असंख्य छिटपुट हत्याओं और घटनाओं के अलावा बिहार ब्रह्मेश्वर मुखिया दलित कांड, गुजरात ऊना कांड और महाराष्ट्र कोरेगाँव कांड कुछ ऐसे ज्वलंत उदाहरण हैं, जो यह साबित करतें हैं कि इस देश में हिंदुओं (दलितों और पिछड़ों) के निर्विरोध विकास का दुश्मन हिन्दू ही रहे हैं। यह बात अलग है कि लोग मुसलमानों पर आरोप लगाते रहते हैं।
मंडल कमीशन के बाद गैर भाजपाई शासन और कद्दावर पिछड़े नेताओं के उद्भव ने इन सवर्ण स्तम्भों को बहुत हद तक कमज़ोर किया और इनकी अकड़ को ज़मीन पर ला पटका लेकिन वर्तमान हालात में हिंदूवाद का बुलंद होता परचम फिर से इनका फन ज़हरीला करता नज़र आ रहा है।
कहीं भी देख लीजिए, विभिन्न कट्टर हिन्दू संगठनों के मुखिया या नेता आपको को कोई ना कोई कट्टर सवर्ण ही मिलेगा। हिंदूवाद, हिन्दू राष्ट्र या आर्थिक आधार पर आरक्षण सिर्फ और सिर्फ दलितों के खिलाफ एक राजनैतिक षड्यंत्र के अलावा और कुछ भी नहीं है।

भाजपा हमेशा से एक सवर्ण मानसिकता की पार्टी रही हैं। यह आप मोदी साहेब के बनिया होने से तय ना करें बल्कि उन्हीं के द्वारा रोस्टर सिस्टम लाए जाने के एक असफल प्रयास और 10% आरक्षण जैसे निर्णयों से करें तो बेहतर होगा।
अगर कन्हैया कुमार और रविश कुमार के मुखड़ आवाज़ और जागरूक सोशल मीडिया तंत्र द्वारा रोस्टर सिस्टम पर आनन-फानन में चर्चाएं और जानकारियां ना फैलाई गई होती तो यह कानून लगभग लागू कर दिया जाता। यह ज़रूरी नहीं कि व्यक्ति दलित है तो उसकी सोच भी दलित होगी।
दलित नेता को देखकर लोग चिढ़ते क्यों हैं?
लोग दलित नेता की महंगी गाड़ियों वाली फोटो वायरल करतें है और तर्क देते हैं कि यह दलितों का नेता नहीं हो सकता है। मेरा सवाल कि क्यों नहीं..? क्या दलित का नेता माथे पर टट्टी लेकर आएगा तभी तुम उसको दलित का नेता मानोगे? वह दलितों की आवाज़ है साहेब, जिसे दलितों ने अपने खून पसीने की मेहनत से तुम्हारे महंगे तेवर के समकक्ष खड़ा किया है ताकि तुमसे नज़र मिला कर अपनों के लिए अधिकार मांग सकें।
मुझे यह बताइए कि दलितों का नेता फॉर्च्यूनर में चढ़ने वाला कोई व्यक्ति क्यों नहीं हो सकता? दरअसल, अभी दलित और बैकवर्ड नेताओं को महत्वहीन कर देने का भी दौर चल रहा है।
दलित नेताओं के साथ भेदभाव
लालू पर चारा चोर का शोर करने में पूरा सवर्ण सोशल मीडिया पर तुला है लेकिन उसी केस के आरोपी जगन्नाथ मिश्र को मीडिया में जगह नहीं मिलती और बाद में उसके आरोपो के लिए सबूत भी कम पड़ जाते हैं।
मुज़फ्फरपुर बिहार के 36 लड़कियों के शोषण पर हॉस्टल कांड के आरोपी की जाति कोई नहीं पूछता। हज़ारों करोड़ लेकर फरार विजय माल्या की जाति कोई नहीं पूछता, आईआईटी के बीटेक प्रोग्राम में टॉप करने वाली दलित बेटी की जाति कोई नहीं पूछता मगर अस्पताल में मरीज़ मर जाए तो सवर्ण सोच से प्रेरित लोग सोशल मीडिया तंज कसते हैं कि ज़रूर आरक्षण वाला डॉक्टर रहा होगा।
शहरों के हालात फिर भी ठीक हैं
आज जातिगत भेदभाव का रूप भी बदला है। ठेठ गाँवों में आज भी वही दमन प्रभावी भेदभाव व्याप्त हैं लेकिन थोड़े विकसित गाँव या छोटे शहरों में भेदभाव का स्वरूप भी थोड़ा विकसित हो गया है। मसलन, अब छोटे शहरों में खाने, छूने और साथ रहने में बड़े पैमाने पर जात-पात नहीं देखा जाता है।
लोग उसी का उदाहरण देकर ढिंढोरा पीटने लगते हैं कि जातिवाद खत्म है, अब आरक्षण हटा दो लेकिन हकीकत बताऊं तो आज भी ब्लॉक या नगर पंचायत में जाति को नहीं बल्कि गरीबी को आधार मानकर कोई कोष या छात्रवृत्ति आती है, कोई पद रिक्त होता है या कोई अवसर उपलब्ध होता है, तो कुर्सी पर बैठे दुबे जी सबसे पहले पांडे जी या मिश्रा जी के बेटा को इसकी सूचना भेजते हैं।
अब आप खुद सोचिए आरक्षण है, तभी तो उन अवसरों में कुछ हिस्सा पिछड़ों के लिए सुनिश्चित हो पाता है, नहीं तो आपस में ही बंदरबांट हो जाए। निजी उदाहरण नहीं देना चाहता था मगर फिर भी एक संस्मरण लिख दूं कि मेरे हाई स्कूल में दसवीं में टॉप करने वालें तीनों छात्र बैकवर्ड क्लास से थे मगर फिर भी ज़िला स्तर पर स्कूल को प्रतिनिधित्व करने की बारी आई तो एक सवर्ण के लड़के को भेजा गया।
दलितों के अवसर को खत्म करने की साज़िश
जातिवाद का यह कीड़ा किस तरह से पिछड़ों और दलितों का अवसर खाए जा है, यह समझना दो चार घंटे का काम नहीं है। खाने की थाली में जातिगत भेदभाव तलाशेंगे तो जातिवाद नहीं दिखेगा आपको मगर उसी को सच मान कर हिन्दुस्तान की मिट्टी में जातिवाद को नकार देने से बचिए।
जातिवाद हमेशा अवसरों और वर्चस्व की छीना झपटी में व्याप्त रहा है, चाहे उसका प्रकार जैसा भी हो। सीधी और साफ भाषा मे कहूं तो “जब आप किसी को अपने बगल की कुर्सी पर उसकी जाति देख कर नहीं बैठने देना चाहते, तब उस वंचित के लिए संविधान को एक कुर्सी अपनी तरफ से लगानी या खाली करवानी पड़ती है, जिसे आरक्षण कहतें हैं।
अगर वक्त और साधन सक्षम है तो कुर्सी लगाई भी जा सकती है मगर साधन सीमित होने पर कुर्सी खाली करवानी पड़ेगी जिसे आप सवर्णों का हक मारना कहते रहते हैं। यही न्यायसंगत और तार्किक भी है।
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