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“विपक्षी दलों ने रैली के लिए किसी भाजपा गढ़ का चयन क्यों नहीं किया?”

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पिछले कुछ दिनों से इस ठंड के मौसम में देश का सियासी तापमान लगातार बढ़ रहा है। शीतकालीन सत्र में उठे राफेल के मुद्दे और मोदी सरकार द्वारा सवर्णों को दिए गए 10 प्रतिशत आरक्षण के साथ ही सत्र की समाप्ति हुई।

इन सबके बीच हर ज़हन में यह सवाल उठता है कि क्या मोदी सरकार को सत्ता से  बेदखल किया जा सकता है? खैर, हर बार राजनीतिक पंडित और विपक्ष की सियासत करने वाले ‘विपक्षी एकता’ का राग अपनाते नज़र आते हैं। ऐसा संभव तो नहीं दिखाई पड़ रहा है कि नीति और सिद्धांतो को भूल कर तमाम विपक्षी दल एक हो जाएं।

ममता बनर्जी रैली
कोलकाता रैली। फोटो साभार: सोशल मीडिया

इसी तथाकथित एकता की हवा ने उत्तर प्रदेश के लिए दिल्ली में हुए “बुआ-बबुआ” के प्रेस कॉन्फ्रेंस के ज़रिए काँग्रेस को अपनी ताकत का एहसास कर दिया। यही एकता बंगाल की सीएम और तृणमूल काँग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी के नेतृत्व में कोलकाता पहुंच गई। हां, मैं उसी तृणमूल की बात कर रहा हूं, जिसकी दीदी ‘बंगाल की दादा’ है।

वह दीदी जो अकेले इतने सांसदों वाली पार्टी की एक क्षत्र मुखिया है। वहीं, प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब देखने वाली बसपा की बोस बहन जी ने सर्वाधिक चर्चित राज्य में गठबंधन कर चुनाव लड़ने की घोषण कर दी। जी हां, मायावती की बात कर रहा हूं जिन्होंने सपा के साथ गठबंधन करते हुए सभी को हैरान कर दिया।

राहुल और मायावती का रैली में ना जाना

इन सब के बीच शनिवार को कोलकाता में विपक्ष के इस चुनावी वर्ष का सबसे बड़ा जमावड़ा लगा जहां अलग-अलग पार्टियों से नेताओं ने हुंकार भरी। खैर, उसमें मेरी खास दिलचस्पी इसलिए भी नहीं दिखी क्योंकि पिछले 4-5 वर्षों में इस बात को कई बार हवा-हवाई होते देखा है। जी हां, “लालू-मुलायम-नीतीश” विलय भी।

राहुल गाँधी
राहुल गाँधी। फोटो साभार: Flickr

रविवार की सुबह अखबार पढ़ने के दौरान जब मेरी नज़रें कोलाकात की रैली पर गई तब देखा कि राहुल गाँधी ने खुद ना आकर अपने प्रतिनिधि को भेजा है। यह खबर पढ़ने के बाद मजबूरन मुझे इसके राजनीतिक मायनें निकालने पड़े। मैंने जब गौर करना शुरू किया तब पाया कि बहन जी भी नहीं गई थीं।

कोलकाता ही क्यों?

बहरहाल, मैं यह समझ चुका था कि विपक्षी एकता की तमाम बातें भाजपा को हराने से शुरू होती है मगर अपने आपको हारने नहीं देना चाहती है। हर तरफ विपक्ष की चर्चाओं के बीच जब सत्ता पक्ष को जगह ना मिले तब इसे ‘गोदी पत्रकारिता’ नहीं गोदी विश्लेषण कह सकते हैं।

विपक्ष के अंदर भाजपा को हारते देखने की चाहत ज़रूर है लेकिन रैली के लिए ऐसी जगह का चुनाव करना जहां भाजपा का कोई खास प्रभाव ही नहीं है, यह साफ बताता है कि भाजपा की ताकत कितनी बढ़ गई है।

चलते-चलते यह बात कह दूं कि इन सबके बाद भी अगर आपको भाजपा की ताकत मज़बूत नज़र नहीं आ रही तब नए सिरे से आपको राजनीति और राजनीतिक घटनाक्रमों को समझने की ज़रूरत है।

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