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“गाँधी की हत्या किसी दलित या आदिवासी ने की होती तब भी बचाव में तर्क गढ़े जाते?”

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कल 30 जनवरी को एक बार फिर “ब्राह्मणवाद” ने अपनी सबसे क्रूरतम लक्षण का प्रदर्शन किया था। एक हिन्दू-ब्राह्मण नाथूराम गोडसे द्वारा महात्मा गाँधी की हत्या की गई थी और अब हत्यारे नाथूराम गोडसे के पक्ष में तर्क गढ़े जा रहे हैं।

कई बार लोग पूछते हैं कि यह ब्राह्मणवाद क्या है? तमाम और चीज़ों के अलावा जब हत्या, हिंसा और शोषण के पक्ष में तर्क गढ़े जाने लगे तो उसी को ब्राह्मणवाद की समझ कहते हैं। ब्राह्मणवाद का इतिहास हत्याओं और शोषण के पक्ष में तर्क गढ़ने का इतिहास है।

शम्बूक की हत्या, और तमाम आदिवासियों, दलितों, अति पिछड़ों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को पीछे धकेलने के तर्क गढ़े गए। यहां तक कि गाँधी की हत्या का भी तर्क गढ़ा गया।

किसी दलित या आदिवासी ने गाँधी की हत्या की होती तो?

ऐसे में हम सबको यह सोचना चाहिए कि अगर गाँधी को किसी दलित, पिछड़ा, आदिवासी, मुसलमान, सिख और ईसाई आदि में से किसी ने मार दिया होता, तब क्या यही तर्क गढ़े जाते? यह मान लेने में कोई हर्ज़ नहीं है कि इन समुदायों को रोज़ हत्यारा कहा जाता।

खैर, एक क्षण के लिए आप गाँधी को हटाकर भी सोचिए तो क्या हत्या का कोई भी तर्क होगा? वह कैसे एक सभ्य समाज कहलाएगा जो हत्याओं और शोषण का तर्क गढ़ देगा?

क्या हम आज तक युद्ध में की गई हत्याओं के तर्क ढूंढ पाए हैं? क्या युद्ध कभी “धर्म-युद्ध” हो सकता है? दुनिया में ऐसा कोई युद्ध नहीं जिसे किसी भी तर्क से सही साबित किया जा सकेगा। वह शायद इसलिए क्योंकि युद्ध से बाहर निकलने के लिए ही राज्य की स्थापना की गई।

गाँधी की हत्या का तर्क किस आधार पर?

विडम्बना यही है कि जिस हत्या और शोषण के माहौल से हम बाहर निकलकर राज्य की स्थापना करते हैं उसी राज्य को हम “लेजिटिमेट वायलेंस” की शक्ति दे डालते हैं। राज्य के पास हत्या का तर्क आ जाता है और वह कभी किसी को फांसी दे देता है तो कभी युद्ध में चला जाता है।

महात्मा गाँधी
फोटो साभार: गूगल फ्री इमेजेज़

क्या हम जंगल से निकलकर समाज में इसलिए आये थे? मानव समाज में हत्या का कोई तर्क नहीं है। शायद हम कभी भी हत्या का तर्क नहीं ढूंढ पाए थे इसलिए हमने युद्ध की स्थिति को नकार दिया था। ऐसे में गाँधी की हत्या का तर्क किस आधार पर बनाया जा रहा है?

पूना पैक्ट 1932 के बारे में प्रोफेसर वेलेरिअन रोड्रिग्ज लिखते हैं कि इस पैक्ट के बाद गाँधी के खिलाफ ऑर्थोडॉक्स हिन्दू और मुसलमान दोनों ही प्रदर्शन कर रहे थे। अंबेडकर तो नाखुश थे ही और मोहम्मद अली जिन्ना ने यह तक कह डाला कि गाँधी के एक महान हिन्दू हैं। जिन्ना गाँधी की तारीफ नहीं बल्कि तंज कस रहे थे।

