पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में तीन राज्यों की कमान बीजेपी के हाथों से छीन कर काँग्रेस को देते हुए जनता ने यह संदेश दे दिया है कि लोकतंत्र विकल्पहीन नहीं होता। इस तरह जनता ने उन लोगों के मंसूबों पर भी पानी फेरने का संकेत दिया है, जो विपक्ष मुक्त भारत बनाने और अगले 30 सालों तक शासन करने का दंभ भरा करते थे। लोकतंत्र में लंबे चौड़े दावे और जुमले एक सीमा तक चलते हैं लेकिन वे हमेशा चलते रहेंगे ऐसा नहीं है।
यह भी सही है कि भारतीय जनमानस जाति और धर्म के दाएरे में सोचता है लेकिन वह इससे आगे भी बढ़कर आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के बारे में भी सोचता है। वह हमेशा धर्म और जाति के वोट बैंक में बंटने में यकीन नहीं करता। यह चुनाव भाजपा के बड़े नेताओं के बड़बोलेपन के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया है जो किसान गाय-गोबर की खेती और मेहनतकशों के जीवन को तबाह करते हुए राम मंदिर की रट लगाती है।
जनता ने भाजपा के खिलाफ जनादेश देकर यह बता दिया है कि भले ही उसे धार्मिकता पसंद है लेकिन सांप्रदायिकता-कट्टरता नहीं। यह जनादेश भाजपा की सांप्रदायिक-फासीवादी और जन-विरोधी नीतियों के खिलाफ है। जनता ने यह बताया है कि वह संविधान, लोकतंत्र, धर्म निरपेक्षता और जनतांत्रिकता के पक्ष में है। चुनाव के नतीजों से स्पष्ट है कि आम जनता ने छत्तीसगढ़ में कथित विकास के तमाम दावों तथा केन्द्र व राज्य की मोदी-रमन सरकार की कॉरपोरेट-संघी फासिस्ट नीतियों को ठुकरा दिया है।

हकीकत तो यही है कि भाजपा की धुर दक्षिणपंथी जनविरोधी नीतियों के कारण किसानों, मज़दूरों और कर्मचारियों (विशेषकर असंगठित क्षेत्रों के कर्मचारी, साक्षरता प्रेरक, राज्य संसाधन केंद्र कर्मचारी, आंगनबाड़ी, मध्यान्ह भोजन रसोइया, शिक्षाकर्मी आदि) के हर तबके के जीवन स्तर में गिरावट आई है और प्रदेश में सामजिक-आर्थिक असमानता बढ़ी है।
जब भी इन तबकों ने अपनी जाएज़ मांगों को लेकर आन्दोलन किया है, उन्हें गैर लोकतांत्रिक तरीके से बर्बरतापूर्वक कुचला गया है। यह जनादेश भाजपा की उन कॉरपोरेट परस्त नीतियों के खिलाफ है जो जल, जंगल, ज़मीन और अन्य प्राकृतिक संसाधनों को बढ़-चढ़कर कॉरपोरेट तबकों को सौंप रही है। इस मुहिम में वह आदिवासियों व दलितों के लिए बने पेसा, 5वीं अनुसूची व वनाधिकार कानून जैसे संवैधानिक प्रावधानों का दंभ के साथ उल्लंघन कर रही थी और कॉरपोरेट हित में राजस्व कानून में संशोधन कर रही थी।
सरकारी संरक्षण में चलाए जा रहे सलवा जुड़ूम अभियान तथा तथाकथित माओवादी उग्रवाद का दमन करने के नाम पर बस्तर की गरीब जनता, विशेषकर आदिवासियों के मानवाधिकारों को निरंकुश तरीके से कुचला है।
आम जनता की समस्याओं को दूर करने के बजाय भाजपा ने संघ परिवार के साथ प्रदेश में जन समस्याओं से जनता का ध्यान बांटने के लिए सांप्रदायिक फासीवादी नीतियों को लागू करने की लगातार कोशिश की है। बड़े पैमाने पर चर्चों को निशाना बनाया है और अल्पसंख्यकों और दलितों की सुरक्षा व रोज़ी-रोटी पर हमले किए हैं।

जाति धर्म-आस्था के नाम पर लोगों को बांटने की साज़िश तथा गरीबी और बेरोज़गारी को चरम अवस्था पर पहुंचाने वाली भाजपा सरकार के खिलाफ जनता का भीषण आक्रोश विधानसभा चुनावों में साफ झलक रहा था। छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश व राजस्थान चुनाव में विकल्प के अभाव में काँग्रेस ने भले ही जीत दर्ज की हो लेकिन जनता ने काँग्रेस के कार्यों से खुश होकर नहीं बल्कि भाजपा सरकार से त्रस्त होकर भाजपा के खिलाफ बम्पर वोटिंग की है।
ऐसा लगता है कि जनता आगामी लोकसभा चुनाव में इसी तरह मोदी की एन.डी.ए. सरकार को भी केंद्र की सत्ता से बेदखल करेगी जिसने लोकतंत्र का मखौल उड़ाया है और देश के संविधान के खिलाफ काम करने वाले असामाजिक, सांप्रदायिक ताकतों को संरक्षण देकर देश में अशांति, आतंक और असुरक्षा का माहौल पैदा किया है। यह चुनाव परिणाम भाजपा से जनता की बढ़ती दूरी का प्रमाण है।
नोट: लेखक ‘तुहिन देब’ छत्तीसगढ़ से स्वतंत्र पत्रकार हैं।
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