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“आस्था के राम या राजनीति के राम?”

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इन दिनों देश में चुनावी मौसम के बीच राम मंदिर का मसला एक बार फिर चर्चा में है। राम मंदिर पर राजनीति करने वाले तमाम राजनेता कोई भी मौके नहीं छोड़ रहे हैं जिनसे उनको राम के नाम पर फायदा मिले। आलम यह है कि घर में पूजा करने आए पंडित भी फोन की घंटी बजते ही राग आलापने लगते हैं, ‘सौगंध राम की खाते हैं, हम मंदिर वहीं बनाएंगे।’ पंडित जी ऐसा बोले भी क्यों ना, हिन्दुत्व की सरकार जो है।

राम मंदिर का मुद्दा इतना गर्म हो गया है कि न्यूज़ चैनलों में तरह-तरह के बहस चल रहे हैं। खैर टीआरपी क्या ना करवाए। 25 नवंबर 2018 को अयोध्या में ‘विश्व हिंदू परिषद’ की तरफ से विशाल धर्मसभा बुलाई गई जिसमें देश के कोने-कोने से राम भक्त और साधु-संत पहुंचे। शिवसेना का आगमन भी सुर्खियों में रहा। धर्मसभा में राम मंदिर निर्माण कार्य पर यह आखिरी संवाद है। इसके बाद दिल्ली में भी 9 दिसंबर को रैली का आयोजन किया जाएगा।

यह मुद्दा अगर उत्तर प्रदेश में उबल रहा है तब कोई अचरज की बात नहीं है क्योंकि बीजेपी की तो यही रणनीति रही है। बीजेपी राम मंदिर के सहारे ही आगे बढ़ती है। उसे धार्मिक आधार पर होने वाली गोलबंदी बेहद पसंद है। जाति के आधार पर राजनीति करने में वो अक्सर औंधे मुंह गिरती है।

अयोध्या में आयोजित हुई जनसभा को देखते हुए अभी से यह कयास लगाना कि इसे भारी समर्थन मिलने वाला है, यह गलत होगा। 90 के दशक में लोग राम जन्मभूमि आंदोलन के साथ दिल से जुड़े हुए थे लेकिन अब वक्त बदल चुका है। एक ऐसा तबका बन चुका है जिसका मानना है कि चुनाव के वक्त राजनैतिक दल सिर्फ वोटबैंक बटोरने के लिए राम मंदिर के मुद्दे को उछालते हैं। यह एक ऐसा वर्ग है जिसे आंदोलन से कोई दिलचस्पी नहीं है।

अयोध्या में लोगों की भीड़
अयोध्या के धर्म सम्मेलन में जाते लोग

राम मंदिर कब बनेगा या मंदिर और मस्जिद दोनों बनाने के लिए कोई रास्ता निकाला जाएगा, यह कानूनी मसला है। यहां पर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की बातों को भी समझने की ज़रूरत है, जहां उन्होंने अपने एक अध्यापक का उदहारण देते हुए कहा था कि उनके अध्यापक के पास एक कुरान और एक श्रीमद्भगवद्गीता होती थी। कभी वो भगवद्‍गीता तो कभी कुरान देखकर पढ़ाते थे। इसका निचोड़ यह है कि दोनों किताबों में एक ही बात लिखी है कि परमात्मा सभी के लिए समान हैं।

मेरी समझ में यह भी नहीं आता कि अयोध्या में भीड़ इकट्ठा करके खास समुदाय के लोगों के बीच डर का माहौल क्यों बनाया गया? यदि हालात बेकाबू होते तब कौन ज़िम्मेदार होता? धर्म के आधार पर की जाने वाली राजनीति के दौर में कबीर दास का यह दोहा काफी प्रासंगिक है।

बाहिर भीतर राम है नैनन का अभिराम
जित देखुं तित राम है, राम बिना नहि ठाम।

इन पंक्तियों के ज़रिए कबीर कहते हैं, “प्रभु बाहर-अंदर सर्वत्र विद्यमान है। यही आंखों का सुख है। जहां भी दृष्टि जाती है, वहीं राम दिखाई देते हैं। राम से रिक्त कोई स्थान नहीं है, प्रभु सर्वव्यापक हैं।

धर्म के आधार पर राजनीति करने वाले मौजूदा राजनीतिज्ञों को भी कबीर दास के इस दोहे का पालन करना चाहिए। नहीं तो, वह दिन दूर नहीं जब देश में दंगों की तादाद बढ़ जाएगी और अफसोस के अलावा कुछ भी नहीं बचेगा। मैं राजनीतिज्ञों से यही कहना चाहूंगी कि बहुत हो गई धर्म की बात, अब विकास के आधार पर राजनीति कर लीजिए।

The post “आस्था के राम या राजनीति के राम?” appeared first and originally on Youth Ki Awaaz and is a copyright of the same. Please do not republish.


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