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“हमें कब समझ आएगा कि गंगाजल के नाम पर हम मूत्र और गंदगी ग्रहण कर रहे हैं?”

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पापों को धोने वाली गंगा अविरल और जीवनदायिनी है। धर्म विशेष के कर्मकांडों से परे हर भारतवासी की आस्था है गंगा। गंगा का सिर्फ ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व ही नहीं है बल्कि राजनीतिक व आर्थिक महत्व के लिए भी इसे जाना जाता है। गंगा बहुत पवित्र है यह बात पुरानी हो चुकी है। पिछले कई दशकों से गंगा काफी बीमार हो गई है। मानवीय अपेक्षाओं को पूरा करते-करते गंगा ने स्वयं को ही असाध्य रोगी बना लिया है।

जब पीड़ा बढ़ जाती है और जलन बर्दाश्त नहीं होती, तब गंगा उग्र हो जाती है। भयानक विनाश और तबाही देखने को मिलते हैं। परंतु हमें गंगा के दुखों की परवाह कहां है? पूजा-पाठ का दौर जब शुरू होता है तब लोग और तेज़ी से गंगा को दूषित करने लग जाते हैं। उस समय लोगों को गंगा की वेदना नज़र नहीं आती।

भारतीय जनमानस की एक बहुत बड़ी विशेषता है कि हम अपनी ज़िम्मेदारियां स्वयं नहीं लेते, बल्कि किसी और के कंधे पर डाल देते हैं। यही मानसिक विकृति भारतवर्ष की दुर्दशा के लिए ज़िम्मेदार है। गंगा की विशिष्टता की बात करने में हम कभी पीछे नहीं हटते, परन्तु जब उसके दर्द को महसूस करने की बात आती है तब हम समझने की कोशिश करने लग जाते हैं कि कौन ज़िम्मेदार है। अंत में गंगा की सफाई और संरक्षण के लिए हम पूरी तरह से सरकार को ही ज़िम्मेदार ठहरा देते हैं।

लोग गंगा में सिर्फ गंदगी ही नहीं फैलाते बल्कि मूत्र विसर्जन का सिलसिला भी धड़ल्ले से जारी है, जो गंगा को बहुत बीमार बना रहा है। लोग गंगाजल के नाम पर मूत्र और गंदगी ग्रहण कर रहे हैं और यह बहुत घातक सिद्ध हो रहा है।

ऐसा नहीं है कि गंगा की वेदना को सरकारी मरहम नहीं मिला है। गंगा नदी में प्रदूषण भार को कम करने के लिए 1985 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने  गंगा कार्य योजना की शुरुआत की थी। सन 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने नमामि गंगे परियोजना शुरू की, जिसके लिए 6300  करोड़ रुपए खर्च करने का प्रावधान किया गया। इस परियोजना के तहत करोड़ों की धनराशि खर्च हो चुकी है लेकिन ज़मीनी हकीकत का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि सफाई अभियान से असंतुष्ट स्वामी सानंद ने इस साल जून में अनशन शुरू किया और हाल ही में उनकी मौत हो गई।

अब सवाल आता है कि गंगा की सफाई पर इतने पैसे खर्च किए जाने के बाद भी कोई परिणाम क्यों नहीं दिखाई पड़ रहे हैं? अकेले बनारस की बात की जाए तो परियोजना शुरू होते ही अखबारों और टीवी चैनलों पर धड़ल्ले से विज्ञापन देने के बाद हमने घाटों की सुंदरता पर ध्यान देना शुरू कर दिया। घाटों का विस्तार करने के आलावा दीवारों पर चित्र-भित्तियां बनाई गईं, बड़े-बड़े स्लोगन लिखे गए, जगह-जगह कूड़ेदान लगाए गए, गंगा के किनारे सफाई व संरक्षण के संबंध में विभिन्न तरह के कार्यक्रम आयोजित किए गए। घाट और दीवारों की सफाई तो हो गई लेकिन गंगा नदी गंदी ही रह गई।

इस वक्त बिलखते हुए गंगा को सरकारी मरहम की आवश्यकता नहीं है, बल्कि गंगा को तलाश है ऐसे प्रेमी की जो उसके अंतर्मन को महसूस कर सके। निश्चित रूप से गंगा से रूहानी इश्क वर्तमान की ज्वलंत आवश्यकता है। कभी अपने दिमाग को छोड़ दिल की गहराइयों से पूछिए, क्या आपकी रूह गंगा के लिए मचलती है? जवाब की तलाश कीजिए, क्योंकि गंगा की इन असाध्य बीमारियों का इलाज़ आपके इन जवाबों में ही छिपा हुआ है।

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