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“बस्तर के नुलकातोंग जनसंहार का वो सच जो आपको मीडिया कभी नहीं बताएगा”

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भारत के प्रधान सेवक जब 72वें स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से देश को संबोधित कर रहे थे तब उन्होंने आदिवासियों और नौजवानों को याद करते हुए कहा था, “दूर-सुदूर जंगल में जीने वाले नन्हें-मुन्हें बच्चों ने एवरेस्ट पर झंडा फहरा कर तिरंगे की शान बढ़ा दी है।” मैं प्रधान सेवक से जानना चाहता हूं कि सुकमा ज़िले के ग्राम पंचायत मेहता के गोमपाड़ गांव के सोयम सीता, सोयम चन्द्रा (गोमपाड़ का वार्ड पंच), कड़ती आड़मा, माड़वी नन्दा, कड़ती आयता (एक साल पहले तीसरी कक्षा का विद्यार्थी), माड़वी देवाल, नुलकातोंग गांव के सोड़ी प्रभु, मड़काम टिकू, ताती हुंगा, मुचाकी हिड़मा, मुचाकी देवाल, मुचाकी के मुक्का, वेलपोस्सा गांव के वंजाम हुंगा, किल्द्रेम गांव के मडावी हुंगा और एटेगट्टा गांव के माड़वी बामून की गिनती भी इन आदिवासी नौजवानों में करते हैं या नहीं?

6 अगस्त, 2018 के उगते हुए सूरज को देखने से पहले ही भारत सरकार के ‘बहादुर सिपाहियों’ ने इन नौजवानों को मार दिया। इनमें से कम से कम पांच-छ: को गांव वाले नाबालिग बता रहे हैं।

प्रधान सेवक जी तिरंगे की शान की बात कर रहे थे। उनको गोमपाड़ की लक्ष्मी से पूछना चाहिए कि उनकी बेटी मड़कम हिड़मे को कब न्याय मिलेगी। मड़कम हिड़मे को 14 जून 2016 को पुलिस वालों ने सामूहिक बलात्कार करने के बाद फर्जी मुठभेड़ में मार दिया था। हाईकोर्ट के आदेश पर हिड़मे का दोबारा पोस्टमॉर्टम जगदलपुर में कराया गया लेकिन आज तक दोषियों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई।

आदिवासियों को न्याय और उनके अधिकार दिलाने के लिए सोनी सोरी ने 8 अगस्त 2016 को दंतेवाड़ा से तिरंगा पदयात्रा शुरू कर 180 किलोमीटर दूर गोमपाड़ गांव में 15 अगस्त 2016 को झंडा फहराया था। सोनी सोरी के तिरंगा यात्रा का 24 संगठनों ने समर्थन किया था, जबकि सरकार द्वारा पोषित अग्नि संगठन ने विरोध किया था।

न्याय की आशा

मड़कम हिड़मे की मॉं लक्ष्मी ने कहा कि उनकी बेटी को अभी तक इंसाफ नहीं मिली है, बल्कि उन्हीं के गांव के 6 लोगों की पुलिस ने हत्या कर दी। लक्ष्मी का कहना है कि जिस दिन उन्हें इंसाफ मिलेगा उस दिन वह अपने हाथों से तिरंगा फहराएंगी।

गोमपाड़ा गांव के नौजवानों का कहना है, “इंसाफ के नाम पर गांव वालों को ही परेशानी उठानी पड़ती है। हिड़में के मारे जाने के बाद पोस्टमॉर्टम के लिए उन्हें कब्र से दोबारा निकालने से हमें न्याय तो मिली नहीं, बल्कि परेशानी और बढ़ गई। हम खेत में जाते हैं तो पुलिस आकर हमारे साथ मार-पीट करती है। पुलिस वाले हमें पढ़ने नहीं देते। बाज़ार जाने पर पकड़ लेते हैं और गांव में आकर हमारे अनाज़, मुर्गा-मुर्गी खा जाते हैं। पुलिस वालों की माओवादियों से दुश्मनी है तो उनसे जाकर लड़े, हम गांव वालों को क्यों मारते हैं? पुलिस जिन हथियारों को दिखाती है, वे हमारे पास कहां से आएंगे? नुलकातोंग में हमारे गांव के छ: लोगों को मार दिया गया।”

