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देश की शीर्ष संस्था सीबीआई में सबकुछ ठीक क्यों नहीं हो पाता

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सीबीआई चीफ आलोक वर्मा और संस्था के दूसरे शीर्षस्थ पदाधिकारी राकेश अस्थाना के बीच मचे घमासान के बाद सरकार ने दोनों को अवकाश पर भेज दिया है। इन दोनों के एजेंसी में कार्य करते हुए कभी मधुर संबंध नहीं रहे हैं। दोनों के मध्य आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला पहले से चला आ रहा था।

दोनों एक दूसरे को कठघरे में खड़े करने और शह-मात का खेल खेलने में लगे हुए थे। यह सब देखते हुए इन दोनों को छुट्टी पर भेजने का फैसला बिलकुल सही है अपितु आवश्यक भी हो गया था क्योंकि सीबीआई की बची-खुची साख मिट्टी में मिल रही थी और सरकार भी सवालों के घेरे में आ गई थी। चूंकि सीबीआई चीफ आलोक वर्मा और डिप्टी राकेश अस्थाना एक-दूसरे पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगा रहे थे, इससे दोनों की पारदर्शिता के साथ जांच की ज़रूरत है ताकि सीबीआई की साख बचाई जा सके।

कुछ लोग सीबीआई चीफ को छुट्टी पर भेजे जाने वाले कदम पर सवाल उठा रहे हैं कि ऐसा नहीं किया जा सकता क्योंकि सीबीआई चीफ का कार्यकाल दो वर्षों के लिए तय होता है। सीबीआई चीफ के पद दो वर्ष के लिए तय तो होते हैं किंतु इसका यह अर्थ नहीं कि उनपर आरोप लगने के बाद भी वह पद पर बने रहें।

कुछ लोग विशेष चीफ पर लगे आरोप पर अपना फैसला सुनाते हुए उन्हें दोषी मान चुके हैं जबकि चीफ को क्लीन चिट भी दे दी गई है। क्या देश में अब कौन गलत कौन सही है यह न्यायालय की जगह आम लोग तय करेंगे?

प्रशांत भूषण जिन्होंने आलोक वर्मा की नियुक्ति के समय सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी जिसमें उन्होंने कहा था कि मोदी सरकार ने भ्रष्टाचारियों को बचाने के लिए आलोक वर्मा की नियुक्ति की है इसलिए इस नियुक्ति पर रोक लगाई जाए। आज उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में यह कहते हुए दोबारा से याचिका दायर की है कि सरकार ने भ्रष्टाचारियों को बचाने के लिए उनकी छुट्टी कर दी है।

अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए लोग समय और परिस्थिति के हिसाब से अपना स्टैंड बदल रहे हैं जो काफी दुखद है। ऐसे गलत प्रचार से देश का ही नुकसान होगा एवं संवैधानिक संस्थानों पर लोगों का विश्वास भी कम होगा।

वैसे सीबीआई में खेमेबाज़ी का इतिहास कोई नया नहीं है, इससे पहले भी इसके अंदरूनी कलह कई बार सामने आये हैं, चाहे वो जैन हवाला केस हो या लाखुभाई पाठक केस। चारा घोटाले केस में तो संयुक्त निर्देशक यूएन विश्वास की रिपोर्ट को सीबीआई चीफ ने बदलवा दी थी। उसमें लालू प्रसाद का नाम हटा दिया गया था। जब पटना हाइकोर्ट में यूएन विश्वास ने कहा कि यह उनकी रिपोर्ट नहीं है तो कोर्ट ने उनसे कहा कि वह अपनी रिपोर्ट कोर्ट को ही पेश करें। यानि कि कोर्ट ने सीबीआई चीफ को विश्वास लायक नहीं समझा।

एक तरफ सीबीआई के डिप्टी राकेश अस्थाना अपने खिलाफ कार्यवाही के विरुद्ध उच्च न्यायालय की शरण में हैं, तो दूसरी ओर सीबीआई चीफ छुट्टी पर भेजे जाने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट की शरण में हैं। सुप्रीम कोर्ट ने आज आलोक वर्मा के केस की जांच सीवीसी को सौंपी दी है और दो हफ्ते के अंदर रिपोर्ट मांगी है। अब अगली सुनवाई दीवाली के बाद 12 नवंबर को होगी।

अब सबकी निगाहें न्यायालयों के फैसलों पर है, अगर न्यायालय के फैसले से भी कलह समाप्त नहीं होती तो सीबीआई की साख को बड़ा धक्का लगने वाला है। लोगों के मन में सीबीआई को लेकर जो विश्वास है देश में वो भी कम होगा। अगर न्यायालय के फैसले से वैसी परिस्थितियां पैदा नहीं होती जैसी सरकार चाहती है तो भी मुश्किलें पैदा होंगी और आगे की कार्यवाही करने या फैसले लेने में दिक्कतें आएंगी।

इन सबके अलावा केंद्रीय सतर्कता आयोग भी कम ज़िम्मेदार नहीं है। जब सीबीआई के अफसरों के मध्य चल रही इस उठापटक से वो अवगत था तो फिर कोई कदम क्यों नहीं उठाया गया? मामले को सुलझाने के लिए हस्तक्षेप क्यों नहीं किया गया? क्या कैग इसमें समर्थ नहीं है?

ये सब ऐसे सवाल हैं जिनपर सरकार को गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है। सरकार को सीबीआई की कार्यप्रणाली में आमूल चूल परिवर्तन करने की ज़रूरत है, जिससे भविष्य में पुनः कोई तकरार ना हो। एक ऐसी स्थिति बनाने की ज़रूरत है जिससे आम लोगों तक यह सन्देश पहुंचे कि देश की इस शीर्ष संस्था में सब कुछ ठीक-ठाक है।

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