एक वक्त था जब लगता था कि इस देश में “लोकपाल” का ना होना तमाम समस्याओं की जड़ है। वैसे तो ‘द लोकपाल एण्ड लोकायुक्त एक्ट‘ 2013 में ही पास हो गया था और हमें उम्मीद थी कि जब कोई सरकार सत्ता में आएगी तब भ्रष्टाचार का विरोध करते हुए तत्परता से लोकपाल की नियुक्ति करेगी। साल 2014 की लोकसभा चुनाव के अब चार साल हो गए और लोकपाल को देखने के लिए हमारी आंखे तरस गई। अब तो सीबीआई की हश्र भी हमारे सामने है।
क्या ऐसी वजह रही कि अब तक लोकपाल की नियुक्ति नहीं हो पाई? क्या अड़चनें हैं? जब आप इन प्रश्नों का उत्तर तलाशने की कोशिश करेंगे तब आपको नेताओं पर क्रोध और खुद पर तरस आएगा।
मोटे तौर पर बात यह है कि 2013 के एक्ट के अनुसार लोकपाल की नियुक्ति वाली कमेटी में एक सदस्य नेता प्रतिपक्ष से भी होता है, चूंकि तकनीकी तौर पर वर्तमान में नेता प्रतिपक्ष का दर्जा किसी को भी नहीं दिया गया है, इसलिए नियुक्ति प्रक्रिया शुरू नहीं हो पाई। इसके लिए कांग्रेस की मांग यह है कि 2013 के लोकपाल एक्ट में संशोधन करते हुए नेता प्रतिपक्ष के स्थान पर मुख्य विपक्षी दल के नेता को सदस्य बनाने की इजाज़त दी जाए।
इस संबंध में एनजीओ “कॉमन कॉज” के द्वारा दाखिल अर्ज़ी पर 24 जुलाई को सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के रवैये को ‘पूरी तरह से असंतोषजनक’ बताया और लोकपाल की नियुक्ति प्रक्रिया शीघ्र शुरू करने को कहा।
लोकपाल सर्च कमेटी की गठन के लिए लोकपाल नियुक्ति समिति की साल 2018 में कुल छः बैठकें क्रमशः (1 मार्च, 10 अप्रैल, 19 जुलाई, 21 अगस्त, 4 एवं 19 सितंबर) को बुलाई जा चुकी हैं। हर बार की कहानी यही है कि मल्लिकार्जुन खड़गे को ‘Special invitee’ के तौर पर बुलाया गया है जिसे वोट देने एवं अपना मत दर्ज कराने का अधिकार नहीं होगा और कांग्रेस ने इसे अपना अपमान समझते हुए हर बार बैठक का बहिष्कार किया है।
यह प्रक्रिया कितने समय में पूरी हो पाएगी, इसके लिए ‘मंदिर वहीं बनाएंगे पर तारीख नहीं बताएंगे’ के तर्ज पर कोई समय सीमा नहीं बताई गई है। जब तक लोकपाल नहीं नियुक्त हो जाता तब तक आप हर कुछ दिनों में ‘अन्ना हज़ारे फिर से शुरू करेंगे अनशन’ शीर्षक के साथ हिन्दी अखबारों में छपी खबर पढ़कर सुख का अनुभव कर सकते हैं।
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