गोमपाड़ गांव में यह कोई पहली घटना नहीं है, इससे पहले भी यह गांव सुर्खियों में रह चुका है। यह गांव सलवा जुडूम के समय भी जलाया जा चुका है। उस समय करीब पांच साल के लड़के के हाथों की उंगली काट दी गई थी और उसकी मॉं की बलात्कार कर हत्या की गई थी। इसी गांव की सोदी सोढ़ी के पैर में गोली मारी गई थी, जिसका मामला सुप्रीम कोर्ट तक चला। उसे भी न्याय नहीं मिल सका और वह गांव छोड़कर चली गई।

हिड़मे का मामला अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक उठा लेकिन उस मामले का भी अंजाम कुछ नहीं हुआ। इसी गांव का रामे मछली पकड़ने गया था, उसे गोली मार दी गई और घायल अवस्था में पकड़कर जेल में डाल दिया गया।

इस गांव की मरू लुकमा (20) की मां ने बताया कि मई 2018 में मरू लुकमा आंध्र प्रदेश के एरगमपेट्ट बाज़ार जा रहे थे तब पुलिस ने उन्हें पकड़ लिया और वह दंतेवाड़ा जेल में बंद हैं। मई से अभी तक वह अपने बेटे से मिलने और काग़जी कार्रवाई में 6,000 रुपये खर्च कर चुकी है। मरू लुकमा के पिता की मृत्यु 2007 में डायरिया के कारण हो गई थी। लुकमा ही अपनी बुर्जुग मॉं का सहारा था, जो कि जेल में बंद है।

मरकान योगी बताती हैं कि उनके पति मरकम कोसा (40) को दिसम्बर 2017 में पुलिस उनके घर से पकड़ कर ले गई, उस समय से वह दंतेवाड़ा जेल में बंद हैं। वह तीन बार पति से मिलने दंतेवाड़ा जेल जा चुकी हैं और अभी तक अपने पति से मिलने और कानूनी मद्द में  10,000 रुपये खर्च कर चुकी हैं। इन लोगों को दंतेवाड़ा जाने के लिए काफी मेहनत करनी पड़ती है। पहले उन्हें 20 किलोमीटर पैदल चलकर कोंटा जाना पड़ता है और उसके बाद सुकमा और दंतेवाड़ा बस से जाते हैं। वहां तक पहुंचने में उन्हें कम-से-कम दो दिन का समय लगता है।

6 अगस्त की सुबह मारे जाने वालों में कड़ती आयता भी है, जो एक साल पहले ‘पोटा केबिन’ में तीसरी कक्षा का विद्यार्थी था। जब गांव में पुलिस आई तब वह भी डरकर नुलकातोंग भाग गया। कड़ती आयता की एक कॉपी उसके घर में है। पैसों की तंगी की वजह से शहरी बच्चों की तरह वह अलग-अलग कॉपियां नहीं रख पाता, एक ही कॉपी पर घड़ी की चित्र, कुछ सवाल और कुछ कविताएं लिखी हुई हैं।

खट्टी इमली माटी ईख
चरती बकरी वन के बीच।
चलो पपीता खाएं हम,
तबला खूब बजाएं हम।

सूरज उगा हुई अब भोर,
हुआ उजला चारों ओर।
चिड़ियां लगीं चहकने खूब,
बच्चे भी करते हैं शोर।

रंग-बिरंगी प्यारी तितली,
सबके मन को भाती हैं।
बैठ फूल पर जब रस लेती,
सबका मन-ललचाती है।

कड़ती आयता की कविताओं से लगता है कि उसको प्रकृति से बहुत प्यार था। उसे लाल रंग से भी बहुत प्यार रहा होगा, क्योंकि उसकी कविताएं और सवाल लाल कलम से लिखे हुए हैं। कड़ती आयता इस दमनकारी व्यवस्था के दमन का शिकार हो गया और सूरज देखने से पहले चिड़ियों की चहचहाहट में आयाता की आवाज़ को पुलिस ने शांत कर दिया।

