शुक्रवार को उच्चतम न्यायलय के समक्ष भारत के अटॉर्नी जेनरल के. के. वेणुगोपाल ने केंद्र सरकार का पक्ष रखते हुए कहा कि रक्षा मंत्रालय से राफेल डील से संबंधित कागज़ात चोरी हो गए हैं, जिसके कारण न्यायालय में उन्हें प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है।
वेणुगोपाल ने कोर्ट में कहा है कि ‘द हिन्दू’ ने जिन दस्तावेज़ों को प्रकाशित किया है, उस आधार पर राफेल सौदे की जांच नहीं होनी चाहिए क्योंकि ये सरकार की गोपनीय फाइलें हैं। वेणुगोपाल ने “ऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट 1923” का हवाला देते हुए ‘द हिन्दू’ की पत्रकारिता शैली पर सवाल उठाया है।
यह वाकई एक चौंकानें वाली बात है क्योंकि अगर सरकार की माने तो रक्षा मंत्रालय जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय में चोरी जैसी ‘अमर्यादित’ घटना हो गई है।
अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमला
मशहूर अंग्रेज़ी अखबार ‘द हिन्दू’ के अध्यक्ष एन राम ने कहा कि राफेल सौदे से संबंधित दस्तावेज़ों की रिपोर्ट हमने जनहित में प्रकाशित किए थे। हमने रक्षा मंत्रालय से दस्तावेज़ चुराए नहीं हैं। हमें ये दस्तावेज़ गोपनीय सूत्रों से मिले हैं और इस ब्रह्मांड में कोई ऐसी ताकत नहीं है जो मुझे यह कहने पर मजबूर कर सके कि दस्तावेज़ किसने दिए हैं।
उन्होंने कहा, “हमने जिन दस्तावेज़ों के आधार पर रिपोर्ट प्रकाशित की है, वह जनहित में हमारी खोजी पत्रकारिता का हिस्सा है। राफेल सौदे की अहम सूचनाओं को दबाकर रखा गया, जबकि संसद से लेकर सड़क तक इसे जारी करने की मांग होती रही।”

एन राम का कहना है कि उन्होंने जो भी प्रकाशित किया है, उसका अधिकार उन्हें भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) से मिला है। राम ने कहा कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सूचना के अधिकार का हिस्सा है।
उन्होंने कहा कि राष्ट्र सुरक्षा और उसके हितों से समझौते का कोई सवाल ही खड़ा नहीं होता है। लोकतांत्रिक भारत को 1923 के औपनिवेशिक गोपनीयता के कानून से अलग होने की ज़रूरत है। गोपनीयता का कानून औपनिवेशिक कानून है और यह गैर-लोकतांत्रिक है।
एन राम ने आगे बताया, “स्वतंत्र भारत में शायद ही किसी प्रकाशन के खिलाफ इस कानून का इस्तेमाल किया गया हो। अगर किसी तरह की जासूसी हो रही हो, तो वह अलग बात है। हमने जो छापा है, वह जनहित में है।”
डिजिटल युग में दस्तावेज़ कैसे चोरी?
गौरतलब है कि भारत ने अपनी वायुसेना के आधुनिकीकरण प्रोग्राम के तहत फ्रांस की दसो कंपनी से 8.7 अरब डॉलर में 36 राफेल लड़ाकू विमानों का सौदा किया था।
डिजिटल इंडिया के युग में इस बात पर यकीन करना बेहद मुश्किल है कि दस्तावेज़ चोरी हो गए। एक तरफ तो केंद्र सरकार डिजिटल इंडिया के नारे लगाती है तो दूसरी तरफ इनके वकील न्यायालय में यह कह रहें हैं कि राफेल सौदे से संबंधित महत्वपूर्ण कागज़ात चोरी हो गए।
‘एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया’ ने अटॉर्नी जनरल की टिप्प्णी की निंदा की है। एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया की तरफ से जारी किए गए बयान में कहा गया है कि सरकार गोपनीयता के कानून का हवाला देकर पत्रकार को स्रोत बताने पर मजबूर नहीं कर सकती है।
मेक इन इंडिया का मज़ाक उड़ाया गया
इतना ही नहीं सरकार की एक प्रमुख योजना ‘मेक इन इंडिया’ को भी इस सौदे में नज़रअंदाज़ किया गया है। देश की एकमात्र हवाई जहाज़ बनाने वाली कंपनी हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड को इस सौदे से दूर रखा गया। मोदी जी के साथ राफेल का सौदा करने अनिल अंबानी भी गए थे। इन सबके बीच अनिल अम्बानी ने पिछले ही महीने न्यायलय में दिवालिया होने की अर्ज़ी दी थी।
एक तरफ तो सबसे मुश्किल बात यह है कि अगर कोई भी किसी भी बात का सबूत सरकार से मांग ले या कोई प्रश्न ही पूछ ले तो वह देशद्रोही की श्रेणी में आ जाता है। अब देखना यह होगा कि क्या उच्चतम न्यायालय को भी सरकार से प्रश्न पूछने पर इस देश में देशद्रोही मान लिया जाएगा?
राफेल और भ्रष्टाचार
मुख्य विपक्षी दल काँग्रेस पहले ही सरकर से इस मुद्दे पर जवाब तलब कर चुकी है। काँग्रेस ने पूछा था यूपीए सरकार के वक्त एक राफेल की कीमत 526 करोड़ थी लेकिन मोदी सरकार ने एक राफेल 1570 करोड़ रुपये में खरीदी है।
यह सच है या नहीं, यह कौन बताएगा? इस नुकसान का ज़िम्मेदार कौन है? साल 2016 में फ्रांस में जो समझौता हुआ, उससे पहले सुरक्षा पर बनी कैबिनेट कमिटी से मंज़ूरी क्यों नहीं ली गई? क्या इस मामले में भ्रष्टाचार का केस नहीं बनता?

देश को 126 विमानों की ज़रूरत थी। मोदी गए और जैसे संतरे खरीदे जाते हैं, वैसे राफेल विमान खरीद लिए गए। नवंबर 2017 में रक्षा मंत्री ने कहा कि 36 रफाल इमरजेंसी में खरीदे गए। अगर ऐसा है तो समझौता होने के इतने महीनों बाद भी एक राफेल भारत को अब तक क्यों नहीं मिला?
काँग्रेस के इन सवालों पर सरकार की तरफ से कोई जवाब अब तक नहीं आया है। अब जनता के सामने अहम सवाल यह है कि क्या ‘ना खाऊंगा ना खाने दूंगा’ के नारें लगाने वाली सरकार ने मुनाफा खाया है या नहीं?
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