भारत और पाकिस्तान दोनों के खुदमुख्तारी मुल्क बनने के साथ ही दोनों ही देशों के संंबंध कभी सामान्य नहीं रहे हैं। दोनों देशों के संबंधों की गाड़ी कभी भी पटरी पर आई ही नहीं। समय-समय पर उस पर बर्फ की परतें ज़रूर पैबंद होती रही हैं। हाल में करतारपुर गलियारे के निमार्ण को लेकर रिश्तों में जमी बर्फ के पिघलने के संकेत मिल रहे हैं।
इमरान खान के पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बनने के बाद कई मौकों पर भारत के साथ संबंध सुधारने और बातचीत की पहल हो चुकी है, जिसका भारत की तरफ से एक ही जवाब दिया जाता रहता है कि पाकिस्तान को अपनी ज़मीन से आतंकवाद बंद करना होगा उसके बाद ही संवाद कायम हो सकता है, जो किसी भी लिहाज़ से गलत नहीं है क्योंकि सीमा पार आतंकवाद से जुझते हुए भारत ने केवल आर्थिक ही नहीं कई तरह के नुकसान पूर्व में भी झेले हैं और अभी भी झेल रहे हैं।
इन सारे तल्ख संवादहीनता के बीच करतारपुर गलियारा का मामला है, जो सिखों के बीच धार्मिक दृष्टि से बेहद खास है। करतारपुर साहिब रावी नदी के पार डेरा बाबा नानक से करीब 4 किलोमीटर दूर है, जिसे सिख गुरु ने 1522 में स्थापित किया था।
माना जाता है कि गुरुनानक देव ने अपने अंतिम दिन यहीं बिताए थे। करतारपुर गलियारा पर भारत सरकार की अचानक से आई सहमति चौंकाने वाली है। गौरतलब है कि पाकिस्तान के विदेश कार्यालय के प्रवक्ता मोहम्मद फैसल ने मंगलवार को उम्मीद जताई कि इस गलियारे का निर्माण अगले 6 महीने में पूरा हो जाएगा।
यह वही गलियारा है जिसकी पेशकश अटल बिहारी वाजपेयी ने लाहौर यात्रा में सबसे पहले की थी। संवादहीनता की स्थिति में करतारपुर गलियारा पर भारत सरकार की सहमति अधिक चौंकाने वाली इसलिए भी है क्योंकि भारत सरकार कई महीनों तक इसके लिए इनकार की मुद्रा में ही थी। लगातार इनकार के बाद भारत सरकार का इसके लिए तैयार होना क्या रुख में बदलाव की तरह समझा जाए?
भारत-पाक संबंधों में संवादहीनता के दौर में गलियारा के लिए तैयार होना कहीं ना कहीं इस बात का संकेत भी है कि सरकार सिख समुदाय की नाराज़गी का सामना नहीं करना चाहती है। पाकिस्तान सरकार की तरफ से गलियारा शुरू करने को लेकर पहले से कई अर्ज़ियां आ चुकी थीं। साथ-ही-साथ अगले साल लोकसभा चुनाव भी होने वाले हैं इसलिए भी सत्ताधारी सरकार सिखों के वोट बैंक को साधने की कोशिश की है?
चूंकि भारतीय वोटरों के मध्य धार्मिक भावनाएं वोट को भुनाने में राजनीति का काम करती हैं इसलिए तमाम राजनीतिक पार्टियां अपनी-अपनी जुगलबंदियों में व्यस्त हैं।
करतारपुर गलियारा पर आम सहमति के बाद भी सुरक्षा में सेंध दोनों देशों के मध्य वह मसला है जो अधिक परेशान करने वाला है। करतारपुर गलियारा के शिलान्यास के समय इमरान खान आतंकवाद पर चुप्पी रखते हुए कहते हैं,
मैं कह रहा हूं, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री, सत्तारूढ़ पार्टी, अन्य राजनीतिक पार्टियां और पाकिस्तान की सेना एकमत हैं। हम आगे बढ़ना चाहते हैं, हम एक शिष्ट संबंध चाहते हैं। दोनों देश परमाणु हथियारों से लैस है। हम दोनों के पास परमाणु हथियार है, ऐसे देशों के लिए (युद्ध के बारे में) सोचना मूर्खता होगी। कोई मूर्ख व्यक्ति ही सोच सकता है कि कोई परमाणु युद्ध जीत सकता है।
पाकिस्तान के वज़ीर-ए-आज़म बार-बार यह कहने से भी नहीं चूकते हैं कि दोनों देशों से गलतियां हुई हैं लेकिन दोनों पक्षों को अतीत में नहीं रहना चाहिए। अपने हर बयान पर आतंकवाद के विषय पर उनकी खामोशी या कार्य योजना के बारे में वह चुप्पी साध लेते हैं।
