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“मैं इंदिरा गांधी से ज़्यादा लक्ष्मीबाई का जन्मदिन क्यों मनाता हूं”

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भारत देश की एक महिला ने भारत को आज़ादी दिलाने के लिए अपने प्राणों का बलिदान कर दिया और दूसरी ने आज़ाद होने के बाद भारत के लोकतंत्र पर घातक हमला किया। आज 19 नवंबर को इन दोनों महिलाओं का जन्मदिन है, ऐसे में हम भारतीयों के लिए यह एक चुनौतिपूर्ण परिस्थिति हो जाती है कि हम अपने दिलों में किसे अधिक महत्व देते हैं।

लोकतंत्र के लिए काला दिन लाने वाली इंदिरा गांधी का जन्मदिन

आज़ाद भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री और देश में संविधान का दीपक जलाने वाले पंडित जवाहर लाल नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी की आज 101वीं जंयती है। इंदिरा की छवि भारतीयों के दिलों में एक भयावह राजनेता के रूप में बनी हुई है, जिसने अपने शासनकाल में भारतीय राजनीति का स्वरूप ही बदल दिया था।

उस दौरान भारतीयों को आभास हो रहा था कि ‘इंदिरा सरकार’ के कार्याें के रूप में काले अंग्रेज़ भारतीयों पर अपना दबाव बनाने का अथक प्रयास कर रहे थे। आम जनता हैरान थी कि जिसके पिता ने संविधान का दीपक जलाया था, उन्हीं की बेटी अपनी तानाशाही के चलते उस दीपक की रौशनी बुझा रही है।

25 जून, सन् 1975 का वह दिन तपती गर्मी के अतिरिक्त भारतीय राजनीति का काला दिन था, जब इंदिरा गांधी ने देश में निरंकुश आपातकाल लगाने की घोषणा की थी। आपातकाल का विरोध करने वाले हज़ारों राजनेताओं को गिरफ्तार कर जेल की सलाखों के पीछे डाल दिया गया था।

लोकतंत्र का अपमान कर तानाशाही करने वाली इंदिरा गांधी को शायद ही यह देश कभी भूल पाएगा। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ कहे जाने वाले मीडिया को भी अपने अधीन कर इंदिरा ने अपने समय की सबसे बड़ी गलती की। जो मीडिया समाज को दर्पण दिखाने का काम करता है, उसी को गुलाम बना डाला।

आपातकाल के दौरान देश के लोकतंत्र को कठपुतली की तरह नचाया जा रहा था। इसके पीछे भी कूटनीति का बहुत बड़ा हाथ था। इंदिरा के बेटे और उस समय आपातकाल के खलनायक संजय गांधी ने अपनी मॉं की सत्ता का दुरुपयोग कर देश के कानून को अपना गुलाम बनाकर देश की जनता पर कई ज़ुल्म किए। पुरुषों की नसबंदी कराना और लोगों के संवैधानिक अधिकारों का हनन करने के पीछे संजय का ही हाथ था।

इंदिर गांधीइंदिर गांधी
इंदिर गांधी। Source: Flickr

खत्म होती मानवता और न्यायिकता के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले हज़ारों राजनीतिज्ञों को ‘मीसा एक्ट‘ के तहत हिरासत में भेज दिया गया।  आलम यह हुआ कि ‘लोकतंत्र’ इंदिरा और संजय गांधी का बंधक बन गया। खैर, 19 महीने चली इंदिरा की तानाशाही के बाद 18 जनवरी 1977 को इंदिरा ने आपातकाल खत्म करने का निर्णय लिया और सभी राजनेताओं को जेल से रिहा कर देश में चुनाव कराया। चुनाव परिणाम से साफ पता चल गया कि लोगों के दिलों में इंदिरा की जो भयावह छवि उत्पन्न हुई  थी, उसका ही नतीजा था कि देश में पहली बार कोई गैर-कॉंग्रेसी प्रधानमंत्री बना। जनता पार्टी के मोरारजी देसाई के आगे इंदिरा को चुनाव में हार का सामना करना पड़ा।

अंग्रेज़ों को लोहा मनवाने वाली रानी लक्ष्मीबाई का जन्मदिन

अंग्रेज़ी हुकूमत को हिला देने वाली रानी लक्ष्मीबाई का जन्म वाराणसी ज़िले में 19 नवम्बर 1828 को एक मराठी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके बचपन का नाम मणिकर्णिका था लेकिन परिवार वाले उन्हें स्नेह से मनु पुकारते थे। उनके पिता का नाम मोरोपंत ताम्बे और माता का नाम भागीरथी सप्रे था। उनके माता-पिता महाराष्ट्र से सम्बन्ध रखते थे।

ब्रिटिश इंडिया के गवर्नर जनरल डलहौजी की राज्य हड़प नीति के अन्तर्गत अंग्रेज़ों ने बालक दामोदर राव को झांसी राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया और ‘डॉक्ट्रिन ऑफ लेप्स’ नीति के तहत ‘झांसी राज्य’ का विलय अंग्रेज़ी साम्राज्य में करने का फैसला कर लिया।

रानी लक्ष्मीबाई
रानी लक्ष्मीबाई। Source: Flickr

हालांकि रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेज़ वकील जॉन लैंग की सलाह लेते हुए लंदन की अदालत में मुकदमा दायर कर दिया लेकिन अंग्रेज़ी साम्राज्य के खिलाफ कोई फैसला हो ही नहीं सकता था इसलिए काफी बहस के बाद इसे खारिज कर दिया गया। अंग्रेज़ों ने झांसी राज्य का खज़ाना ज़ब्त कर लिया और रानी लक्ष्मीबाई के पति गंगादाहर राव के कर्ज़ को रानी के सालाना खर्च से काटने का फरमान जारी कर दिया।

अंग्रेज़ों ने लक्ष्मीबाई को झांसी का किला छोड़ने को कहा, जिसके बाद उन्हें रानीमहल जाना पड़ा। 7 मार्च 1854 को झांसी पर अंग्रेज़ों ने अधिकार कर लिया। रानी लक्ष्मीबाई ने हिम्मत नहीं हारी और हर हाल में झांसी की रक्षा करने का निश्चय किया।

अंग्रेज़ी सल्तनत से संघर्ष जारी रहा

अंग्रेज़ी हुकूमत से संघर्ष के लिए रानी लक्ष्मीबाई ने एक स्वयंसेवक सेना का गठन प्रारम्भ किया। इस सेना में महिलाओं की भी भर्ती की गई और उन्हें युद्ध का प्रशिक्षण दिया गया। झांसी की आम जनता ने भी इस संग्राम में रानी का साथ दिया। लक्ष्मीबाई की हमशक्ल झलकारी बाई को सेना में प्रमुख स्थान दिया गया। तात्या टोपे और लक्ष्मीबाई की संयुक्त सेना ने ग्वालियर के विद्रोही सैनिकों की मदद से ग्वालियर के एक किले पर कब्ज़ा कर लिया। रानी लक्ष्मीबाई ने जी-जान लगाकर अंग्रेज़ी सेना का मुकाबला किया लेकिन 17 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा की सराय में ब्रिटिश सेना से लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हो गईं।

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