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“घरेलू कामगारों की स्थिति में सुधार लाने के लिए जाति प्रथा खत्म करनी होगी”

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साल 1984 के सिख कत्लेआम ने हमारे परिवार की असुरक्षा की भावना को शिखर पर ला दिया था। मुझे याद है जब 1986 में सारा सामान बांध कर किसी रिश्तेदार के ट्रक पर सवार होकर हम पंजाब आए थे, जहां रात को ट्रक की छत पर सोना और खुले आसमान में तारों को देखना और एक जगह राजस्थान में दूर खड़े हिरणों का झुंड आज भी मेरी यादों में मौजूद है।

पंजाब में रहने के दौरान मेरा एक और दोस्त बन गया था जिसे आज भी बहुत याद करता हूं। उस वक्त मेरी उम्र कुछ 8 साल की थी। हमारा किसान का घर, खेत और आंगन में भेसै, इतना कुछ था कि मेरे दादा इसे अकेले नहीं संभाल सकते थे। इनकी देख भाल के लिए उन्होंने मेरी ही उम्र का एक बच्चा घर पर काम-काज के लिए रख लिया जिसका नाम था चीना।

हम स्कूल जाते थे और वह घर पर काम करता था। हां, इतना ज़रूर है कि हमारे परिवार में उसके साथ कोई भेद-भाव नहीं किया जाता था और ना ही उस से ज़्यादा काम करवाया जाता था। मसलन, मेरी माँ हमारे साथ का खाना और पीने को दूध चीना के लिए विशेष तौर पर रखती थी। वही, खेत से चारा लाना और उसे घर पर लाकर काटना, उसमें भी मेरा ओर मेरी माँ का योगदान चीना के साथ हमेशा रहता था।

चीना मेरी उम्र का ही था लेकिन वह स्कूल नहीं जाता था और खाना भी अपने बर्तनों में दूर बैठ कर खाता था। चीना गाँव के उस हिस्से से आता था जहां जातिवाद के तहत मेरे गाँव में एक हिस्से को गरीब बनाकर रखा जाता है और वह हिस्सा हर गाँव में आज भी मौजूद है।

चीना की माँ किसानों के घरों से भैंस का मल उठाने का काम करती थी, जबकि 13-14 वर्ष का बड़ा भाई शहर के किसी ईंट के भट्टे पर मज़दूरी का काम करता था। चीना के पिता अपने परिवार को छोड़कर दूसरे शहर में नए परिवार के साथ रहते थे।

औरतें चाहे ऊंची जाति की हो या निम्न जाति की, समाज उसे अक्सर कमज़ोर की निगाहों से ही देखता है। ऊंची जाति की औरतों को इज्ज़त के नाम पर सरक्षण मिल जाता है लेकिन निम्न जाति की औरतें जिनके पति उन्हें छोड़ चुके हैं, उनके लिए गाँव में मौजूद जाति व्यवस्था से लड़ना बहुत मुश्किल है। चीना की माँ समाज से लड़ते हुए जैसे-तैसे आगे अपनी ज़िन्दगी में बढ़ रही थी लेकिन जाति व्यवस्था में निम्न जाति की औरतों का बहुत अधिक शोषण होता है जहां वह एक औरत से ज़्यादा किसी वस्तु की ही पहचान रखती है।

कुछ साल पहले चीना से फिर मेरी मुलाकात हुई थी, उसकी शादी हो चुकी है और अब वह शहर में मज़दूरी का काम करता है लेकिन घर की वही माली स्थिति है। उसके बड़े भाई की रोड एक्सीडेंट में मौत हो गई थी, वही चीना के नवजात बेटे की मौत की खबर सुनकर भी व्यक्तिगत रूप से मुझे बहुत दुःख हुआ था।

दो कमरों का घर जो अपनी गरीबी दिखाने में किसी तरह का दु:ख महसूस नहीं करता, वहां अब चीना अपने परिवार के साथ माँ से अलग रहता है। अब आने वाली पीढ़ी भी किस तरह गरीबी से निज़ाद पा सकेगी, यह सबसे ज़रूरी और गंभीर सवाल है।

