Quantcast
Channel: Politics – Youth Ki Awaaz
Viewing all articles
Browse latest Browse all 8261

जलियांवाला बाग हत्याकांड: 100 साल बाद भी नहीं मिटे हैं ज़ख्मों के निशान

$
0
0

13 अप्रैल को जलियांवाला बाग नरसंहार हुआ था। इस नरसंहार ने भारतीय क्रांतिकारियों में आज़ादी की ज्वाला को और भी अधिक भड़का दिया और आज़ादी की लड़ाई को नया रंग दिया। इस जघन्य हत्याकांड ने विश्व को स्तब्ध कर दिया था। इस घटना ने देश के स्वाधीनता आंदोलन की दिशा ही बदल दी थी।

यह भारत के पंजाब प्रांत के अमृतसर में स्वर्ण मंदिर के निकट जलियांवाला बाग में 13 अप्रैल 1919 के दिन हुआ था। बैसाखी के दिन लोगों ने रॉलेट एक्ट का विरोध करने के लिए एक सभा बुलाई थी। तभी अंग्रेज़ अधिकारी और सैनिकों ने बाग को चारों ओर से घेर कर बाग में मौजूद लोगों को खुले आसमान के नीचे कैद कर दिया। जनरल डायर नामक एक अंग्रेज़ अफसर ने बिना किसी चेतावनी के ही उस सभा में उपस्थित लोगों पर गोलियां चलवा दी।

माना जाता है कि सैनिकों ने मात्र 10 मिनट में ही मासूमों पर करीब 1650 राउंड गोलियां दाग दी। यह भी कहा जाता है कि अपनी जान बचाने के लिए बहुत लोग कुंए में भी कूद गए थे, जिसमें लगभग 1000 से अधिक व्यक्ति मरे और 2000 से अधिक घायल हुए।

आज भी अमृतसर के डिप्टी कमिश्नर कार्यालय में 484 शहीदों के नामों की सूची मौजूद है, जबकि जलियांवाला बाग में कुल 388 शहीदों की सूची लगी है। वहीं, दूसरी तरफ ब्रिटिश राज के अभिलेखों में इस घटना में केवल 200 लोगों के घायल होने और 379 लोगों के शहीद होने की बात स्वीकार की गई है, जिनमें से 337 पुरुष, 41 नाबालिग लड़के और एक 6 सप्ताह का बच्चा था। अनाधिकारिक आंकड़ों के अनुसार 1000 से अधिक लोग मारे गए और 2000 से अधिक घायल हुए।

जनरल डायर ने अपने बचाव में कहा कि कुछ भारतीयों ने हमारे ऊपर हमला किया था, जिसके जवाब में हमने उन पर हमला किया। यह घटना ब्रिटिश हुकूमत के काले अध्‍यायों में से एक है और दर्शाती है कि अपने साम्राज्यवादी विचारधारा के कारण मानवतावादी मानसिकता को दरकिनार करते हुए यह हुकूमत पूरे विश्व मे खूनी संघर्ष करता रहा।

इस हुकूमत के खिलाफ किसी ने बोलने की हिम्मत नहीं की क्योंकि यह कहा जाता था कि पश्चिम का सूर्य कभी अस्त नहीं होता है। भारत में अंग्रेज़ व्यापार की भावना से आए थे लेकिन लालच और पूंजीवाद की व्यवस्था तथा औपनिवेशिक सत्ता कायम रखने के लिए ऐसे ही लाखों भारतीयों का खून बहाते रहे, जिसका जलियांवाला बाग हत्याकांड प्रत्यक्ष प्रमाण है।

क्या था रॉलेट एक्ट?

