चेहरे पे सारे शहर के गर्द-ए-मलाल है,
जो दिल का हाल है वही दिल्ली का हाल है।
वैसे तो गालिब ने अपने शब्दों से दिल्ली की खूबसूरती अलग-अलग अंदाज़ में बयां करने की कोशिश की है। दिल्ली को दिलवालों का शहर बताया है लेकिन आज के वक्त को देखते हुए मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद के शब्द जैसे हकीकत बयां करते नज़र आ रहे हैं। सर्द मौसम और हल्का-हल्का कोहरा जैसे मानो किसी शायर के ख्याल का खूबसूरत नगमा सा लगता है। मौसम की यह खूबसूरती पिछले कुछ सालों से शायर के ख्वाबों से दूर ज़हर उगलने का काम करता दिखाई पड़ रहा है। अब तो खूबसूरत दिल्ली में सांस लेने से भी डर लगने लगा है।
जिसने ज़िन्दगी में कभी धूम्रपान ना किया हो उसको भी अस्पताल जाकर पता चले कि आप जिस हवा में सांस ले रहे हैं वो रोज़ाना लगभग 44 सिगरेट्स पीने के बराबर है। फिर तो सांस लेने से डर लगना जाएज़ है।
एक बार फिर सर्द मौसम आने को बेकरार है और गर्मी से राहत मिलने की खुशी सबके ज़हन में है। मगर सर्द मौसम का स्वागत करना कोई नहीं चाहता, क्योंकि दिल्ली के आसपास के राज्यों में पराली जलाना आरम्भ कर दिया गया है। अब दिल्ली की हवाओं में बहने वाली सांसे इतनी घातक हो जाएंगी जो आपको बीमार बहुत बीमार करने के लिए काफी है।
हवाओं को प्रदूषण से बचाने के लिए जो रास्ते अपनाए जाने चाहिए उसका ख्याल किसी को तब तक नहीं आता जब तक उसका असर सामने नज़र ना आए। शायद इसलिए पूरे साल सरकारें सोती रहती हैं और जब वो जागती हैं तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।
कुछ महीनो की ये खतरनाक हवाएं हमारे जीवन के कुछ साल कम करने लिए काफी हैं लेकिन दुर्भाग्य से इसे कोई राजनैतिक मुद्दा बनाना नहीं चाहता। यह भी कहा जा सकता है कि इन मुद्दों को केंद्र में रखकर हम सरकारें बनाना और बदलना नहीं चाहते जिसका असर यही होता है कि सरकारें आती और जाती हैं लेकिन ज़हरीली हवाओं की फ़िक्र किसी को नहीं होती।
पराली जलाने की परंपरा काफी पुरानी है और इसे रोका भी नहीं जा सकता, क्योंकि उनके पास विकल्प के तौर पर कोई रास्ता नहीं है। हां, एक बात ज़रूर है कि ऐसे वक्त पर बड़ी बहस के ज़रिए ये बात उठनी चाहिए कि दिल्ली में चैन की सांस लेने के लिए कैसी पहल की जानी चाहिए।
मुझे अंदाज़ा है कि बहस की नौबत आते-आते बहुत देर हो जाएगी और तब तक खूबसूरत दिल्ली की हालत कोहरे से ढककर अंधेरी हो जाएगी। कुछ वैसा ही दिल्ली के दिलवालों की भी हो जाएगी जहां ये ज़हरीली हवा उन्हें कैद कर लेगी। फिर सांस लेना मजबूरी बन जाएगी। ऐसे में यह कहते हुए जाना चाहता हूं कि वाकई गालिब के शहर में अब सांस लेने से भी डर लगता है।
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