शहर की ज़िन्दगी में एक समय माँ के ऑपेरशन के बाद कुछ वक्त तक घर में झाड़ू पोछे का दायित्त्व मेरे कंधों पर था। कुछ समय बाद घर के झाड़ू पोछे के लिए घर में काम करने वाली महिला को रखा गया जो समय-समय पर बदलती रही। मसलन, 18 साल की लड़की से लेकर 70 साल की एक महिला और लगभग हर उम्र की महिलाएं हमारे घर पर झाड़ू पोछे का काम कर चुकी हैं।

मुझे याद है घर के सामने मौजूद वह सीवरेज सिस्टम जहां कई पुरुष उसके अंदर उतर कर मानव मल में एक तरह से भीगकर इस सीवरेज सिस्टम को साफ किया करते थे।

मसलन, गाँव का चीना, उसका भाई, उसकी माँ, मेरे शहर के घर में काम करने वाली महिलाएं और सीवरेज सिस्टम में उतरकर उसे साफ करते पुरुष, यह सारे किरदार देश के अलग-अलग प्रांत और समाज से हैं जिनकी दयनीय हालत के बारे में सवाल करने पर एक ही तरह के जवाब मिलते हैं कि यह सभी गरीब और अशिक्षित हैं।

अपने अधिकारों से वंचित होने के साथ-साथ इन्हें अपने अधिकारों की जानकारी भी नहीं है और ना ही कभी किसी सरकारी या गैर सरकारी संगठनों ने इनके प्रति कोई जागरूकता का अभियान चलाया है। अमूमन सारे घेरलू कर्मचारी, खेतिहर एवं दिहाड़ी मज़दूर और सीवरेज कर्मचारी दलित, पिछड़े एवं अति पिछड़े वर्गों से आते हैं।

दलित होने से अक्सर शिक्षा और रोज़गार में मौजूद आरक्षण ही हमारे ज़हन में अपनी दस्तक देने लगता है जो कि एक विवादित मुद्दा ही रहा है। इस आरक्षण से सामान्य कैटेगरी के लोगों को किसी भी तरह से लाभ ना मिलने के कारण अक्सर इसका विरोध किया जाता है जहां उनका तर्क होता है कि आरक्षण से समाज में जाति आधारित व्यवस्था में और अंतर बढ़ा है।

सामान्य कैटेगरी के लोग यह बताने में भी विफल रहे हैं कि आरक्षण के बिना किस तरह जात-पात, छुआछूत और ऊंच-नीच के अंतर को समाज से हटाया जा सकता है। वही आरक्षण के लाभार्थी और इसके पक्षधर भी यही कहने में अक्सर अभिमान महसूस करते हैं कि सिर्फ आरक्षण ही है जो समाज में जात-पात की खाई को पूर्णतः खत्म कर सकता है। वास्तव में समाज की ज़मीनी हकीकत क्या है, इसे ज़रूर समझने की ज़रूरत है।

घेरलू कर्मचारी और मज़दूर यह सब अशिक्षित हैं जिनकी इतनी भी आमदनी नहीं है कि यह अपने बच्चों को भी शिक्षित कर पाएं। वही सरकारी स्कूलों में होने वाली पढ़ाई का स्तर उस रूप में ना होना भी चिंता का विषय है। इन सबके बीच दलित वर्गों से आरक्षण के लाभार्थी व्यक्ति अपनी मूल जगहों से कहीं दूर रोज़गार की तलाश में पलायन करता है। यही वजह है कि गाँवों और कस्बों में शिक्षित नौजवानों की कमी होने के कारण अक्सर जात-पात में बटे समाज में पिछड़े वर्गों और दलीत समुदायों के हालात दयनीय ही बने रहते हैं।

वही शहरों में जात-पात का फर्क गाँवों की तुलना में ज़रूर कम होता है लेकिन यहां भी बनने वाले मकान, बिल्डिंग और सोसायटी हर जगहों पर जात-पात के नाम पर ही लोगों को रहने दिया जाता है। यहां तक कि शहर में किराए के मकान लेते समय भी मकान मालिक द्वारा किराएदार की जात-पात के बारे में जानकारी लेना अमूमन एक आम सा तथ्य है जिस पर हमें कहीं भी किसी भी तरह से कोई आपत्ति नहीं होती।

