बच्चों के पास वोट देने का अधिकार नहीं होने के कारण वह आम चुनावों के राजनीतिक घोषणा-पत्र का हिस्सा नहीं बन पाते? वह बच्चे जिनके कंधों पर देश का उज्जवल भविष्य टिका है।
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के जन्मदिन 14 नवंबर घोषित होने के बाद बाल दिवस हर स्कूल के लिए रूटीन दिवस तो जरूर बन गया मगर बाद की सरकारों ने बच्चों के प्रति अपनी सारी संवेदना संविधान के कानूनी व्याख्या के भरोसे छोड़ दी फिर कभी सुध नहीं ली।
बचपन में चुनावों के प्रचार के समय रिक्शा, टांगा या किसी प्रचार गाड़ी पर लाउडस्पीकर का भौंपू पार्टी के उम्मीदवारों का प्रचार, झीगल बजाकर करता था। जिसमें से कुछ झीगल याद हो जाते थे और हमलोग उसे बार-बार गुनगुनाते थे। जिससे जाने-अनजाने में हम भी किसी उम्मीदवार का प्रचार कर रहे होते थे।
राजनीतिक दलों को बच्चों में रूचि नहीं
आज जब सोचता हूं तो एक सवाल मन में बार-बार उठता है कि खेल-कूद में ही सही लेकिन राज़नीति में मैं रूचि तो दिखा रहा था। राज़नीतिक दलों की बच्चों के प्रति उस वक्त भी कोई रूचि नहीं थी और आज भी नहीं है।
ध्यान से देखें तो वोट ना देते हुए भी बच्चे अपने माता-पिता को राजनीतिक पार्टियों के पक्ष में मतदान करने के लिए प्रेरित ज़रूर कर सकते हैं। बच्चों के बेहतर भविष्य के हक में बनी नीतियां या घोषणाएं माता-पिता या अभिभावकों को राजनीतिक दलों के हित में मतदान करने के लिए रिझा सकती है। अपने बच्चों के हित में ही हर माता-पिता का श्रम, सोच और विचार होता है।
विज्ञापनों में बच्चों का इस्तेमाल
बच्चों से मिलने वाले इस लाभ को कारपोरेट कंपनियों ने बहुत पहले समझ लिया था कि बच्चे अपने माता-पिता की राय को प्रभावित कर सकते हैं। बच्चों पर आधारित म्यूज़िकल और डांस शोज़ मनोरंजन उद्योग के लिए आमदनी और टीआरपी के दौड़ में अव्वल रहने का साधन है। कई विज्ञापनों में भी बच्चों का इस्तेमाल हो रहा है।

बच्चों को एक मूल्य के रूप में स्थापित करने में विज्ञापनों का बहुत बड़ा हाथ है। जिसका इस्तेमाल चुनाव आयोग ने पिछले कुछ विधानसभा चुनावों में बच्चों से माता-पिता को पत्र लिखवाकर मतदान करने के लिए प्रेरित करने के लिए किया भी है। जिसकी आशा अनुरुप सफलता मतदान में देखने को मिले।
बच्चों के हित के मामले कटघरे में
मैं इस बहस में नहीं उलझना चाहता कि हर रोज़ हो रहे बदलावों का बच्चों पर क्या असर पड़ रहा है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 से 32 तक बच्चों के हितों और कानूनी संरक्षण की बात कही गई है।
हम यह भी जानते हैं कि इन कानूनी मान्यताओं और व्याख्याओं के अनुसार जितनी भी सामाजिक संस्थाएं हैं वह बच्चों के हित के मामलों में कटघरे में खड़ी रहा करती है।
बच्चों के भविष्य के लिए कोई योजना नहीं
बच्चों के साथ स्कूल में घट रही अमानवीय घटनाएं आए दिन सुनने को मिलती हैं, तब सरकार या राजनीतिक दल बच्चों को राष्ट्र की संपत्ति मानते हुए संवेदनशील क्यों नहीं हो सकती है? क्या बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए तमाम राजनीतिक पार्टियों के पास कोई भावी योजनाएं या ब्लू प्रिंट नहीं होनी चाहिए?
कुछ दिनों पहले बिहार की राजधानी पटना में नशे में धुत एक पिता का अपनी बेटी पर प्रताड़ना का वीडियो वायरल हुआ और शिकायत के बाद पिता को गिरफ्तार किया गया। बच्ची को माँ के पास भेजने की कोशिश नागरिक समाज के लोगों ने की।
जब भी स्कूलों में बच्चों के खिलाफ शोषण की खबरें सामने आती हैं, नागरिक समाज सक्रिय हो जाता है और स्कूल प्रशासन कटघरे में आ जाता है। इस तरह की घटनाएं बताती हैं कि समाज और सामाजिक संस्थाओं को बच्चों के प्रति संवेदनशील होने की ज़रूरत है।
बच्चों के प्रति संवेदनशीलता का ढकोसला
हर माता-पिता बच्चों पर होने वाले शोषण पर मुखर होकर अपनी अभिव्यक्ति करता है मगर बेहतर समाधान नहीं मिलने के कारण अपने बच्चों की सुख-सुविधा में व्यस्त हो जाता है, क्योंकि पूरा-का-पूरा ढांचा बच्चों के प्रति संवेदनशीलता का ढकोसला करके अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त होना चाहता है।
अपने देश में क्या बच्चे कभी सामाजिक या राजनीतिक ज़िम्मेदारी का हिस्सा बन सकते हैं? इस दिशा में बदलाव लाने के लिए शुरुआत करने की ज़रूरत है।
आज अगर इस दिशा में शुरुआत की जाए तो शायद आने वाले दिनों में यह संभव हो कि बच्चों की समस्याएं राष्ट्र और सरकार की समस्याएं भी बन पाएं। इस दिशा में सफलता ज़रूर मिलेगी क्योंकि शायद ही कोई अभिभावक या माता-पिता होंगे जो बच्चों के हितों के लिए संवेदनशील ना हों।
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