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“मैं लिखता हूं ताकि मंदिर-मस्जिद के लिए लाशें ना बिछे”

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लाशों से मेरा तात्पर्य सिर्फ इतना है कि जो अपने हक के लिए बोल नहीं सकता, जो आगे नहीं बढ़ सकता, जो कुछ कह नहीं सकता जिसकी आत्मा चली गयी, उसे लोग लाश कहते हैं। ऐसे लोग भले ही राजनीतिक रैलियों का हिस्सा हों या शमशान घाट में मुखाग्नि के लिये लेटे हों, मेरे हिसाब से दोनों ही लाश हैं और मैं ऐसे लोगों के लिए सालों से लिख रहा हूं।

 

अयोध्या में राम मंदिर के समर्थन में इकट्ठा भीड़। सोर्स- Getty

लिखता हूं उनके लिए जो एक मंदिर के लिए लाशें बिछा देना चाहते हैं और मैं लिखता उनके लिए भी हूं जो एक मस्जिद की शहादत के नाम पर मुम्बई में बम धमाके कर हज़ारों लोगों की जान ले लेते हैं। तभी मैं लिखता हूं कि जनाब भूतों से डर नहीं लगता, डर तो इन ज़िन्दा लाशों से लगता है।

मैं फिर लिखता हूं उनके लिए जो अपनी विधानसभा के विधायक और लोकसभा के सांसद से क्षेत्र में बिजली, पानी और स्वास्थ से जुड़े प्रश्न करने के बजाय उनके साथ एक सेल्फी लेकर सोशल मीडिया पर डालकर इसे महान काम समझ लेते हैं और हम लाइक करके उसे इस महान कार्य के लिए शुभकामनाएं प्रदान करते हैं।

हां, मैं लिखता हूं उनके लिए जो बुराड़ी के व्यस्त बाज़ार में सरेआम एक लड़की करुणा पर हत्यारे द्वारा किये जा रहे दनादन कैंचियों के वार को चुपचाप खड़े देखते रहते हैं किन्तु जब कलकत्ता की मेट्रो में एक लड़का, एक लड़की को गले लगाता है तब उग्र होकर उनके साथ मारपीट तक कर देते हैं।

मैं उनके लिए भी लिखता हूं, जब राजसमन्द में कोई शम्भूलाल रेगर एक मज़दूर अफराजुल की हत्या कर देता है और लोग रातों-रात खुशी में उसके अकाउंट में लाखों रुपये ट्रांसफर कर देते हैं लेकिन मज़दूर के अधजले शव के कफन के लिए कोई आगे बढ़कर फूटी कौड़ी नहीं देता।

मैं तब भी लिखता हूं जब कन्नड़ पत्रिका की लेखिका को उनके विचारों के कारण गोली से भून दिया जाता है खुशी में कोई ट्विटर पर उसे कुतिया की हत्या तक बताता है और कुछ लोग इन शब्दों से खुश होकर उसे लाइक और रीट्वीट तक करते हैं।

गौरी लंकेश। सोर्स- सोशल मीडिया

मैं लिखता हूं तब भी जब एक लड़की को उसके कम या ऊंचे कपड़ों के कारण संस्कार सिखाये जाते हैं लेकिन उसी समय सोशल मीडिया पर किसी अन्य लड़की की न्यूड फोटो पर लाखों की संख्या में लाइक भी पाए जाते हैं। उनके लिए भी लिखता हूं जो घर में बेटियों की ऊंची आवाज़ पसंद नहीं करते पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों में लड़कियों का नृत्य देखने हज़ारों की भीड़ में जुटते हैं।

मैं लिखता हूं तब भी जब धर्म-मज़हब के अपमान के नाम पर नेताओं और धर्म गुरुओं की आवाज़ पर लाखों की भीड़ जमा हो जाती है लेकिन किसी भी आवाज़ पर लोग सड़क, अस्पताल या मौलिक सुविधाओं या सामाजिक न्याय के लिए घर से बाहर निकलकर खड़े होने की कोशिश नहीं करते।

राम रहीम की गिरफ्तारी के बाद समर्थकों द्वारा जलाई गई गाड़ी।

मैं उनके लिए भी लिखता हूं जो हर एक मुद्दे पर झूठी फेक न्यूज़ को अपनी वॉल पर शेयर करते हैं, जिनके कारण देश में लगभग 50 लोगों की हत्या कर दी जाती है। साथ ही उनके लिए भी लिखता हूं, जो सत्य बात लिखने वाले को वामपंथी, ढोंगी या संघी कहकर चार बात सुना जाते हैं।

मैं उनके लिए भी लिखता हूं जो अपने सिरों पर राजनीतिक और धार्मिक टोपी लगाकर खुद को कुछ लोगों की गुलामी में झोंककर अन्य लोगों को स्वतंत्रता का पाठ पढ़ा जाते हैं। मैं उनके लिए भी लिखता हूं, जो एक प्रेमपूर्ण रिश्ते को एक पल में तोड़ डालते हैं लेकिन इस गुलामी की डोर कितनी भी कच्ची क्यों ना हो उन्हें ताउम्र नहीं तोड़ पाते।

मैं तो उनके लिए भी लिखता हूं, जो भ्रष्टाचार पर दिन-रात नौकरशाही और सरकारों को कोसते हैं लेकिन अपना काम कराने के लिए चुपचाप रिश्वत देकर चले आते हैं। उनके लिए भी लिखता हूं जो आरक्षण के नाम पर देश की करोड़ों की सम्पत्ति को आग में स्वाह कर देते हैं किन्तु विश्वविद्यालयों से लेकर सरकारी भर्तियों में चल रहे गोरख धंधे के खिलाफ कभी सामूहिक आवाज़ नहीं उठाते।

मैं तो उनके लिए भी लिखता हूं जो आम इंसान की परेशानियों की खबर को हटाकर नेताओं और सेलेब्रेटीज़ की खबर को प्रमुखता का स्थान देते हैं। मैं तब भी लिखता हूं, जब देश की रक्षा में शहीद हुए जवान के परिवार के प्रति संवेदना की जगह आतंकियों के मानवाधिकार की चिंता करते दिखते हैं।

मैं तो उन बेरोज़गारों के लिए भी लिखता हूं जो अच्छे अंक लाकर खाली हाथ रह जाते हैं और कितने लोग कम अंक पाकर भी अपनी पहुंच, ताकत और रिश्वत के बल पर ऊंचे स्थान पा जाते हैं। तभी मैं कहता हूं कि उन लाशों के लिखता हूं जो रटते हैं कि जब धर्म की हानि होगी मैं अवतार लूंगा और इस शब्द के सहारे कायर बने रहते हैं। मैं लिखता हूं उनके लिए जो कयामत के दिन आने की खुशी में बैठे हैं। मैं लिखता हूं उनके लिए जो अपना आत्मसम्मान तंत्र के हवाले किये बैठे हैं।

अंत में उनके लिए भी लिखता हूं जो पर्शिया के खिलाफ 300 यूनानी सैनिकों के साथ लड़े गये युद्ध की कहानी रस ले-लेकर सुनाते हैं किन्तु अपने आत्मसम्मान और अधिकारों की खातिर खुद खड़े होने का साहस नहीं कर पाते हैं।

तब मुझे सरदार भगत सिंह की कही पंक्ति याद आती है,

अगर ज़रूरत हो, तो उग्र बनो ऊपरी तौर पर

लेकिन हमेशा नरम रहो अपने दिल में

अगर ज़रूरत हो, तो फुंफकारों, पर डसों मत

दिल में प्यार को ज़िन्दा रखो लड़ते रहो ऊपरी तौर पर

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