रॉलेट एक्ट को भारतीयों ने काला कानून कहा था। यह कानून मार्च 1919 में भारत की ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत में पनप रही आज़ादी की क्रांति को कुचलने के उद्देश्य से बनाया गया था। यह कानून सर सिडनी रौलेट की अध्यक्षता वाली सेडिशन समिति की सिफारिशों के आधार पर बनाया गया था।

इस कानून के अनुसार ब्रिटिश सरकार को यह अधिकार प्राप्त हो गया था कि वह किसी भी भारतीय पर अदालत में बिना मुकदमा चलाए उसे जेल में बंद कर सकती है। इस कानून के लागू हो जाने के बाद लोगों को यह भी जानने का अधिकार नहीं था कि किसने उनके खिलाफ मुकदमा दायर किया है। इस कानून के विरोध में पूरे देश में हड़ताल, जुलूस और प्रदर्शन होने लगे।

गाँधी जी ने भी व्यापक हड़ताल का आह्वान किया। उन्होंने सत्याग्रह में उन लोगों को भी शामिल कर लिया जिन्हें होम रूल लीग ने राजनीतिक रूप से जागरूक बनाया था। 13 अप्रैल को जब सैफुद्दीन किचलू और सत्यपाल को ब्रिटिश शासन ने गिरफ्तार कर लिया, तब उसके विरोध में जलियांवाला बाग में हज़ारों लोगों की भीड़ इकट्ठा हुई।

अमृतसर में तैनात फौजी कमांडर जनरल डायर ने उस भीड़ पर अंधाधुंध गोलियां चलवाई, जिसमें हज़ारों लोग मारे गए। भीड़ में महिलाएं और बच्‍चे भी थे। हम यह कह सकते हैं कि यह एक प्रायोजित हत्याकांड था।

कौन थे सैफुद्दीन किचलू और सत्यपाल?

सैफुद्दीन किचलू का जन्म पंजाब के अमृतसर में 15 जनवरी 1888 को हुआ था। वह उच्च शिक्षा के लिए विदेश चले गए और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री, लंदन से बार एंड लॉ की डिग्री तथा जर्मनी से पीएचडी की डिग्री प्राप्त की। उसके बाद 1915 में वह भारत वापस लौट आए।

सैफुद्दीन किचलू एक स्वतंत्रता सेनानी और राजनेता थे। इन्होंने ही पंजाब में भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस का आयोजन किया। किचलु ने ही पूरे पंजाब में रॉलेट एक्ट के विरोध की अगुवाई की थी। इसके लिए उन्हें जेल भेज दिया गया था। उनके समर्थन में लोग जलियांवाला बाग में एकत्रित हुए और मारे गए।

किचलू नेहरू जी के काफी करीबी माने जाते थे फिर भी वह भारत के विभाजन के पूरी तरह खिलाफ थे। किचलू को 1952 में स्टालिन शांति पुरस्कार (अब लेनिन शांति पुरस्कार के रूप में जाना जाता है) से सम्मानित भी किया गया था। 9 अक्टूबर 1963 को इनकी मृत्यु हो गई।

डॉ. सत्यपाल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं में से एक थे। अप्रैल 1919 में इनको भी किचलू के साथ रॉलेट एक्ट के विरोध में भाषण देने के कारण ब्रिटिश सरकार द्वारा गिरफ्तार करके जेल भेज दिया गया था, जिसके विरोध में जलियांवाला बाग में लोग इकट्ठा हुए थे।

जलियांवाला बाग हत्याकांड
जलियांवाला बाग हत्याकांड

100 साल बीतने के बाद ब्रिटिश प्रधानमंत्री ‘थेरेसा मे’ ने जलियांवाला बाग हत्याकांड के लिए खेद व्यक्त किया और इसे ब्रिटिश भारतीय इतिहास के लिए शर्मनाक धब्बा बताया। हालांकि उन्होंने पूर्ण माफी नहीं मांगी। इस पर मुख्य विपक्षी पार्टी ‘लेबर पार्टी’ के नेता जेरेमी कॉर्बिन ने संसद में प्रधानमंत्री से इस घटना पर स्पष्ट और विस्तृत माफी की मांग की।

थेरेसा मे ने संसद में कहा, “जलियांवाला बाग में जो हुआ और इससे जो कष्ट पैदा हुआ उसके लिए हमें गहरा अफसोस है। 1919 की जलियांवाला बाग त्रासदी ब्रिटिश-भारतीय इतिहास के लिए शर्मनाक धब्बा है।” थेरेसा मे का यह बयान संसद के वेस्टमिंस्टर हॉल में सांसदों के बीच जलियांवाला बाग नरसंहार के लिए औपचारिक माफी के मुद्दे पर की गई बहस के बाद आया है।