गाँधी से सीखनी चाहिए आंदोलनों को जोड़ने की कला

बहरहाल, यहां हम सब को एक बार रुकने और सोचने की ज़रूरत है। ऐसे दिन इतिहास के लिए नहीं बल्कि वर्तमान के लिए महत्वपूर्ण होते हैं। इस वर्तमान का यह 30 जनवरी इस समाज को इस दुनिया में रह रहे लोगों के लिए आत्ममंथन का दिन है।

गाँधी की अगुआई में यह देश ब्रिटिश हुकूमत से आज़ाद हुआ जिसमें कोई विरोधाभास नहीं है। इस अगुआई का कतई मतलब नहीं कि गाँधी ने बाकियों के योगदान को नकारा है बल्कि गाँधी ने छोटे-छोटे स्वतंत्रता आंदोलन और बिखरे हुए लोगों को एक किया और इन तमाम आंदोलनों को जोड़कर एक राष्ट्रीय आंदोलन की रूपरेखा बनाई।

महात्मा गाँधी
फोटो साभार: Getty Images

आज के आंदोलनकारियों को यह सीखने की ज़रूरत है कि हर आंदोलन को जोड़कर एक राष्ट्रीय आंदोलन में उसे तब्दील करना सबसे महत्वपूर्ण और कठीन कार्य है जिसे गाँधी ने कर दिखाया था।

गढ़े जा रहे हैं दकियानूसी तर्क

आज तो कोई यह तक भी कह जाता है कि गाँधी नहीं बल्कि ब्रिटिश हुकूमत कमज़ोर हो रही थी और उनसे उनके उपनिवेश संभल नहीं रहे थे, इसलिए भारत को उन्होंने आज़ाद कर दिया था। आखिर यह हम कैसे सोचने लगे हैं? जब हम गाँधी को नकारने के लिए यह सब दकियानूसी तर्क गढ़ेंगे फिर बाकी राष्ट्रीय आंदोलन के जांबाज़ों का क्या होगा?

दुनिया के उन तमाम संघर्षों का क्या होगा जो कुर्बानियां देकर लड़ी गई? बहरहाल, यह समझना ज़रूरी है कि गुलाम बनाने वाले कितने भी कमज़ोर हो जाए लेकिन वे अपने गुलामों को कभी आज़ाद नहीं करते, बल्कि गुलाम खुद ही गुलामी की जंज़ीर तोड़कर आज़ाद होते हैं।

गुलाम से ज़्यादा कमज़ोर तो गुलाम बनाने वाले कभी भी नहीं होते हैं। यह आज़ादी हमें लाखों, करोड़ों एवं वर्षों के बलिदान से ही मिली है। यह अंग्रेज़ों की कमज़ोरी नहीं बल्कि हमारी मज़बूती थी। हमारे अंदर एक ऐसी मानसिकता विकसित हो रही है जो हमें एक मुर्दा कौम में तब्दील करती जा रही है।

महात्मा गाँधी
महात्मा गाँधी। फोटो साभार: Getty Images

राम मनोहर लोहिया ने कहा था, “ज़िंदा कौम पांच साल इंतज़ार नहीं करती।” गाँधी ने इस देश को वर्षों तक एक जिंदा कौम बनाकर रखा। लगातार संघर्ष में रहना ही किसी कौम के ज़िंदा होने की निशानी है। गाँधी को मार दिया गया और एक जिंदा आदमी की हत्या कर दी गई।

दुनिया के महानतम वैज्ञानिक अल्बर्ट आईंस्टीन ने कहा था कि आने वाली पीढ़ियों को यह विश्वास दिलाना मुश्किल होगा कि कभी हाड़-मांस का एक ऐसा आदमी इस पृथ्वी पर आया था। आईंस्टीन ने कितना बड़ा सच कहा था। आज हिंसा करने वाले गाँधी को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं।

बहरहाल, आज हम सब गाँधी की हत्या पर शोक के साथ-साथ इस बात पर ज़्यादा सोचें कि कैसे इन तमाम सालों में हत्या के तर्क गढ़े गए हैं। हमें सावधान होना है क्योंकि इस तरह की दकियानूसी बातें इस देश के तमाम लोगों की हत्या का तर्क भी गढ़ देगा।

नोट: डॉ. दीपक भास्कर दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति पढ़ाते हैं।

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