बहादुर शाह ज़फर प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के एक महान सेनानी थे जिनके योगदान को नहीं भुलाया जा सकता लेकिन इस वक्त हमारे देश में एक ऐसा भी समूह है जो इतिहास को मिटाने और बदलने के काम में लगा है। कभी गांधी और पंडित नेहरू तो कभी किसी और का गलत ऐतिहासिक विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है।
हाल ही में एक मित्र से जब मेरी बात हो रही थी तब अचानक 1857 के गदर की बात होने लगी। मेरे उस मित्र ने बहादुर शाह ज़फर के सारे योगदान को अपने कुछ तर्कों के आधार पर शून्य कर दिया। उनके तर्क ये थे कि बहादुर शाह ज़फर ने इसलिए अंग्रेज़ों से युद्ध किया, क्यूंकि अपने राज्य को बचाने के लिए उनके पास कोई और रास्ता नहीं था।
मेरे मित्र ने तमाम तरह की बातें कही। उन्होंने उदहारण पेश करते हुए कहा कि ज़फर खुद एक विदेशी था। वो उस मुगल साम्राज्य का वारिस था जिसने भारतीयों को गुलाम बनाकर अत्याचार किया। उसका वंशज औरंगज़ेब था। ज़फर अगर युद्ध जीत भी जाता तो वो अपनी निरंकुश सत्ता फिर से स्थापित कर लेता। इसी प्रकार से बहादुर शाह ज़फर के बारे में वो तमाम तरह की बातें कहता रहा। 7 नवंबर को उनकी बरसी थी और इस मौके पर मैं यह लेख लिखकर लोगों को उनके बारे में बताना चाहता हूं।
ज़फर का जन्म 24 अक्टूबर, 1775 में हुआ था। उनके पिता अकबर शाह और मां लालबाई थीं। उनकी माँ हिंदू और पिता मुस्लिम थे। वे भारत में ही पैदा हुए थे मगर फिर भी उनकी भारतीयता पर सवाल उठाया जाता है। अपने पिता की मौत के पश्चात अबु ज़फर सिराजुद्दीन मुहम्मद बहादुर शाह ज़फर को 18 सितंबर 1837 में मुगल बादशाह बनाया गया। उस समय तक दिल्ली की सल्तनत बेहद कमज़ोर हो गई थी।
एक शासक के तौर पर उनकी सफलता यह थी कि उन्होंने सभी धर्म के लोगों के साथ समान व्यवहार किया। उनके शासन काल के दौरान उन्होंने होली और दिवाली जैसे बड़े हिन्दू त्योहारों को भी दरबार में मनाना शुरू किया। वो हिन्दुओं की भी धार्मिक भावनाओं का बहुत सम्मान करते थे। बादशाह बनने के बाद उन्होंने गौहत्या पर पाबंदी का आदेश दिया।
गोरखपुर विश्वविद्यालय में इतिहास के पूर्व प्राध्यापक डॉ. शैलनाथ चतुर्वेदी के अनुसार 1857 के समय बहादुर शाह ज़फर एक ऐसी बड़ी हस्ती थे, जिनका बादशाह के तौर पर ही नहीं, बल्कि एक धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति के रूप में भी सभी सम्मान करते थे। इसलिए मेरठ से विद्रोह कर जो सैनिक दिल्ली पहुंचे, उन्होंने सबसे पहले बहादुर शाह ज़फर को अपना बादशाह बनाया।
1857 की क्रांति के समय इंडियन रेजिमेंट ने दिल्ली को घेर लिया था और ज़फर को क्रांति का नेता घोषित कर दिया था। उस समय ऐसे माना जा रहा था कि ज़फर देश में हिन्दू-मुस्लिम को ना केवल एक कर देंगे बल्कि, उन्हें भारत के राजा के तौर पर उन्हें एकमत से स्वीकार भी कर लिया जाएगा।
अंग्रेजों ने इस क्रांति को सैन्य विद्रोह कहा था लेकिन क्रांतिकारियों ने सैन्य विद्रोह के अलावा बहादुर शाह के नेतृत्व में एक योजना भी बनाई थी। हालांकि ये योजना सफल ना हो सकी और जब अंग्रेज़ जीत गए तब बहादुर शाह ज़फर ने दिल्ली के बाहर हुमायूं की समाधि पर जाकर शरण ले थी। मेजर होड़सन ने आकर इस समाधि को चारों तरफ से घेर लिया और ज़फर को आत्म समर्पण करने को कहा।
अपने साम्राज्य के साथ ही ज़फर ने अपने पूर्वज अकबर और पिता अकबर शाह द्वितीय के राष्ट्रीय दृष्टिकोण को भी विरासत में पाया। उनका कहना था कि उनकी प्रजा उनके बच्चे थे। 16 सितंबर 1857 की रात दिल्ली के पतन के बाद किला छोड़ने के उपरांत उनकी अंतिम दुआ यह थी, “खुदा, भारत के हिंदू और मुस्लिम मेरे बच्चे हैं। कृपया उन्हें सुरक्षित रखें और उन्हें अंग्रेज़ों के हाथों मेरे कर्मों के लिए पीड़ित ना होने दें।”
उनके परिवार के बहुत से सदस्य अंग्रेज़ों द्वारा मारे गए या जेल में डाल दिए गए। 1858 में बहादुर शाह ज़फर को उनकी पत्नी जीनत महल और कुछ अन्य परिवार के सदस्यों के साथ राजद्रोह के आरोप में रंगून भेज दिया गया। उनके पुत्रों और प्रपौत्रों को ब्रिटिश अधिकारियों ने सरेआम गोलियों से भून डाला। 7 नवंबर 1862 को एक बंदी के रूप में रंगून में उन्होंने दम तोड़ा दिया और उन्हें वहीं दफना दिया गया।
ज़फर एक उम्दा शायर और सूफी संत भी थे। उर्दू के प्रसिद्ध कवि ज़ौक उनके उस्ताद थे। उनके काव्य में उनकी देशभक्ति की भावना देखी जा सकती है।
लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में,
किस की बनी है आलम-ए-नापायदार में।
बुलबुल को बागबां से न सैयाद से गिला,
किस्मत में कैद लिखी थी फसल-ए-बहार में।
कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें,
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में।
एक शाख गुल पे बैठ के बुलबुल है शादमान,
कांटे बिछा दिए हैं दिल-ए-लाल-ए-ज़ार में।
उम्र-ए-दराज़ माँग के लाये थे चार दिन,
दो आरज़ू में कट गये, दो इन्तेज़ार में।
दिन ज़िन्दगी खत्म हुए शाम हो गई,
फैला के पांव सोएंगे कुंज-ए-मज़ार में।
कितना है बदनसीब ‘ज़फर’ दफ्न के लिए,
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में॥
बहादुर शाह ज़फर की अंतिम इच्छा थी कि उनको दिल्ली के महरौली में दफन किया जाए परंतु उनकी ये इच्छा पूरी ना हो सकी। उनके अंदर देशभक्ति की भावना भरी हुई थी और इसी वजह से वो अंग्रेज़ों से समझौता ना करके शहीद हो गए।
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