मसलन, शहरों में भी रोज़गार के क्षेत्रों में जात-पात के नाम पर समाज को बांटा जाता है। मोटर गैरेज, मकान बनाने वाले मज़दूर, गाड़ी धोने वाले, सफाई कर्मचारी, सब्जी बेचने वाले, इत्यादि सभी दलित समुदाय और पिछड़े वर्गों के लोग ही मिलते हैं। यहां भी गरीबी इतनी तो है कि महंगी शिक्षा प्राप्त करने में एक युवा अक्सर नाकामयाब ही रहता है।

अब जब शिक्षा ही नहीं है तब आरक्षण सारे समुदाय के लिए कैसे फायदेमंद हो सकता है? आरक्षण का लाभ भी शिक्षित दलित और पिछड़े वर्गों के कुल समाज के ज़्यादा से ज़्यादा 20 अथवा 30 प्रतिशत लोग ही ले रहे होंगे।

घर के सामने लगी नाम की प्लेट और गाड़ी के नंबर के साथ-साथ जात-पात में मौजूद गोत्र का लिखवाना सामाजिक प्रतिष्ठा का ही चिह्न है। ऐसे में हमें यह समझने की ज़रूरत है कि गाँवों के ज़्यादातर खेतों पर भी इसी समुदाय का कब्ज़ा है जिसके कारण ही ऊंची जाति के खेतों और उनके घरों में दलित और पिछड़े समुदाय के लोग मज़दूर बनकर रहते हैं।

यही गोत्र हैं जिनका ज़्यादातर कब्ज़ा गाँवों में मौजूद खेती की ज़मीनों पर हैं जिस कारण गाँव का दलित और पिछड़ा समुदाय अक्सर ऊंची जाति के खेतों और इनके घरों में मज़दूर या कर्मचारी बन कर ही रह जाता है। गाँवों में घटती ज़मीनें आज किसानों और ऊंची जाति के लोगों को गाँवों से पलायन करने के लिए मजबूर कर रही है।

वही ऊंची जाति के लोग भी आर्थिक परेशानी से गुज़र रहे हैं लेकिन छुआछूत, जात-पात, न्याय, समाजिक उपेक्षा, निम्न स्तर के रोज़गार, महिलाओं का शारीरिक शोषण जैसी चीज़ों से उनका वास्ता नहीं पड़ता है। मसलन, ऊंची जाति के एक गरीब और अशिक्षित व्यक्ति के लिए अपने जीवन में सुधार लाने की संभावनाएं बनी रहती हैं जिसका सबसे बड़ा कारण गोत्र है।

दलित ओर पिछड़े समुदाय के जीवन में किसी भी तरह के सुधार की संभावनाओं को पूर्णतः खत्म कर दिया जाता है। मसलन, जब तक जात-पात की ब्राह्मणवादी विचारधारा हमारे समाज मौजूद हैं जहां गोत्र ही ताकत का परिचय है, वहां कभी भी किसी भी तरह से घेरलू कर्मचारी जो कि ज़्यादातर दलित समुदाय से होते हैं, उनके हालातों में सुधार आए इसकी उम्मीद बहुत कम ही होती है।

अब जाति के आधार पर गोत्र की ताकत को समझना हो तो दिल्ली जैसे शहर में आइए जहां गाड़ी के नंबर की जगह गोत्र लिखा होता है। यहां कोई राजनीतिक पद, सरकारी नौकरी का दर्जा या व्यक्तिगत नाम नहीं लिखा जाता बल्कि गोत्र की मौजूदगी अपने आप में यह बयान कर रही होती है कि जातिवाद में गोत्र ही एक ताकत का प्रतीक है।

