्य समाचार पत्रों ने जहां इस ख़बर को पहले पन्ने पर प्रमुखता से जगह दी, वहीं देश के संविधान के खिलाफ फरमान  सुनाने वाली पंचायत के खिलाफ कार्यपालिया की चुप्पी समझ से परे है। संघी विचारधारा से चलने वाली हरियाणा और केन्द्र की सरकार इससे पहले भी गाय के नाम पर भीड़ द्वारा की गई हत्याओं पर चुप रही हैं।

संघ प्रमुख मोहन भागवत ने अभी हाल ही में हिन्दुत्व की व्याख्या करते हुए कहा कि इस देश में मुसलमान नहीं रहेंगे, तो ये हिंदुत्व नहीं होगा। मतलब साफ है कि इनके हिन्दुत्व में मुसलमान तो होंगे, लेकिन वो मुसलमान नहीं कहलाएंगे।

उनका हिन्दुत्व वाला एजेंडा यहीं है कि मुस्लिम अगर भारत मे रहे तो उनको अपने धर्म की रीति-रिवाज़ और उपासना छोड़ कर हिन्दु रीति-रिवाज और परंपराओं को माननी पड़ेगी।

संघ प्रमुख ने अपने सम्बोधन में डॉ. अंबेडकर और भारत के संविधान की काफी सराहना की है। लेकिन ज़मीनी सच्चाई क्या है, ये टिटौली गांव की घटना से साफ दिख रही है।

हरियाणा के टिटौली गांव में 22 अगस्त को बकरीद के दिन एक गाय ने बच्ची को टक्कर मार दी, बच्ची के चाचा यामीन ने गाय को डंडे से मारा। डंडे लगने से गाय की मौत हो गई। मरी हुई गाय को जब बच्ची के चाचा व परिवार के लोग गांव के बाहर दफनाने जा रहे थे तब गांव के ही कुछ शरारती तत्वों ने मिलकर ये अफवाह फैला दी कि ईद के दिन गांव के मुस्लिम गाय को काटने के लिए ले गए हैं।

पूरे मामले की सच्चाई जाने बिना गांव में भीड़ इकट्ठी हो गयी और इस भीड़ ने मुस्लिम परिवारों के घर मे तोड़फोड़ व मारपीट की। गाय मारने के आरोपित लोगों को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद भी भीड़ का तांडव शांत नहीं हुआ, भीड़ ने गाय को ज़बरन मुसलमानों के कब्रिस्तान में दफनाया।

बहुत से परिवार डर के मारे गांव से पलायन कर गए। उसके बाद से गौरक्षा के नाम पर गांव में उत्पात शुरू हो गया और तांडव मचाने वाले यहीं लोग धीरे-धीरे देश के अलग-अलग इलाकों में सक्रिय हो गए। ये वो लोग हैं जिन्हें संघी सरकारों और विपक्ष का खुले तौर पर समर्थन प्राप्त है और यहीं लोग भीड़ का सहारा लेकर मुसलमानों को मौत के घाट उतार चुके हैं। अब ये सभी टिटौली गांव में भी सक्रिय हो चुके हैं। इन्हीं के प्रयासों से गांव में पंचायत का आयोजन होता है और फिर ये फरमान जारी कर दिया जाता है कि –

  • आरोपित व्यक्ति को गांव से आजीवन बाहर किया जाता है।
  • गांव के मुसलमान नमाज़ नहीं पढ़ेंगे और ना ही बाहर से कोई मुल्ला गांव में इनके धार्मिक रीति-रिवाज़ में नमाज पढ़ने आएगा।
  • गांव के मुस्लिम अरबी या उर्दू भाषा में ही अपने बच्चों के नाम  रखेंगे।
  • मुसलमानों के कब्रिस्तान की जगह को बदल कर गांव से बाहर कोई अन्य जगह दी जाएगी।
  • कोई भी मुसलमान दाढ़ी व टोपी नही रखेगा।

क्या ये फरमान भारत के संविधान की मूल प्रस्तावना के खिलाफ नही है?

देश के संविधान के मुताबिक “हर व्यक्ति को किसी भी धर्म की उपासना, पालन और प्रचार करने का अधिकार है। सभी नागरिकों, चाहे उनकी धार्मिक मान्यता कुछ भी हो कानून की नजर में बराबर होते हैं।” 

लेकिन संविधान की कसम खाने वाले विधायक, सांसद, जज और तमाम कर्मचारी पंचायत की इस फरमान के खिलाफ चुप क्यों हैं?

तब तो यहीं मान कर चला जा सकता है कि कार्यपालिका, न्यायपालिका और देश की सत्ता पर बैठे ये सभी बहुसंख्यक हिन्दू अपनी लूट को जारी रखने के लिए असमानता पर आधारित धर्म के नियम-कायदों से देश को चलाना चाहते है।

इनके हिन्दुत्व वाले एजेंडे में दलित, मुसलमान, आदिवासी, महिला, मज़दूर और किसान दर्जे का नागरिक होगा। इन सबको कोई सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक अधिकार नही होंगे। आज जिस प्रकार से हमें इन धार्मिक आतंकवादियों द्वारा धर्म का नशा करवाकर, धर्म का चश्मा पहनाकर कातिलों की भीड़ में शामिल किया जा रहा है, क्या इसके लिए इन्हें माफी मिलनी चाहिए?

यदि ऐसे ही हम उग्र होती भीड़ पर खामोश रहेंगे तब बड़ी तेज़ी से मानवता के खात्मे की ओर बढ़ते चले जाएंगे। आने वाले वक्त में ऐसी ही भीड़ आपके और आपके बच्चों के खिलाफ सड़कों पर खड़ी मिलेगी। जब आप मज़दूर, किसान, दलित और आदिवासी के तौर पर अपने अधिकारों के लिए खड़े होंगे, तब यहीं भीड़ आपका खून पीने के लिए बेताब नज़र आएगी।

उस समय तक शायद ही संविधान के मानवतावादी शब्द आपके लिए बचे। इसलिए आप सबको फैसला करना होगा कि आपके पूर्वज़ों की लाखों कुर्बानियों के बाद बने धर्मनिर्पेक्ष संविधान को बचाना है या हिन्दुत्व के जाल में फंस कर फिर से गुलामी की बेड़ियों में खुद ही जकड़ जाना है।

Note : यह लेख पहले लेखक द्वारा ‘नेशनल स्पीक’ नामक वेबसाइट पर प्रकाशित हो चुकी है।

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