एनआईटी उत्तराखंड के लगभग 900 छात्र-छात्राओं द्वारा 4 अक्टूबर से लगातार कक्षाओं का बहिष्कार किए जाने के बाद मामला अब दिल्ली पहुंच चुका है। एनआईटी उत्तराखंड के स्टूडेंट्स मंगलवार से दिल्ली के जंतर-मंतर में विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। 3 अक्टूबर को एनआईटी की छात्रा नीलम मीना और नुपूर मुंडा केदारनाथ हाइवे क्रॉस करने के दौरान सड़क हादसे में घायल हो गई थीं जिसके बाद से छात्र श्रीनगर में ही धरने पर बैठे थे। हादसे में नीलम मीना का पैर पूरी तरह बेकार हो गया है।
गौरतलब है कि एनएच-58 पर अस्थाई कैंपस होने के कारण छात्रों को हाईवे से गुज़रना पड़ता है। एनआईटी उत्तराखंड के तमाम छात्र मानव संसाधन विकास मंत्रालय और उत्तराखंड सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं।
उत्तराखंड में कई बार विरोध प्रदर्शन करने के बाद यह लोग अपनी बात ऊपर तक पहुंचाने के लिए दिल्ली में प्रदर्शन कर रहे हैं। आंदोलन कर रहे छात्र-छात्राओं का यह कहना है कि पौड़ी गढ़वाल के श्रीनगर में स्थित एनआईटी कैम्पस को दूसरी जगह शिफ्ट किया जाए क्योंकि श्रीनगर में कोई सुविधा नहीं है। वहां ना तो लैब है, ना पढ़ाई की अच्छी व्यवस्था और ना ही कैम्पस में बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं। इन सभी दिक्कतों के मद्देनज़र तमाम छात्र-छात्राओं की मांग है कि कैम्पस को दूसरी जगह शिफ्ट कर दिया जाए।

यह सब तो हो गई उनकी मांगों की बात। चलिए अब बात करते हैं कि एनआईटी होती क्या है और ये बच्चे पढ़ाई छोड़कर आंदोलन क्यों कर रहे हैं।
प्रौद्योगिकी संस्थानों की स्थापना का मूल उद्देश्य था कि देश में तकनीक व प्रौद्योगिकी स्तर को सुधारा जा सके। इसके लिए आईआईटी और अन्य प्रतिष्ठित संस्थानों की स्थापना की गई। साल 2002 में एमएचआरडी द्वारा कुछ प्रतिष्ठित क्षेत्रीय इंजीनियरिंग कॉलेजों को एनआईटी में बदल दिया गया और साल 2007 में लोकसभा में ‘द एनआईटी ऐक्ट’ पास किया गया।
प्रत्येक राज्य में एक राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान की स्थापना की गई। राज्य की क्षेत्रीय विविधता और बहुसांस्कृतिक समझ के साथ-साथ वैज्ञानिक अनुसंधान व तकनीकी का प्रचार-प्रसार और विकास ही इन कॉलेजों का लक्ष्य रखा गया। ऐसे ही साल 2009 में उत्तराखंड राज्य को भी केन्द्र सरकार द्वारा एनआईटी का तोहफा दिया गया। आशा थी कि सुदूर उत्तर में बसा यह छोटा सा राज्य इस तोहफे को तवज्जो देगा और जल्द ही एनआईटी उत्तराखंड की गिनती शानदार इंजीनियरिंग कॉलेजों में की जाएगी।
मगर राज्य सरकार ने इस कॉलेज को कभी गंभीरता से लिया ही नहीं है। आलम यह है कि एनआईटी उत्तराखंड के पास आज भी खुद का कैम्पस नहीं है। श्रीनगर गढ़वाल के एक सरकारी पॉलीटेक्निक में जुगाड़ करके अस्थाई कैम्पस चला दिया गया और 2010 से अब तक राष्ट्रीय महत्व का यह संस्थान उपेक्षाओं का शिकार होता रहा है।
हालात तब और भी बदतर हो गए जब सरकारों के साथ-साथ एनआईटी को क्षेत्रीय अस्मिता का मुद्दा बना दिया गया। श्रीनगर से ना शिफ्ट किया जाए इसके लिए राजनैतिक रूप से प्रेरित आंदोलन चलाए गए। वोट की राजनीति के लिये हज़ारों बच्चों के उज्जवल भविष्य पर कालिख पोत दी गई। समय के साथ मानव संसाधन विकास मंत्रालय के बढ़ते दबाव के चलते सिर्फ दिखावटी तौर पर कॉलेज के लिए पास ही सुमाड़ी गाँव में ज़मीन भी दी गई। मगर NBCC व अन्य भूगर्भ जांच एजेंसियों के सर्वेक्षण के बाद स्पष्ट हो गया कि वह ज़मीन किसी भी प्रकार के निर्माण लायक नहीं थी। सरल शब्दों में कहूं तब एक घटिया ज़मीन का टुकड़ा जहां जीवन-यापन की संभावएं नही थीं। लैंडस्लाइड और भूकंप प्रोन क्षेत्र!
