29 अप्रैल को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की पश्चिम बंगाल के रायगंज में चुनावी सभा थी। अमित शाह ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पर जमकर बरसते हुए कहा कि पूरे बंगाल में ममता बनर्जी लोगों पर उर्दू थोपना चाहती हैं। यहां बंगाली भाईयों पर भी उर्दू थोपना चाह रही हैं।
अमित शाह जी शायद उर्दू को सिर्फ मुसलमानों की ज़़ुबान समझते हैं। उनको यह नहीं पता कि उर्दू संस्कृत की औलाद है। उनके उर्दू से नफरत करने की वजह शायद यह है कि उर्दू पाकिस्तान की राष्ट्रीय भाषा है और भारत में यही भाषा मदरसों में शिक्षा का माध्यम है।
मैं पूछता हूं, शाह जी उत्तर भारत का कौन ऐसा निवासी है, जो उर्दू ना बोलता हो, उर्दू के शब्दों का प्रयोग किए बिना बोलता हो और यहां तक कि आप खुद और आपकी पार्टी के लोग भी इससे अछूते नहीं रहे होंगे। उत्तरी भारत के लोग जो हिंदी और उर्दू भाषा का मिल जुला प्रयोग करते हैं, इसे ही मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने ‘हिंदुस्तानी भाषा’ कहा है।

आपका ममता बनर्जी पर यह आरोप है कि वह बंगालियों पर उर्दू भाषा थोप रहीं हैं। मैं उनका बिल्कुल भी बचाव नहीं करूंगा लेकिन यह ज़रूर कहूंगा कि मैंने उनको खुद को उर्दू की बजाए बंगाली बोलते ही सुना है और रही बात भाषा और संस्कृति थोपने की, तो शाह जी यह काम भाजपा, आरएसएस और दक्षिणपंथी संगठनों का है।
दक्षिण के राज्यों पर हिंदी भाषा थोपने का प्रयास क्या हमारे देश में नहीं हुआ? क्या आप पेरियार का ब्राह्मण-विरोधी या द्रविड़ आन्दोलन भूल गए हैं? मुझे किसी भाषा से नफरत नहीं है क्योंकि मैं जानता हूं भाषा सिर्फ अपनी भावनाओं को प्रकट करने का माध्यम मात्र है। इसे नेताओं को अपनी ओछी राजनीति का ज़रिया नहीं बनाना चाहिए|
अगर संघ उर्दू को मुसलमानों की भाषा मानता है, उस हिसाब से संस्कृत अगर हिन्दुओं की भाषा हुई, तो क्या मुसलमानों पर संस्कृत ज़बरदस्ती नहीं थोप दी जाती है? 9वीं कक्षा से हिन्दी के साथ एक पेपर संस्कृत का होता है, जिसे अनिवार्य रूप से सभी छात्रों को पढ़ना पड़ता है। हमें संस्कृत इस कारण ही पढ़ना पड़ता है क्योंकि इसे भारतीय भाषाओं की जननी कहकर हिन्दी के साथ हमें दे दिया जाता है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 28 में इसका वर्णन है कि किसी भी सरकारी विद्यालय में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी। हमने तो यूपी बोर्ड की किताबों में गीता के श्लोक पढ़े हैं। प्राइवेट और सरकारी स्कूलों का पाठ्यक्रम लगभग एक ही होता है। जब मैंने अपनी किताबो में गीता के श्लोक पढ़े, तो सरकारी विद्यालयों की किताबों में भी यह श्लोक होंगे। गीता हिंदुओं की धार्मिक पुस्तक है और हमको गीता के श्लोक यह कहकर पढ़ने को दिए जाते हैं कि यह प्राचीन भारतीय दर्शन और साहित्य हैं।
हमे हिंदी में रामचरितमानस के दोहे और चौपाई पढ़ाए गए हैं। हमें कृष्ण की बाल लीलाएं पढ़ाई गई हैं। हमने कृष्ण से गोपियों का वियोग पढ़ा है। यहां तक कि मैंने कृष्ण और गोपियों के प्रेम पर लिखा भी है। कृष्ण और राम हिंदुओं के देवता हैं, शाह जी! हम मुसलमानों को यह क्यों पढ़ाए जाते हैं फिर?
शाह जी, आपने मौलाना हसरत मोहानी, जो कि स्वतंत्रता सेनानी के साथ-साथ उर्दू के शायर भी थे, उनका नाम नहीं सुना होगा। ऐसे समझ लीजिए कि वह उर्दू के सूरदास या रसखान थे। एक मौलाना होने के बावजूद उन्होंने कृष्ण पर लिखा और वह भी उर्दू में।
चलिए हम बता ही देते हैं कि हम संस्कृत में गीता के श्लोक और हिंदी में राम और कृष्ण को क्यों पढ़ते हैं क्योंकि हम मुसलमान होने से पहले भारतीय हैं। हमारी भारतीय संस्कृति यही है, “सबकी मिली जुली संस्कृति और भाषा।”
खैर, संघ के लोग यह नहीं समझेंगे। मैं फिर से वही कहूंगा कि भाषा सिर्फ भावनाओं को प्रकट करने का माध्यम मात्र है। इससे बढ़कर कुछ भी नहीं।
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