इधर सभी राजनीतिक दल लोकसभा को ध्यान में रखकर अपनी रणनीति बनाने में जुटे हुए हैं इसलिए उत्तर प्रदेश के राजनीतिक दल देशभर के राजनीतिक विश्लेषकों के मुख्य केंद्र बने हुए हैं। जिनमें से ज़्यादातर राजनीतिक विश्लेषक पत्रकारिता से ताल्लुक रखते हैं। यह बात भी सच है कि भारत के ज़्यादातर पत्रकार (अपवादों को छोड़कर) किसी ना किसी राजनीतिक दल के प्रति झुकाव रखते हैं।
लगातार दो बार कॉंग्रेस सहयोगी दलों के सहारे सत्ता में रही उसके बाद 2014 में जनता ने कॉंग्रेस को बुरी तरह नकार दिया था, जिसकी कई वजहें हो सकती हैं। यहां तक कि एक दो साल पहले तक देश का आम व्यक्ति कॉंग्रेस का नाम तक नहीं लेना चाहता था तो पहला सवाल यही उठता है कि आखिर फिर से कॉंग्रेस को केंद्र में भाजपा के विकल्प के रूप में क्यों और कौन लोग आम जनता के सामने परोस रहे हैं? कॉंग्रेस और भाजपा में से एक को चुनने के लिए आमजन को क्यों मजबूर किया जा रहा है?
हाल ही में पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव हुए जिसमें से तीन राज्यों (छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान) में कॉंग्रेस सरकार बनाने में सफल रही। जिसका खूब ढोल पिटा गया, जिसमें यह बताने की कोशिश की गयी कि राहुल गांधी ने मोदी और शाह की जोड़ी को पस्त कर दिया और अब 2019 के लोकसभा में भी राहुल बनाम मोदी की लड़ाई होगी।
अब अगर हम इन तीन राज्यों के चुनावी नतीजों को ज़्यादा गहराई से ना देखकर ऊपर ही ऊपर देखें तो पता चलेगा की मध्यप्रदेश और राजस्थान में तो जनता ने कॉंग्रेस से ज़्यादा भाजपा को पसंद किया है। मध्यप्रदेश में पंद्रह साल के शासन के बाद भी वहां की जनता ने भाजपा को कॉंग्रेस से 1 प्रतिशत ज़्यादा मत दिया है, वहीं राजस्थान में भाजपा और कॉंग्रेस में लगभग 0.5 प्रतिशत मत का अंतर देखने को मिला है।
अगर वाकई में कॉंग्रेस को जनता विकल्प के रूप में देख रही होती तो क्या भाजपा को कॉंग्रेस से एक प्रतिशत मत ज़्यादा मिलते? वहीं तमिलनाडु के विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी के नेतृत्त्व में कॉंग्रेस पूर्ण बहुमत का सपना देख रही थी लेकिन उसको शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। ऐसे में राहुल गांधी, मोदी का मज़बूत विकल्प कैसे हो सकते हैं?
अब वापस आते हैं भाजपा के खिलाफ तैयार हो रहे गठबंधन की राजनीति पर। 2017 में हुए उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव ने राहुल गांधी का उस वक्त साथ लिया था जब कॉंग्रेस का साथ जनता को पसंद नहीं था। अखिलेश यादव जानते थे कि अगर देश से संघ और भाजपा को हटाना है तो कॉंग्रेस जैसी राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को साथ लेकर चलना होगा। इसके बावजूद उस विधानसभा में समाजवादी पार्टी को भरी नुकसान उठाना पड़ा। इस नुकसान की परवाह किये बगैर अखिलेश यादव लगातार कॉंग्रेस से अपने अच्छे संबंध की चर्चा करते नज़र आते रहें।
उस समय किसी ने यह नहीं लिखा कि अखिलेश यादव भाजपा को सत्ता से हटाने के लिए हर समझौते के लिए तैयार हैं। आज जब उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी गैर कॉंग्रेसी गठबंधन की कवायद कर रही है तो तमाम पत्रकार इस गठबंधन के विरोध में लम्बे लम्बे लेख लिख रहे हैं। यहां तक लिख दे रहे हैं कि सपा की यह रणनीति भाजपा को फायदा पहुंचाएगी।
क्या कॉंग्रेस समर्थित इन पत्रकारों को मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनाव में कॉंग्रेस द्वारा सपा-बसपा को साथ ना लेने की नकारात्मक रणनीति नज़र नहीं आई? आज अगर वास्तविकता में राहुल गांधी भाजपा मुक्त भारत का सपना देख रहे हैं तो आखिर सपा बसपा को साथ लेने में क्या परेशानी थी? शायद राहुल गांधी भूल गये कि समाजवादी दलों ने हर मुश्किल समय पर कॉंग्रेस का साथ दिया है?