पिछले साल राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान उत्तराखंड के छात्र-छात्राओं ने सिस्टम के इसी नकारापन के खिलाफ एक आंदोलन छेड़ दिया। छात्रों का कहना था कि यह जगह एक राष्ट्रीय स्तर के संस्थान की स्थापना लायक बिल्कुल भी नहीं है। कॉलेज के इतने दुर्गम इलाकें में होने के कारण यहां तकनीकी संस्थान के लायक ज़रूरी सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं हैं। यहां इतनी दूर ना तो अच्छी फैकल्टी आना चाहते हैं और ना ही प्लेसमेंट के लिए कोई कंपनियां।

एनआईटी उत्तराखंड का एक छात्र होने के नाते मैं बता रहा हूं कि हमारे यहां तो किसी प्रोजोक्ट के लिए कोई ज़रूरी उपकरण हैं और ना ही बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं हैं। बीते दिनों हुई घटनाओं से यह स्पष्ट है कि राजनेता सिर्फ राजनीति करने में लगे हुए हैं। एक लड़की जो पहाड़ बनाम मैदान की घटिया राजनीति का शिकार हो गई और आज इस कगार पर है कि डॉक्टरों को भी नहीं पता कि वो भविष्य में चल पाएगी या नहीं।
एनआईटी उत्तराखंड से बीटेक कर रहीं थर्ड इयर की छात्रा नीलम ने बेहतर करियर को लेकर कई सपने सजाए थे लेकिन इस वक्त ज़िन्दगी और मौत के बीच जूझ रही है। नीलम के सपोर्ट में उसके कॉलेज के सारे स्टूडेंट्स एकजुट होकर न्याय मांग रहे हैं। मैं तो इसे प्रशासन की लापरवाही का शिकार ही मान रहा हूं।
इस घटना के बाद से छात्रों का गुस्सा उबाल पर है। वे समझ नहीं पा रहे हैं कि बाकी NIT’s जितनी फीस अदा करने और JEE की परीक्षा पास करने के बाद भी वे किस बात की सज़ा भुगत रहें हैं। वे हाईवे से गुज़रकर अपनी लैब के लिए जाते हैं। बिना कैंपस के कॉलेज में ही अपनी चार साल की पढ़ाई पूरी करते हैं। यहां तक कि फाइबर से बने हॉस्टलों में जानवरों की माफिक रहने पर मजबूर किए जाते हैं और इतना सब होने पर भी कोई कंपनी उन्हें नौकरी देने पर भी राज़ी नहीं होती। नौकरी तो छोड़िये, उनकी जान तक की कोई गारंटी नहीं है।
जिन लोगों को अब तक हम छात्रों का आंदोलन मज़ाक लग रहा था, उम्मीद है उन्हें अब इसकी गंभीरता समझ आ जाएगी। उन्हें पता लग जाएगा कि जब देश का भविष्य अपना सब कुछ दांव पर लगाकर कॉलेज से निकल पड़ता है, तब ज़रूर उसे कुछ भयावह परेशानियों से गुज़रना पड़ रहा होगा।
आपको अंदाज़ा भी है कि कितनी नीलम आपकी इस नासमझी का फल अपनी हंसती-खेलती ज़िन्दगी को खोकर चुकाती रहेंगी। कितने ही बच्चे ज़िन्दगी में कभी वो मुकाम हासिल नहीं कर पाएंगे जो वे डिज़र्व करते हैं। मैं इस उम्मीद के साथ अपनी बात खत्म करता हूं कि लोगों को कम-से कम हमारी बात समझ आए।
नोट: YKA यूज़र भरत कुमार एनआईटी उत्तराखंड में छात्र हैं और उन्होंने इस लेख के ज़रिए अपने कुछ निजी अनुभव भी साझा किए हैं।
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