भारतीय राजनीति, सरकारी नौकरी और न्याय हर तरह की भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था इसी गोत्र की ताकत के अधीन रहती है। अब इसी संदर्भ में समझा जा सकता है कि खेतों में मज़दूरों की मेहनत का शोषण, कम मज़दूरी देना और यहां तक कि इन्हीं खेतों में पिछड़े वर्गों की महिला मज़दूरों का शारीरक शोषण कहीं भी एक अपराध की भूमिका में नही देखा जाता।

हमेशा अपराधी एक ऊंची जाति के गोत्र वाला नाम ही होता है लेकिन कभी गाँव, बस्ती, शहर, कस्बे और यहां तक कि घरों में चोरी होने पर पहला शक दलित या किसी पिछड़े वर्ग के व्यक्ति पर ही जाता है। मसलन, आज पिछड़ी जाति और दलित समुदाय से आ रहा मज़दूर, घेरलू कर्मचारी वर्ग जहां आर्थिक तंगी और समाजिक उपेक्षा का सामना कर रहा है वही समाज में इसकी छवि को अपराधी के रूप में भी देखा जाता है। इस छवि की रचना के पीछे ब्राह्मणवाद समाज की जातिगत व्यवस्था को समझने की ज़रूरत है।

मेरा गाँव सिख समाज की छवि में मौजूद है जहां किसान और खेतिहर मज़दूर दोनों ही सिख हैं। सिख धर्म में जात-पात का कोई स्थान नहीं है। गाँव में स्थित गुरुद्वारा साहिब में मौजूद पाठी जो किसी भी जाति से हो सकता है। वह गुरू ग्रंथ साहिब की पावन गुरबाणी को पढ़ कर पूरे गाँव को सुनाता है।

हमें भारतीय समाज में मज़दूरों ओर घेरलू कर्मचारियों के ज़मीनी हालात में सुधार करने के लिए ज़मीनी स्तर पर ब्राह्मणवाद की जातिगत व्यवस्था और व्यक्तिगत नाम में मौजूद गोत्र की ताकत को भारत के हर नागरिक द्वारा नकारने की बहुत ज़्यादा ज़़रूरत है। मुझे यह कहने में बिल्कुल भी शर्म नहीं है कि मेरी शिक्षा, आर्थिक और समाजिक हालात के लिए मेरे नाम में मौजूद गोत्र ही ज़िम्मेदार हैं और यही गोत्र चीना की दयनीय हालात के लिए भी ज़िम्मेदार है क्योंकि अगर मेरा जन्म भी गाँव के दूसरे हिस्से में होता जहां से चीना आता है तब यकीनन मेरे हालात भी आज चीना के हालात की तरह ही होते।

अब अंत में अगर हम कानून, कानून व्यवस्था और न्याय व्यवस्था को समझे तब यहां भी गोत्र अपनी ताकत रखता है। कोई चुनाव ऐसा नहीं हो सकता जहां एक राजनेता अपने गोत्र को त्याग कर चुनाव में विजयी होने का दम भरता हो। अब कानून को देखें तो बाल मज़दूरी के खिलाफ़ एक कानून बहुत पहले से मौजूद है लेकिन आज भी मुख्य शहरों में यहां तक कि किसी पुलिस स्टेशन के पास, मुख्य अदालत के नजदीक किसी दुकान या ढाबे पर कोई नाबालिक काम करता दिखाई देता है।

जब तक कानून का प्रयोग सख्ती से नहीं होगा तब तक किसी भी तरह से घरेलू कर्मचारियों, खेतिहर और सीवरेज मज़दूरों के ज़मीनी हालात में सुधार नहीं आ सकती। अगर कानून बनाकर इसे सख्ती से लागू करने में सरकारी व्यवस्था ईमानदारी दिखाती है और इसी संदर्भ में समाज में मौजूद जात-पात की गोत्र व्यवस्था में शहर से लेकर गाँव तक लोगों को जागृत किया जाए तब चीज़ें बदल सकती हैं।

वही घेरलू , खेतिहर और सीवरेज मज़दूरों को सरकारी नौकरी के स्तर पर मज़दूरी और मासिक अवकाश दिया जाए तब यकीनन इनके जीवन में तब्दीली आ सकती है।

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