दिल्ली देश की राजधानी है और यहां से जो बात निकलकर आती है वह सच मानी जाती है। नीति से लेकर रीति तक हर बात इसी लुटियंस दिल्ली से होकर गुज़रती है। इस लुटियंस की रीत को पूरा देश सच मानता है। छत्तीसगढ़ के बस्तर के बारे में भी दिल्ली से अफवाह फैलाई जाती रही है। मीडिया ने इस हवा को सबसे ज़्यादा फैलाने का काम किया है। इस मीडिया ने कभी वो चीजे़ें बताने की ज़हमत नहीं उठाई जो इस समय बस्तर में घटित हो रही है।
हम लुटियंस दिल्ली वालों को लगता है कि रायपुर से अगर हमने बाहर कदम रखा तो कुछ बंदूकधारी निशाना बनाकर बैठे हैं। हमनें एक खास किस्म का डर अपने अंदर बैठा लिया है। हमें लगता है कि रायपुर से बाहर तो बस जंगल है। यहां ना सड़कें हैं और ना ही मकान, यहां हैं तो बस आदिवासी जो हिन्दी भी नहीं जानते। आज भी वे पेड़-पत्ते खाते हैं।
यही कारण है जब मैंने अपने दोस्तों और परिवार वालों को बस्तर जाने के बारे में बताया तो वे जाने के लिये मना करने लगे। कहने लगे कि वहां छोड़कर कहीं और चले जाओ। मेरे दोस्त कह रहे थे कि जंगल में क्या करोगे जाकर? वहां से जान बचाकर वापस आना। ऐसी बातें सुनने के बाद भी मैं छत्तीसगढ़ के उस इलाके में गया जो आए दिन सुर्खियों में रहता है।
मैं बस्तर में 14 दिन रहा और लगभग हर ज़िले में गया। बस्तर में अब अच्छी सड़कें और लोगों के पक्के मकान भी हैं। जो लोग अच्छे कपड़े पहनकर घरों में रह रहे हैं, वे वनवासी ही हैं जो अब अपना विकास चाहते हैं लेकिन हम दिल्ली वालों को बस नक्सल के अलावा कुछ नहीं दिखता।

मुझे खुशी तब हुई जब नारायणपुर का एक दसवीं का छात्र मेरे पास आता है और कहता है ‘सर मुझे कलेक्टर बनना है और अपने गांव के लिये काम करना है।’ उस लड़के के सवाल में अपने लिये सपना था जिसे पूरा करने के लिए एक रास्ता तलाश रहा था। ऐसे सपने पाले हुए कई बच्चे पूरे बस्तर में हैं जिन्हें अच्छी शिक्षा देने की ज़रूरत है।
सुकमा, बीजापुर और दंतेवाड़ा जैसे क्षेत्रों को सबसे संवेदनशील इलाका कहा जाता है लेकिन मैं सच कह रहा हूं जितना विकास इन तीनों इलाकों में मुझे दिखा, विकास की ऐसी झलक मेरे इलाकों में भी नहीं है। हालांकि वो विकास सिर्फ शहर तक ही सीमित है। जैसे ही मैं गांव की ओर बढ़ा, तब विकास के नाम पर संसाधन तो दिखे लेकिन तरक्की नहीं। बच्चे किताबें नहीं पढ़ पा रहे हैं, शिक्षक स्कूल में सिर्फ पैसे लेने के लिए और बच्चे भोजन करने के लिए आते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में शहरों में एजुकेशन हब बनाए जा रहे हैं लेकिन इन हबों में बच्चे जाएं इसकी जागरूकता लाने के लिए काम नहीं हो रहा है। यहां की शिक्षा व्यवस्था टेढ़ी खीर की तरह है जिसको जानना बेहद ज़रूरी है। सरकार को इन इलाकों के लिए रोज़गार अलग से पैदा करने की ज़रूरत है। यहां शिक्षा की पूरी ज़िम्मेदारी ‘पोटा केबिन’ और ‘आश्रम’ संभाले हुए हैं।
बस्तर के बारे में हम बस सुर्खियों से भरी खबरें पढ़ते हैं और इसलिये दिल्ली या अन्य जगहों से कोई वहां जाना नहीं चाहता लेकिन जब मैंने सच की पड़ताल की तब मालूम हुआ कि डर नाम की कोई चीज़ ही नहीं है। अब बस्तर अपनी उस छवि से निकलने की कोशिश कर रहा है जो हम दिल्ली वालों ने बना रखी है।
बस्तर में विकास हुआ है ऐसा मैं क्यों कह पा रहा हू? और दूसरी बात कि मैं अगर कहूं कि नक्सलवाद खत्म हो गया है तब पक्की बात है कि मैं झूठ बोल रहा हूं लेकिन इतना तो तय है कि अब बस्तर में वो डर नहीं है। हमारे यहां भी गुंडों की गुंडागर्दी चलती-रहती है, वैसा ही प्रभाव नक्सल का रह गया है जो छिटपुट घटनाओं से पूरे देश का ध्यान केन्द्रित कर देते हैं।
विकास और शिक्षा इस नक्सल को खत्म कर रहा है। शिक्षा पर काम हो रहा है लेकिन गुणवत्ता की कमी साफ-साफ दिख रही है। बाहर से टीचर भेजेंगे तो भाषा की समस्या आएगी, ऐसे में साफ है कि वहीं के नौजवानों को शिक्षक बनाया जाए। नारायणपुर के ओरछा गांव में मुझे एक नौजवान मिला जिसने बताया कि उसने बी.ए. किया हुआ है। वो उस क्षेत्र का सबसे शिक्षित व्यक्ति है। वो शिक्षित व्यक्ति गांव में दुकान चला रहा है, क्योंकि प्रतियोगी परीक्षाएं इतनी मुश्किल हैं कि वो उस स्तर तक नहीं पहुंच सकता। सरकार को ऐसे नौजवानों को उस क्षेत्र के विकास के लिए आगे लाना चाहिए।
शिक्षा से बस्तर आगे बढ़ रहा है। वैसे बच्चे बंदूक पकड़ने को मजबूर हैं जिन्हें कलम नहीं दी जाती। अगर बच्चे कलम पकड़ लें, तब वहां माओवाद वाली विचारधारा खत्म हो जाएगी। हम दिल्ली वालों को ऐसी बातें सरकार को बतानी चाहिए जिससे बस्तर के बारे में अच्छी छवि बने।
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