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कुपोषण और भूख से बेहाल आदिवासी समुदाय की समस्याएं चुनावी मुद्दा क्यों नहीं?

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झारखंड झाड़ियों का एक भूखंड है। यह वही झारखंड है, जहां पर आदिवासी आदि काल से रहते आए हैं। उनके लिए देवता और माता-पिता सबकुछ यह भूमि ही है। उनकी पूरी ज़िंदगी ज़मीन से ही जुड़ी हुई है।

इतिहास गवाह है कि जब अंग्रेज़ों ने झारखंड में आदिवासियों की ज़मीनों पर कब्ज़ा करना चाहा तो आदिवासियों ने इसका खुल कर विद्रोह करते हुए और ‘माँ, माटी और मानुष’ को ही सर्वोपरि मान कर अपने अस्तित्व की लड़ाई को बुलंद किया।

साफ पानी, भोजन और मूलभूत सुविधाएं नदारत

इनके कठिन संघर्षों और कुर्बानी का ही परिणाम है कि आज हमें भूमिगत खनिज सम्पदा से संपन्न झारखंड राज्य मिला है। कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां झारखंड में प्रोजेक्ट लगाती हैं मगर जिस आदिवासी समुदाय ने धरती के खनिज संपदाओं को अंग्रेज़ों से लोहा लेकर बचाए रखा, उन्हें इसके बदले क्या मिला? क्या उन आदिवासियों के हक में यह भी नहीं कि उन्हें साफ पानी, भोजन और मूलभूत सुविधाएं दी जा सके?

हाशिए पर आदिवासी समुदाय

भारत की आज़ादी के 70 साल से अधिक बीत गए। हमें गर्व है कि हमारा देश चांद पर पहुंच गया है। हमें गर्व है कि हमारा देश तरक्की कर रहा है और हम शक्तिशाली राष्ट्रों की सूची में आते हैं। इसके बावजूद यह दु:ख की बात है कि धरती में जो रत्नों के भंडार भरे हैं, उनको सुरक्षित रखने वाला हमारा आदिवासी समुदाय ही आज हाशिए पर है।

आदिवासी समुदाय
फोटो साभार: संग्राम झारखंड

किसी सरकार ने आदिवासियों के हित में आज तक कोई मज़बूत और प्रभावी योजना नहीं बनाई। कुछ कानून हमारे देश में हैं मगर देखा जाए तो उन कानूनों को अंग्रेज़ों ने इस समुदायों की भावनाओं को समझ कर बनाया और उसका पालन भी करवाया। उन कानूनों में अहम है 1908 में छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट और संथाल परगना टेनेंसी एक्ट

आदिवासियों को वन अधिकार कानून का लॉलीपॉप थमा दिया गया

एक लंबी लड़ाई और अपने हक की मांग करने पर हमारी सरकार ने आदिवासियों के हित में 2005 में उन्हें वन अधिकार कानून का एक लॉलीपॉप थमा दिया, जिसमें कई अड़चनें थीं। इस कानून को पुनः संशोधन करके 2009 में पास किया गया, जिसके बाद फिर आदिवासी समुदाय के साथ एक बड़ा अन्याय हुआ क्योंकि इस कानून के तहत उन्हें पर्याप्त ज़मीन नहीं दी गई और उन्हें कई तरह के फर्ज़ी मुकदमों में फंसाया गया।

सबका साथ-सबका विकास के नारों के बीच आदिवासियों की स्थिति

अब हम 2014 से एक ऐसे देश में रह रहे हैं, जो विकासशील से विकसित की श्रेणी में आ खड़ा हुआ है। इस विकास की आंधी में एक राष्ट्रीय नारा बहुत ही लोकप्रिय रहा ‘सबका साथ-सबका विकास’ मगर उस नारे की सार्थकता तब खत्म हो जाती है, जब बात आदिवासियों के हक और उनके अधिकारों की हो।

यह सरकार आदिवासियों के हित में बने वन अधिकार कानून को सुलभ नहीं बना पाई। इस सरकार ने उल्टा इस कानून को ही कटघरे में ला खड़ा किया, जहां हाल ही में लाखों आदिवासियों के बेघर होने की नौबत आ गई थी।

योजनाओं की कमी

आदिवासियों के हित में कोई प्रभावी योजना नहीं होने के कारण झारखंड में भुखमरी के कई मामले सामने आए हैं। छतीसगढ़ में आदिवासियों को नक्सली बता कर उन्हें जान से मारने के भी कई गंभीर मामले सामने आए। भूख, कुपोषण और रोज़गार के साथ आवास के लिए जद्दोजहद करता आदिवासी समुदाय आज के आधुनिक भारत में हाशिए के उस कोने में खड़ा है, जहां से उसके विकास के सारे रास्ते बंद पड़े हैं।

इस साल देश में चुनाव हो रहे हैं। कई बड़े-बड़े वादों की झड़ी लगा दी गई है। देश में विश्वविद्यालय खोलने से लेकर किसानों को पेंशन देने की बात, 370 हटाने से लेकर देशद्रोह के कानून में बदलाव लाने की बात राजनीतिक दलों द्वारा की जा रही है। क्या भारत में भूख, कुपोषण, शिक्षा और रोज़गार से जूझते आदिवासियों के हितों को लेकर किसी राजनीतिक दल ने वादा किया है?

ज़मीन, आदिवासी समुदाय की एक पहचान है। उसके बिना उनके लिए हर चीज़ अधूरी है। उसे सुदृढ़ करने के लिए राजनीतिक दलों के पास कोई योजना है? क्या देश में वन अधिकार कानून में संशोधन करते हुए हुए ईमानदारी के साथ ज़मीन पर लागू करने के लिए कोई लिए राजनीतिक दल आगे आ रहा है? आदिवासी किसानों को उनकी ज़मीन पर उनका हक दिलाने की गारंटी कौन सा दल कर रहा है? हमें आदिवासियों के मुद्दों को चुनावी मुद्दा बनाना पड़ेगा।

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