19 जनवरी 1990 का वह खौफनाक मंज़र, दर्द भरी रात और मजबूरियों के आंसू जब कश्मीरी पंडितों को रोतों रात अपने घरों को छोड़कर भागना पड़ा था। कल्पना करने पर भी रूह कांप जाती है कि अगर हमारे घरों में आकर कोई यह कहे, “यह शहर या राज्य छोड़कर चले जाओ वरना मौत के घाट उतार दूंगा।”
वैसे हमारे देश में समय-समय पर हर वर्गों के साथ अत्याचार हुए हैं लेकिन ऐसा ज़ुल्म देश के शांत और बहुसंख्यक समाज पर पहली बार हुआ था। आज कहा जाता है कि देश के अल्पसंख्यक व मुसलमान ‘कट्टरपंथी हिन्दुओं’ के निशाने पर हैं मगर यह घटना बताती है कि कट्टरपंथी हर धर्म के लिए नुकसानदेह हैं।
ताज्जुब है कि इसमें अमेरिका और रूस का भी हाथ था
कश्मीर को लेकर हिंदुस्तान और पाकिस्तान में 1947 से ही जंग जारी थी। पाकिस्तान कभी मानने को तैयार नहीं था कि कश्मीर भारत का अखंड हिस्सा है। सन् 1980 में यह आग और सुलगी, रूस ‘अफगानिस्तान’ पर आक्रमण कर चुका था। जवाब में रूस को खदेड़ने के लिए अमेरिका ने वहां के मुस्लिम व बेरोज़गार लोगों को भड़काने का काम शुरू कर दिया।

इन सभी कर्मों से ‘मुजाहिदीन‘ का जन्म हुआ जिसकी ट्रेनिंग पाकिस्तान के कब्जे़ वाले कश्मीर पीओके में शुरू हुई। पाकिस्तान के जनरल जिया उर रहमान ने इसे समर्थन व प्रेरणा दी। वह मुसलमान को वहशी बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा था।
ऐसे लोगों पर जब पुलिस कार्रवाई हुई तब भारत का कश्मीर भी चपेट में आने लगा और कई युवा ‘मुजाहिदीन’ के सपंर्क में पकड़े गए। इस घटना ने कश्मीरी सियासत दरों और पाकिस्तान को यह कहने का मौका दे दिया कि कश्मीर के मुसलमानों पर भारत की पुलिस अत्याचार कर रही है। मुस्लिम एकता के संगठन बनने लगे और ‘हिन्दू मुक्त कश्मीर’ बनाने की कोशिश होने लगी जिसका खामियाज़ा 10% आबादी वाले कश्मीरी पंडितों को भुगतना पड़ा।
पंडितो को सत्ता और कश्मीर से दूर कर दिया गया
सन् 1986 में गुलाम मोहम्मद शाह अपने बहनोई फारूक अब्दुल्ला को सत्ता से हटाते हुए मुख्यमंत्री बन गए। सत्ता पर काबिज़ होते ही ऐलान कर दिया कि सिविल सेक्रेटरी एरिया में पुराने मन्दिरों को गिरा कर भव्य मस्जिद बनाई जाएगी। कश्मीरी पंडितों ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया जिसके बाद मुस्लिम कट्टरपंथियों ने पंडितो पर हमला शुरू कर दिया।

दंगे के कारण सरकार बर्खास्त कर दी गई और 1987 में फिर चुनाव हुए जहां कट्टरपंथी हार गए। आरोप लगाया कि चुनाव परिणामों में धांधली हुई है। एक नारा जोड़ दिया “मुस्लिम और इस्लाम खतरे में है, इसको बचाओ।”
1989 में भाजपा के नेता पंडित टिकलाल की हत्या कर दी गई और उनकी पत्नी का बलात्कार कर फेंक दिया गया। उसके बाद रिटायर्ड पंडित जज नीलकंठ गंजू की हत्या हुई। कुछ ही दिनों में ‘कश्मीर लिबरेशन फ्रंट’ बन गया और जगह-जगह कश्मीरी पंडितों की हत्या होने लगी। क्या बच्चे, क्या अमीर और क्या गरीब, किसी को नहीं बख्शा गया। यहां तक कि मीडिया चैनल के पंडित रिपोर्टर ‘लॉस कौल’ को भी मार दिया गया।
वह विज्ञापन जिसने पूरा कश्मीर जला दिया
4 जनवरी 1990 को कश्मीर के अखबार ‘आफताब’ में हिज़बुल का एक विज्ञापन छपा, “सारे कश्मीरी पंडित कश्मीर छोड़ दें, वरना मौत के ज़िम्मेदार खुद होंगे।” जगह-जगह मस्जिदों के लाउड स्पीकर से चिल्लाने लगे, “पंडित यहां से भाग जाओ,अपनी औरतों को छोड़ जाओ।”
“कश्मीर होगा हिन्दू मुक्त” और “पंडित औरत-नवाब आदमी” जैसे नारों के ज़रिए रातों रात जुलूस निकलने लगे। 18 जनवरी की रात घरों के बाहर पोस्टर चिपका दिए गए कि कल तक कश्मीर से साफ कर दिए जाओगे।
19 जनवरी 1990 को एक ही देश में सबसे बड़ा पलायन हुआ। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 60 हज़ार परिवारों से लगभग 4 लाख पंडितों ने अपना घर छोड़कर कश्मीर त्यागना बेहतर समझा।

आज इस घटना को 30 वर्ष हो गए हैं। सरकारें बदलती रहीं मगर ना तो उन गुनहगारों को सज़ा हुई और ना ही कश्मीरी पंडितों को पुनः उनका घर मिला। मोदी जी ने करोड़ों के पैकेज का ऐलान कर दिया लेकिन अभी तक कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए जिससे मासूम पंडितों को न्याय मिल सके।
इस घटना पर आज भी रोना आता है कि एक ही देश मे रहते हुए इस घटना ने धर्म की आग में कितनों को अंधा कर दिया। आज भी राजनीतिक रहनुमाओं द्वारा इन दंगों का फायदा सियासत करने के लिए किया जाता है मगर इसके दुष्प्रभाव की चेतावनी हमें इतिहास दे चुका है।
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