माड़वी नन्दा के घर में उनकी पत्नी माड़वी हुंगी (24) और दो बच्चे नन्दा (5) और मसे (8) हैं। नन्दा के घर पर उसकी मॉं और पिता आए हुए हैं। नन्दा की मां और पत्नी तेज़ आवाज़ में रो रही हैं। नन्दा के एक रूम में तेन्दुपत्ता के सिवाय और कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। नन्दा की पत्नी हुंगी ने बताया कि उनके पास तीन एकड़ खेत है। सुबह वह खेत गया था और वापसी में नन्दा का मृत शरीर घर में आया। हुंगी ने कहा कि पुलिस वाले उनके घर में रखी महुये की शराब भी पी गए। नन्दा की पत्नी को चिंता सता रही है कि अब घर की खेती कौन करेगा? क्योंकि बच्चे भी छोटे हैं। नन्दा का राशन कार्ड दुकानदार ही अपने पास रखता है, जिस पर नन्दा का भी नाम है।

सोयम चन्द्रा, जिनके आधार कार्ड पर 13 मई 1997 का डेट ऑफ बर्थ दर्ज है, उनकी एक साल की बेटी भी है। सोयम अपने गांव के वार्ड पंच थे। पुलिस ने जब फायरिंग करना शुरू किया तब सोयम ने हाथ खड़ा करके बताने की कोशिश की कि वह गांव के वार्ड पंच हैं, ताकि ‘लोकतंत्र’ में आस्था रखने और संविधान की शपथ लेने वाले पुलिस उनपर गोली नहीं चलाएं, लेकिन हत्यारी पुलिस ने सोयम को गोली मारने के बाद कुल्हाड़ी से भी काट डाला। गांव वालों ने बताया कि मारे गए लोगों के कपड़े उतार कर फोर्स द्वारा अपनी फौजी टी-शर्ट लोगों को पहना दिया गया।

नुलकातोंग गांव वालों का कहना है कि अलग-अलग गांवों में फोर्स आने के कारण लोग डर से नुलकातोंग गांव (जो आंध्र प्रदेश की सीमा से 9 कि.मी. दूर है) की तरफ आ गए थे। 6 अगस्त की सुबह पुलिस ने आकर इन लोगों पर गोली चलाई, जिसमें नुलकातोंग गांव के छ: लोग भी मारे गए, जिनमें से चार 13-17 साल के थे। हमलोगों से बात करने के लिए एक 8-9 साल का लड़का एक नेत्रहीन व्यक्ति को डंडा पकड़ा कर ला रहा था, जो आते ही मेरे कंधे पर सिर रखकर ज़ोर-ज़ोर से रोने लगे। रोते-रोते उन्होंने बताया कि उनके बेटे मुच्चा के हिड़मे (14-15 साल) को पुलिस ने 6 अगस्त 2018 को मार दिया। उन्होंने बताया कि उनका बेटा घर-परिवार को देखने वाला अकेला था।

2008-09 में सलवा जुडूम के समय मुचाकी बिमला को मार दिया गया था। अब उनके नाबालिग पुत्र मुचाकी मुक्का को मार दिया गया। मुचाकी मुक्का की मॉं का कहना है कि वह अपने पति के कातिलों को सज़ा दिलाने के लिए देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट तक गईं लेकिन न्याय नहीं मिला। वह एक बार फिर अपने बेटे को न्याय दिलाने के लिए लड़ने के लिए तैयार हैं।

गांव वालों का कहना है कि पुलिस दो-तीन दिन से अलग-अलग गांव में मौजूद थी, जिसके डर से पांच-छ: गांव के पुरुष 40-50 की संख्या में नुलकातोंग में आये थे। ये लोग डर से गांव में नहीं ठहरकर गांव से बाहर सोरी अंदा के खेत की झोपड़ी में रूके हुए थे। पुलिस को नुलकातोंग में रूकने का पता चला गया और उसने सुबह-सुबह वहां पहुंच कर बिना चेतावनी के लोगों पर गोली चलानी शुरू कर दी, जिसमें 15 लोगों की जान चली गई और कुछ लोग घायल हो गए।

पुलिस ने चार लोगों को पकड़ कर मुठभेड़ को असली दिखाने का प्रयास किया। पकड़े गए चार लोगों में से पुलिस ने अंदा और लकमा को छोड़ दिया, जो कि डर से अब अपना गांव छोड़कर चले गए हैं। घायल दूधी और बुधरी को जेल में डाल दिया गया है। इसी गांव के लकमा को तीन-चार माह पहले डरमपली (आंध्रा) बाज़ार से पकड़कर जेल में डाल दिया गया है।