ऐसे में तो क्षेत्रीय समाजवादी दलों को समाप्त करने की राजनीति में भाजपा और कॉंग्रेस तो एक ही नज़र आती है, देश के वंचितों के साथ सामाजिक न्याय करने के मुद्दे पर भी भाजपा और कॉंग्रेस एक ही नज़र आती है। अगर अखिलेश यादव देशभर के क्षेत्रीय दलों को एकजुट करके देश को एक मज़बूत विकल्प देने की योजना बना रहे हैं तो कॉंग्रेस को समस्या क्यों हो रही है?
आज उत्तर प्रदेश में सपा बसपा एक साथ आये हैं तो इसका श्रेय अखिलेश यादव को ही जाता है। अगर अखिलेश यादव भी राहुल गांधी की तरह खुद को सबका नेता मानते फिरते तो बसपा से कभी गठबंधन ना करते। शायद अखिलेश यादव प्रदेश की आम जनता जो भाजपा के शासन से परेशान है उन्हें उससे निजात दिलाने के लिए बसपा को साथ लेने की योजना बना रहे हैं।

अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश में केवल बसपा को ही साथ लेने की बात नहीं कर रहे हैं बल्कि प्रदेश में अन्य छोटे-छोटे दल जो समाज की अति पिछड़ी जातियों के प्रतिनिधित्व करते हैं उसको भी साथ लेकर चलने की बात कर रहे हैं। क्या कॉंग्रेस अपने आज तक के राजनीतिक सफर ऐसे छोटे दलों को साथ लेकर चलने का हौसला कर पाई है? अगर अखिलेश यादव को खुद का अस्तित्व बचाना होता तो वो केवल बसपा को साथ लेकर भी कर सकते थे लेकिन हर वर्ग के राजनीतिक दलों को साथ लेकर चलना कहीं ना कहीं उनके सामाजिक न्याय की राजनीति को और पुख्ता करती है।
क्या इस लोकसभा में कॉंग्रेस अपने घोषणापत्र में जाति जनगणना के आंकड़ों को उजागर करने का वादा करेगी? क्या हर वर्ग को उसकी जनसंख्या के अनुपात में देश के संस्थाओं में भागीदारी का वादा करेगी? अगर नहीं करेगी तो देश की बहुजन आबादी कॉंग्रेस को भाजपा का विकल्प क्यों माने? देश की बहुसख्यक आबादी जो आज़ादी के बाद भी अपने संवैधानिक हक के लिए तरस रही है, आज अखिलेश यादव उन्हें उनका हक दिलाने का वादा कर रहे हैं तो यह रणनीति भाजपा समर्थित कैसे?
अगर आने वाले समय में अखिलेश यादव राष्ट्रीय स्तर पर गैर कॉंग्रेस और गैर भाजपा विकल्प देने में सफल रहें तो बाबा साहब अंबेडकर और डॉ लोहिया जैसे समाजवादी नेताओं के सपनों को पूरा करने वाले नेताओं में शीर्ष स्थान पर होंगे साथ ही देश का दलित पिछड़ा अल्पसंख्यक समुदाय आजीवन ऋणी रहेगा। जब तक केंद्र की सत्ता भाजपा और कॉंग्रेस के बीच घूमती रहेगी तब तक वंचितों को उनका संवैधानिक हक नहीं मिलेगा। बात केवल गठबंधन की नहीं है, बात है मुद्दों की राजनीति की, जिसके लिए ना कॉंग्रेस तैयार है ना भाजपा।
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