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इस पर यह अंदेशा लगाना लाज़िम है कि इमरान खान पहले की गलतियों को सही नहीं करना चाहते हैं ना ही पाकिस्तानी सेना की भारत विरोधी नीति पर लगाम लगाना चाहते हैं। पहले की गलतियों पर मिट्टी डालते हुए वह नई अंतरराष्ट्रीय नीति का अगाज़ करना चाहते हैं।
थोड़ी देर के लिए मान लिया जाए कि चलो संवाद कायम किया जाए पर संवाद कायम के लिए सामान्य महौल भी तो बने।
इसके लिए पाकिस्तान में आतंकवाद का खात्मा जितना अहम मुद्दा है जम्मू कश्मीर में एक स्थायी सरकार का होना भी बहुत ज़रूरी है, क्योंकि यह मुद्दा दोनों देशों की आवाम के लिए जितना महत्त्वपूर्ण है कश्मीर के लोगों के लिए उससे ज़्यादा महत्त्व रखने वाला मुद्दा है।
रहा सवाल लोगों की भावनाओं और राजनीतिक इच्छाशक्ति का तो पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने लाहौर बस यात्रा की शुरुआत जनभावना और राजनीतिक शक्ति का परिचय से ही किया था और उसके बाद आतंकवादी हमले ही नहीं सैन्य हमले को भी झेला।
इस बार सुरक्षा के मामले में कोई भी समझौता गंवारा नहीं किया जाना चाहिए। यह सही है कि मौजूदा पाकिस्तानी वज़ीरे-ए-आज़म समय-समय पर अच्छे रिश्तों के लिए दुहाई ही नहीं देते हैं अपनी तरफ से कोशिश भी कर रहे हैं परंतु उनकी तमाम कोशिशें आतंकवाद पर लगाम लगाने के अभाव में अधूरी ही रहेंगी। वह इसलिए क्योंकि पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद का अनुभव भारत का अधिक गहरा है।
दूसरी बात यह भी है कि भारत के लिए यह माकूल समय नहीं है क्योंकि कुछ महीनों बाद लोकसभा चुनाव होने हैं और धार्मिक भावनाओं के आधार पर कोई भी देश अपनी राजनीतिक बिसात नहीं बिछा सकता है।
राजनीतिक संबंधों में मधुरता के लिए राजनीतिक स्थितियों का सामान्य होना अधिक ज़रूरी है। किसी भी राष्ट्र की आकांक्षा देश के धार्मिक और निजी भावनाओं से ऊपर नहीं हो सकती हैं। यह कह सकते हैं कि लोगों की धार्मिक भावनाओं से जुड़ा करतारपुर कॉरिडोर जो एक बंद दरवाज़ा था अब खुल गया है पर यह राजनीतिक गलियारे को खुलवाने के लिए नाकाफी है। इसके लिए राजनीतिक विश्वास का कायम होना अधिक ज़रूरी है।
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हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भारत और पाकिस्तान दोनों ही मुल्क के लिए कश्मीर अपने-अपने देशों में एक राजनीतिक राष्ट्रवादी मुद्दा भी है दोनों ही मुल्कों की पीढ़ियां इसको अपने हक में देखने के ख्याल से ही पली-बढ़ी हैं। वह थोड़ी देर के लिए धर्म, आस्था और भावनाओं को स्वीकार भी कर लें, कश्मीर के विषय पर दिमाग में बैठाई गई सोच समझौता से जल्दी तैयार नहीं होंगी। कश्मीर का विषय भले ही राजनीतिक हो पर यह लोगों के राष्ट्रवादी अस्मिता से जुड़ा हुआ है।
इन तमाम पहलूओं के मध्य भारत और पाक दोनों की स्थिति दलगत मौजूदा यथास्थिति के कारण है। दोनों ही राष्ट्र के पास विकराल होती समस्या के समाधान की मज़बूत इच्छाशक्ति नहीं दिख रही है। जहां एक तरफ भारतीय पक्ष के लिए यह चुनावी वोट बैंक का मसला बनता दिख रहा है वहीं दूसरी तरफ पाकिस्तान के लिए अपनी अंतरराष्ट्रीय छवि उदार बनाने का मौका भर है।
दोनों ही पक्ष अपनी राजनीतिक महत्वकांक्षा की बल्लेबाज़ी और गेंदबाजी धार्मिक भावनाओं के पिच पर कर रहे हैं। दोनों ही पक्षों के नियत में विश्वास की कमी है जो दो देशों के संबंध तो कभी बेहतर नहीं कर सकता है।
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