गांव वालों ने बताया कि मृतक के शरीर को पोस्टमॉर्टम के बाद कोंटा से ट्रेक्टर में लाकर बोंडा में छोड़ दिया गया और गांव वालों से कहा गया कि इससे आगे तुम लोग लेकर जाओ। गांव वाले 15 शवों को चरपाई से 9-10 किलोमीटर पैदल चलकर अपने-अपने गांव ले गये। इससे दुनिया के सबसे बड़े ‘लोकतांत्रिक देश’ की सरकार की संवेदनहीनता का पता चलता है।

मोदी जी, आपने स्वतंत्रता दिवस के संबोधन में कहा कि “हमारा संविधान कहता है गरीबों को न्याय मिले, जन-जन को आगे बढ़ने का अवसर मिले”। क्या आप इन आदिवासियों/मूलवासियों को न्याय दिला पाएंगे?

सामाजिक स्थिति

गोमपाड़ा गांव तहसील कोंटा से 20 किलोमीटर दूर है, जहां पहुंचने के लिए जंगल, नदी, नाले को पार कर पैदल ही जाना पड़ता है। गोमपाड़ा में 35 गोंड आदिवासी के घर हैं, जिसकी जनसंख्या 220-230 के करीब है। गांव के लोग और जंगल उत्पाद से कुछ पैसे इकट्ठे करते हैं। इसके अलावा कोंटा या आंध्र जाकर मज़दूरी करते हैं, जहां पर उन्हें 100 से 300 मिलते हैं। गांव के लोग बताते हैं कि वे कोंटा मज़दूरी करने नहीं जाते क्योंकि वहां पर मज़दूरी कम है। बाज़ार और सरकारी राशन की दुकान कोंटा में है, जिसके लिए उन्हें वहां जाना पड़ता है। वहां पर उनके गिरफ्तार होने की संभावना रहती हैं जिसके कारण अक्सर महिलाएं ही 20 किलोमीटर दूर चलकर राशन के लिए जाती हैं।

पुरुष आंध्र में जाकर बाज़ार करना कोंटा से ज्यादा सुरक्षित मानते हैं। गांव में विकास के नाम पर तीन सरकारी हेंडपंप हैं जो कि करीब 10 साल पहले गांव में लगाये गए थे। गोमपाड़ा गांव के लोगों ने स्कूल के लिए एक स्थान का चयन किया है जहां गुरूजी के आने की बात थी लेकिन अब तक वे नहीं आए। गांव वालों ने गुरूजी के लिए बाज़ार से खाने-पीने की चीज़ें भी लाई थी।

गांव के बाहर एक तालाब है जिसके एक तरफ मिट्टी डालकर गांव वालों ने खुद एक रास्ता बनाया है। बारिश के मौसम में तालाब के किनारे डाली गई मिट्टी कीचड़ में बदल जाती है और ऐसे में जब लोग कहीं जाते हैं तब उनका पैर धंसने लगता है।

नुलकातोंग गांव बंडा पंचायत में आता है जो कि गांव से 8-9 किलोमीटर की दूरी पर है। गांव में पहले 50 घर हुआ करते थे और अब 47 घर बचे हैं। कुछ लोग डर से अपना घर छोड़कर आंध्रा चले गये हैं। गांव में विकास के नाम पर 4 हेंडपंप हैं जिनमें से तीन खराब हो चुके हैं और एक से ही पूरा गांव पानी की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। इस गांव में 2002-03 में एक सरकारी स्कूल बना था, जिसे सरकार ने 2007-08 में तोड़ दिया।

खेतों में नाले को पार करने के लिए गांव वालों ने खुद बांस के पुल का निर्माण किया है। गांव में आंगनबाड़ी सेविका हफ्ते में एक बार आती है। कभी-कभी तो आकर हफ्ते भर रूक जाती है। इस गांव के कुछ लड़के-लड़कियां कोंटा में पढ़ते हैं।

इन गांवों में स्वास्थ्य की कोई व्यवस्था नहीं है। उनको थोड़ी-बहुत दवा माओवादियों द्वारा मुहैय्या करायी जाती है। गांव में बुजुर्ग कम ही दिखते हैं, क्योंकि यहां पर जीने की औसत आयु कम है। डायरिया जैसी बीमारियों में लोगों की जान चली जाती है। इन गांव वालों से बात करने से पता चलता है कि ज़्यादातर घरों में 5-7 सालों में कोई ना कोई बीमारी या पुलिस की गोली से मारा जा चुका है।

