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क्या बिहार की राजनीति में आज भी प्रासंगिक है लालू का ठेठ अंदाज़?

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लोकसभा चुनाव 2019 की डुगडुगी बज चुकी है। देश में आचार संहिता भी लागू हो चुकी है। अलग-अलग पार्टियां और गठबंधन, सीटों के बंटवारे को लेकर जोड़-तोड़ करने में लगी हुई हैं। किस उम्मीदवार को, किस सीट से मैदान में उतारा जाए, इसको लेकर भी चुनावी गणित लगाए जा रहे हैं। इन सबके बीच पूरा बिहार अपने जिस नेता की कमी को, अलग-अलग कारणों से सबसे ज़्यादा महसूस कर रहा है, वह नेता हैं, राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव।

महागठबंधन के भीष्म पितामह बन गए हैं लालू-

राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव, फिलहाल चारा घोटाला मामले में सज़ायाफ्ता हैं और इलाज के लिए रांची के रिम्स अस्पताल में भर्ती हैं। यहां रोज़ लालू से मिलने वाले नेताओं और समर्थकों का तांता लगा रहता है।

अभी हाल ही में महागठबंधन के कई नेता, तेजस्वी यादव के साथ लालू से मिलने रिम्स पहुंचे। बताया जा रहा है कि महागठबंधन में सीट-बंटवारे को लेकर चले आ रहे लंबे विवाद को, इस मुलाकात के बाद सुलझा लिया गया है। तेजस्वी के साथ ‘रालोसपा’ के उपेंद्र कुशवाहा, ‘हम’ के जीतन राम मांझी और ‘वीआईपी’ के मुकेश साहनी ने भी लालू से मुलकात की है। ऐसा कहा जा सकता है कि अस्पताल में होने के बावजूद आज की तारीख में लालू ही बिहार में महागठबंधन के बड़े फैसले लेते हैं।

‘विकास पुरुष’ वाली नीतीश कुमार की छवि पर आज भी भारी है लालू का ‘ठेठ अंदाज़’-

Relevance of lalu yadav in bihar politics
फोटो सोर्स- Getty

नीतीश कुमार 2005 से लगातार बिहार के मुख्यमंत्री पद पर विराजमान हैं। इसके पीछे एक बड़ी वजह बताई जाती है, नीतीश की ‘विकास पुरुष’ वाली छवि। 2015 में जदयू महागठबंधन का हिस्सा बना लेकिन बाद में नीतीश ने भाजपा के साथ जाने का ऐलान कर दिया।

मज़ेदार बात यह है कि तब से लेकर आज तक राजद और जदयू के समर्थकों में इस बात को लेकर बहस होती रही है कि वोट नीतीश की वजह से आए या लालू की वजह से? बहरहाल, कारण जो भी रहा हो पर सबसे ज़्यादा फायदे में कॉंग्रेस रही थी, जिसके 27 उम्मीदवार विधानसभा पहुंच गए। यह बात भी शत प्रतिशत सच है कि नीतीश कुमार भले ही विकास पुरुष हो सकते हैं पर वह कभी लोकप्रिय नहीं बन पाए।

नीतीश को चुनाव जीतने के लिए विकास का रिपोर्ट कार्ड देना पड़ता है, वहीं लालू कभी विकास के मुद्दे पर चुनाव नहीं लड़े। उनका ठेठ देसी अंदाज़ ही, उन्हें चुनाव जीताने के लिए काफी था।

कॉंग्रेस का विकल्प रहे लालू, आज खुद कॉंग्रेस के साथ हैं-

आज भले ही लालू कॉंग्रेस के साथ खड़े हैं पर किसी ज़माने में लालू बिहार में कॉंग्रेस के खिलाफ एकमात्र चेहरा हुआ करते थे। लालू की पूरी राजनीति ही कॉंग्रेस के खिलाफ हुए जेपी आंदोलन के इर्द-गिर्द शुरू हुई।

यह उस दौर की बात है, जब जनसंघ (वर्तमान में भाजपा) की बिहार में कोई पूछ भी नहीं थी। नीतीश कुमार भी तब लालू के ही सिपहसालार हुआ करते थे। तब लालू ने चंद्रशेखर के राजनैतिक सूझबूझ का सहारा लेते हुए, बिहार में मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी। चंद्रशेखर तब देश के अलग-अलग हिस्सो में समाजवादी सरकारों के गठन में लगे हुए थे। चंद्रशेखर ने उस दौर में अपने परम शिष्य मुलायम सिंह यादव की भी सरकार, उत्तर प्रदेश में बनवाई थी।

लालू जितना प्यार मिलना मुश्किल-

फोटो सोर्स- Getty

उस दौर की राजनीति ने लालू को जो कुछ दिया, वो शायद ही आज के किसी नेता को मिले। नीतीश कभी लालू नहीं बन पाएंगे, क्योंकि नीतीश में मुख्यमंत्री पद का भाव है, तो वहीं लालू में माटी का लाल होने का गर्व था। नीतीश अप्रोचेबल नहीं हैं, तो वहीं लालू बेहद आसानी से मिलने वाले, अप्रोचेबल नेता रहे हैं। कोई भी, कहीं से भी उठकर लालू के साथ ‘खैनी पर चर्चा’ कर सकता था। लालू अपने ज़माने के जननेता हुआ करते थे। जनता उन्हें जेपी का उत्तराधिकारी मानती थी।

चुनावी राजनीति के मास्टर लालू-

लालू की राजनीति की यह विशेषता रही है कि उनके वोटर कभी बंटते नहीं हैं। लालू का माय (मुस्लिम-यादव) समीकरण आज भी भारतीय राजनीति का सबसे अचूक समीकरण है। जातिगत आधार पर लोगों का मैनेजमेंट कोई लालू से सीखे। लालू ने यादव, राजपूत और मुस्लिम समाज के वोटरों में अच्छी पकड़ बनाई है। भूमिहार वोट और अन्य पिछड़ी जातीयों के वोट में लालू ने कभी कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई। इस कारण से, कई बार उनका समीकरण गड़बड़ाया भी पर यह बात भी सच है कि कुर्मी एक पल के लिए नीतीश के खिलाफ जा सकते हैं लेकिन यादव कभी भी लालू के खिलाफ नहीं जाएंगे।

प्रख्यात हिंदी लेखक काशीनाथ सिंह अपनी किताब ‘उपसंहार’ में लिखते हैं, “एक दिन कृष्ण का भी ऐश्वर्य खत्म हो गया था”। कृष्ण तब सोचते थे कि वह अपनी प्रजा के लिए कुछ नहीं कर पा रहे हैं, यह महाभारत के बाद की कहानी है।

कृष्ण का राज भी उनकी आंखों के सामने डूबा था, लालू का राज भी उनकी आंखों के सामने डूब रहा है। यह भारतीय लोकतंत्र की ही खूबसूरती है कि एक मठा बेचने वाली का पुत्र मुख्यमंत्री बना और एक मुख्यमंत्री का पुत्र आज भी संघर्षशील है।

फिलहाल, इन लोकसभा चुनावों में यह देखना वाकई अहम होगा कि बिहारी वोटरों को महागठबंधन के उम्मीदवार रिझा पाते हैं या एनडीए के?

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