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“शिवराज सिंह के जैसा क्या कोई कॉंग्रेसी नेता अपनी हार स्वीकार करता?”

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एक तस्वीर बहत चर्चित हो रही है, जिसमें शिवराज सिंह चौहान, ज्योतिरादित्य सिंधिया और कमलनाथ के साथ खड़े हैं। शिवराज की तारीफ हो रही है। कुछ लोग कह रहे हैं कि यह लोकतंत्र को पुनर्जीवित करने वाली तस्वीर है। कुछ लोग कह रहे हैं आज के विषाक्त वातावरण में यह एक सुगंध की तरह है। इसी प्रकार वसुंधरा राजे की तस्वीर अशोक और ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ भी देखी गई। इन तस्वीरों में चुनाव के आरोप प्रत्यारोप से परे दोनों विपक्षी दल के नेता आपस में बड़े सद्भावनापूर्ण ढंग से मिल रहे हैं।

ना केवल यह भारत अपितु किसी भी देश के लिए आदर्श तस्वीर या स्थिति हो सकती है, जहां पक्ष और विपक्ष दोनों के नेता एक दूसरे के साथ जनता के हित में आगे आए।

इसमें कोई संशय नहीं है कि वास्तव में ऐसी तस्वीरें लोकतंत्र के लिए आवश्यक हैं मगर इस तस्वीर को देखें तो हम पाएंगे कि इस प्रकार की तस्वीरें हम तब नहीं पाते जब कॉंग्रेस हारती है। शिवराज तीन बार चुने गए, रमन सिंह भी तीन बार चुने गए मगर इस प्रकार एनडीए या किसी और क्षेत्रीय दलों के कार्यक्रम या किसी और सार्वजनिक कार्यक्रम में कॉंग्रेस की तरफ से भी इस प्रकार की नुमाइंदगी हुई हो ऐसा देखा नहीं गया है।

अभी कुछ समय पूर्व से जब कॉंग्रेस की मिली-जुली सरकारें बनने लगी हैं वहां ज़रूर कॉंग्रेस ने इस प्रकार की कोशिश की है कि मुख्य विपक्षी दल को छोड़कर सभी दलों को विपक्षी एकता का संदेश देने के लिए बुलाया जाए।

अखिलेश यादव इस कड़ी में एक अपवाद की तरह हैं, भाजपा के हाथ उत्तर प्रदेश में सत्ता गंवाने के बाद वो अपने पिता के साथ शपथ ग्रहण में आयें। राजनीतिक आचरण को कैसे रखना और कैसे चलाना है इसकी ज़िम्मेदारी ना केवल सत्ता पक्ष की होती है अपितु विपक्ष की भी उतनी ही होती है। अफसोस भारतीय राजनीति में हर चलन को केवल सत्ता से जोड़कर देखा गया है।

गुजरात में जब तक मोदी मुख्यमंत्री रहें, विपक्ष ने उनका पूर्ण बहिष्कार किया। ऐसा ही कुछ हाल के वर्षों में मध्यप्रदेश में देखा गया। पिछले वर्षों में जहां भी कॉंग्रेस हारी उसने हार को गरिमापूर्ण ढंग से स्वीकारने की बजाय हार के लिए ईवीएम या किसी औए चीज़ को ज़िम्मेदार माना।

लोकतंत्र में चुनाव की जीत जितनी महत्वपूर्ण हैं, उतना ही महत्वपूर्ण है हार को गरिमापूर्ण ढंग से स्वीकार करना मगर दिल्ली की राजनीति में इस प्रकार की परंपरा के उलट व्यवहार का चलन आम आदमी पार्टी ने किया। यह पार्टी चुनाव के पूर्व हर सर्वे में अपने को जीता हुआ बताती और हारने के बाद दोष ईवीएम पर लगाती है। चुनाव के पूर्व विपक्षी नेता पर आरोप लगाना और चुनाव के बाद उन आरोपों के लिए माफी मांगना मगर कभी भी जीत का श्रेय जीतने वाली पार्टी को नहीं देना।

एक क्षेत्रीय पार्टी के लिए मीडिया में रहने की यह अल्पकालीन रणनीति हो सकती है मगर कॉंग्रेस के लिए इस प्रकार की रणनीति का अनुसरण स्वस्थ चलन नहीं कहा जा सकता है। राजनीतिक आचार-व्यवहार की जितनी ज़िम्मेदारी नेहरू की रही उतनी ही श्यामा प्रसाद मुखर्जी और राम मनोहर लोहिया की भी थी।

राजनीतिक शिष्टाचार में गिरावट की शुरुआत 2014 से कम-से-कम तो नहीं हुई है। सोनिया गांधी ने एनडीए के पहले शासनकाल में अनगिनत आरोप लगाएं। विपक्ष की भूमिका का निर्वहन कैसे किया यह किसी से छुपा नहीं है मगर जब यूपीए के शासन को लाल कृष्ण आडवानी ने भ्रष्टतम कहा तो उन्हें बाध्य किया गया कि वह क्षमा मांगे।

अभी राहुल गांधी स्वयं और उनकी पार्टी के लोग देश के प्रधानमंत्री को राफेल सौदे को लेकर भ्रष्ट कह रहे हैं जबकि सुप्रीम कोर्ट ने सीमित रूप से ही सही इस सौदे में प्राथमिक रूप से कोई गलती नहीं पायी है मगर इसके बावजूद कॉंग्रेस लगातार भाजपा विशेषकर मोदी पर आरोप लगा रही है।

इसलिए मेरे दृष्टिकोण से अगर कोई इस तस्वीर के लिए बधाई का पात्र है वह विपक्ष की भाजपा पार्टी है, जिसने शिष्टाचार का उच्च मानदंड एक बार फिर से तय किया है। इसमें केवल शिवराज ही नहीं अपितु वसुंधरा राजे और रमण सिंह भी बधाई के पात्र हैं, जिन्होंने लोकतंत्र को ज़िन्दा रखा और लोकतंत्र के निर्णय को स्वीकार किया। ना कॉंग्रेस पार्टी ने शालीनता के साथ तेलंगाना की हार स्वीकार की और ना ही मिज़ोरम की। तेलंगाना में हारने के बाद पार्टी ने ईवीएम को फिर से दोषी ठहराया।

उन लोगों ने कॉंग्रेस पार्टी को यह बताया भी कि शालीनता की असली परीक्षा हार में होती है ना की जीत में। जिस परीक्षा में कॉंग्रेस एक पार्टी के रूप में बार बार हारी है। अतः जिन लोगों को लगता है कि भारतीय राजनीति में विषाक्तता 2014 का प्रारंभ हुआ और वह भी सत्ता पक्ष के कारण उन्हें कॉंग्रेस का विपक्ष की पार्टी के रूप में पुनः आकलन करना चाहिए।

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