गांव के लोग बाहर काम करने जाते हैं तो वहां भी उनको उचित पैसा नहीं दिया जाता है। उनको बंधक बनाकर काम कराने की बातें भी समाने आई हैं। दुर्मा के 10 लोग (8 पुरुष और 2 महिला) भद्राचलम काम करने गए थे। वहां से ठेकेदार ने उनको अपने साथ कार में बैठा कर दूसरी जगह काम पर यह कहते हुए ले गया कि वहां पर ज़्यादा मज़दूरी मिलेगी। वहां जाने के बाद उन लोगों का आधार कार्ड रख लिया और बंधक बनाकर उनसे काम कराया गया। दो लोग किसी तरह वहां से भाग कर अपने गांव दुर्मा पहुंचे हैं लेकिन 8 लोग (जिनमें से 2 महिलाएं हैं) तीन माह से उस ठेकेदार के बंधक में हैं।

मोदी जी नार्थ ईस्ट के अंतिम गांव तक बिजली पहुंचाने का दावा करते हैं लेकिन मध्य भारत के इन गांवों में ढिबरी की रोशनी तक नहीं पहुंच पाई है। डिजिटल इंडिया तो दूर की बात है, यहां पर किसी गांव में आपको नेटवर्क तक नहीं मिलेगा। विकास के नाम पर इन्हें सिर्फ अत्याधुनिक रायफलों की गोलियां मिलती हैं, जो इनके शरीर को छल्ली कर देता हैं। मोदी जी ने लाल किले से संबोधन के दौरान कहा था कि इस बार लोकसभा और राज्यसभा की बैठकें सामाजिक न्याय को समर्पित थीं। लेकिन इन आदिवासियों को सामाजिक न्याय कब मिलेगी? कब इनको बिजली, उज्ज्वला योजना, आयुष्मान भारत योजना की सुविधाएं मिलेंगी? उन बेटियों, मां-बहनों के साथ कब तक बलात्कार होता रहेगा? इनके लिए कब बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ के नारे सार्थक होंगे?

मोदी जी आपने ज़िक्र किया था कि कटनी में बलात्कारियों को 5 दिन में सज़ा दे दी गई लेकिन मड़कम हिड़मे जैसे सैकड़ों आदिवासी महिलाओं के बलात्कारियों की अबतक पहचान भी नहीं हो पाई है।

रोज़-रोज़ के फर्ज़ी मुठभेड़ और गिरफ्तारियों से आदिवासियों के लिए अस्तित्व का खतरा पैदा हो गया है। आदिवासी अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संगठित होकर लड़ रहे हैं, चाहे आप इनके संघर्ष को जिस नाम से पुकारें। इस लूट को बनाये रखने के लिये भारत सरकार, छत्तीसगढ सरकार जितना भी फर्ज़ी मुठभेड़ में लोगों को मारे, महिलाओं के साथ बलात्कार करे, शांतिप्रिय-न्यायपसंद लोगों को धमकाये और उन पर हमले कराये, इससे शांति स्थापित नहीं हो सकती। भारत सरकार से अपील है कि वह तुरंत फोर्स को वापस बुलाये और आदिवासियों को उनके जीविका के साधन से ज़बरदस्ती बेदखल नहीं करे।

यह सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वह लोगों को शांति, सुरक्षा और न्याय दे। तभी जाकर आपका लाल किले का वह संबोधन सार्थक हो पाएगा जिसमें आपने कहा था, “संविधान कहता है कि गरीबों को न्याय मिले, जन-जन को आगे बढ़ने का अवसर मिले। समाज व्यवस्था उनके सपनों को दबोचे नहीं। वह जितना फलना-फूलना, खिलना चाहे, उनके लिए अवसर हो। दलित, पीड़ित, जंगल में रहने वालों को उनकी अपेक्षाओं के अनुसार प्राप्त हो”। आदिवासियों की यही मांग है कि उनकी जीविका के साधन को छीनना बंद किया जाए तथा उनकी हत्या, फर्ज़ी गिरफ्तारी और महिलाओं के साथ होने वाले बलात्कार को बंद किया जाए। आदिवासियों को भी गौरवपूर्ण तरीके से जीने का अधिकार मिले।

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