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“पीएम मोदी द्वारा सफाईकर्मियों का पैर धोना लोकतंत्र की सबसे बड़ी हार है”

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प्रयागराज में चल रहे कुंभ में जिन सफाई कर्मचारियों की समस्या उठाने पर सामाजिक कार्यकर्ता अंशु मालवीय को पुलिस उठाककर घंटों थाने में बैठाए रखती है, कल उसी प्रयागराज में पीएम मोदी डुबकी भी लगाते हैं और सफाईकर्मियों के पैर भी धोते हैं।

यह घटनाक्रम केवल नाटक-नौटंकी भर नहीं है, बल्कि पीएम मोदी ने तमाम विश्लेषणों की जंग सोशल मीडिया पर तब तक के लिए छेड़ दी है, जब तक कोई और हेडलाइन ना बन जाए। खैर, हेडलाइन बनाने में उनका कोई सानी नहीं है।

मौजूदा समस्याओं से ध्यान हटाने की कोशिश

मूल समस्या को छोड़कर प्रतीकों के ज़रिये समस्या से ध्यान हटाने की कोशिश पहले भी उन्होंने की है। दूसरे शब्दों का सहारा लूं तो इस कला में वह काफी महिर हैं। नोटबंदी के समय जनता की तमाम परेशानियों को उन्होंने अपनी माँ की तस्वीर वायरल करके भटका दिया था।

नरेन्द्र मोदी
फोटो साभार: नरेन्द्र मोदी फेसबुक अकाउंट

मौजूदा वक्त में एक तरफ जहां तमाम सफाईकर्मी मैला ढोने और गटर में मिथेन गैस की वजह से मरने को मजबूर हैं, वहीं दूसरी ओर पीएम मोदी सफाईकर्मियों का पैर धोकर लाखों फॉलोवर्स के ह्रदय सम्राट तो बन ही गए हैं।

सोशल मीडिया पर प्रतिक्रियाओं का दौर

कुछ मित्रों ने सोशल मीडिया पर यह लिखा कि सफाईकर्मियों के पांव धोते प्रधानमंत्री का दृश्य उन्हें अच्छा लगा। कुछ ने राजनीति से उठकर देखने की नसीहत दी है, जबकि कुछ ने प्रतिकात्मक महत्व बताया है।

खैर, मुझे किसी के भी कुछ लगने या समझने से कोई आपत्ति नहीं है मगर इसके हासिल क्या है? हम सभी जान रहे हैं कि मौजूदा राजनीति में प्रतीकों और परशेप्शन का खेल खेला जा रहा है

पुरानी है यह परंपरा

महात्मा गाँधी के समय से लेकर मौजूदा समय तक कई दफा इस समुदाय के ज़रिये राजनीति की गई है। कभी मैला माथे पर ढोकर, कभी उनके घर खाना खाकर और अब उनके पांव धोकर किया जा रहा है। शायद पांव धोने की नई परंपरा भी शुरू हो जाए।

हमको यह भी नहीं भूलना चाहिए कि आज़ादी के बाद आज तक इस समुदाय के लिए संवैधानिक लोकतंत्र किताबों में ही है। इस समुदाय को ना तो जाति आधारित पारंपारिक कामों से मुक्ति मिली है और ना ही शिक्षित होने के बाद लोकतांत्रिक संस्थानों में भागीदारी करने पर कोई सम्मान ही मिला है।

लोकतंत्र की सबसे बड़ी हार

व्यक्तिगत रूप से प्रधानमंत्री का सफाईकर्मियों का पैर धोना कमोबेश 70 सालों के लोकतंत्र की सबसे बड़ी हार दिखती है। क्या सफाईकर्मी इतने तुच्छ हैं कि उनका पैर धोकर सम्मान किया जाए?

समाजवादी, अम्बेडकरवादी और काँग्रेसी सरकारों ने अगर इन्हें सम्मानजनक वेतन या सम्मान दिया होता, तब इन प्रतिकों के इस्तेमाल की ज़रूरत ही नहीं पड़ती।

इन प्रतीक चिन्हों का इस्तेमाल लोकतंत्र की असफलता का उदाहरण है। यह हमारे सिस्टम की असफलता है, जिसे सोशल मीडिया पर संवैधानिक लोकतंत्र की असफलता का उत्सव बनाया जा रहा है।

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