कंज़र्वेटिव पार्टी के सांसद बॉब ब्लैकमैन ने इस मुद्दे को बहस के लिए टेबल पर रखा था और इसे शर्मनाक बताते हुए ब्रिटिश सरकार से माफी मांगने के लिए कहा था। 1997 में जलियांवाला बाग की यात्रा के दौरान क्वीन एलिज़ाबेथ और ड्यूक ऑफ एडिनबरा ने हस्ताक्षर किए थे और इस नरसंहार पर अफसोस जताया था।

उसके बाद ब्रिटिश सरकार ने 2013 में तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन की यात्रा के दौरान इस हत्याकांड को शर्मनाक घटना के रूप में वर्णित किया और इसकी निंदा भी की लेकिन भारत से माफी मांगने का विचार भी प्रकट नहीं किया।

अंग्रेज़ों की इस क्रूरता से क्षुब्ध रवींद्रनाथ टैगोर ने वायसराय लॉर्ड चेम्सफोर्ड को पत्र लिखा

टैगोर ने अपने पत्र में लिखा, ‘‘स्थानीय विरोध को कुचलने के लिए पंजाब सरकार द्वारा उठाए गए सख्त कदमों की भयावह असंवेदनशीलता ने एक झटके से उस निरीहता को हमारे मानस के सामने उजागर कर दिया है, जिसमें भारत की जनता स्वयं को अंग्रेज़ों का गुलाम पाती है। नागरिकों पर जिस सख्ती और कठोरता से कार्रवाई की गई और इस कठोर सज़ा को देने के लिए जो तरीके अपनाए गए, उन्हें देख कर हम आश्वस्त हैं कि निकट भूतकाल में भी सभ्य शासन के इतिहास में कुछ अपवादों को छोड़कर उनकी तुलना नहीं मिलेगी।

उन्होंने आगे लिखा, “यह ध्यान में रखते हुए कि यह बर्ताव एक निरीह और शस्त्रहीन जनता पर उस प्रशासन द्वारा किया गया जिसके पास मानव जीवन को नष्ट करने के सबसे सक्षम और जघन्य साधन और संगठन हैं, यकीनन इसकी ना तो कोई राजनीतिक अपरिहार्यता थी और ना ही कोई नैतिक औचित्य।’”

टैगोर ने स्वयं को नाइट की उपाधि से मुक्त करने का आग्रह करते हुए आगे लिखा, ‘‘इस अपमान के बाद अब यह सम्मानार्थ दिए गए तमगे और भी शर्मनाक लगने लगे हैं। मैं इन विशिष्ट सम्मानों से मुक्त हूं, अब अपने देशवासियों के साथ खड़ा होना चाहता हूं, जिन्हें उनकी तथाकथित तुच्छता के कारण यह अपमान सहना पड़ रहा है जो अमानवीय है।”

जलियांवाला बाग हत्याकांड
फोटो साभार: Twitter

पंजाब में आज भी शोषित परिवारों का कहना है कि मंदिरों से अधिक जलियांवाला बाग पवित्र है इसलिए वे हमेशा इस बाग में जाते रहेंगे। ऐसी घटनाओं को झेलते हुए भी अनादि काल से वसुधैव कुटुंबकम के आदर्श का अनुसरण करते रहे भारत ने संपूर्ण विश्व को एक ही परिवार माना है। अपनी इन्हीं सांस्कृतिक मूल्यों के कारण विश्वगुरु होते हुए भी भारत ने अपने लंबे इतिहास में कभी भी किसी पर आक्रमण नहीं किया। भारत की विदेश नीति भी इसी विचारधारा को मानती है कि बिना शांति के विकास संभव नहीं है।

इस हत्याकांड पर उप राष्ट्रपति ‘एम. वेंकैया नायडू’ का कहना है, “एक बार मैं पुन: महात्मा गाँधी के गंभीर परामर्श का स्मरण दिलाना चाहूंगा जिसमें उन्होंने कहा था कि धरती सभी की आवश्यकता तो पूरी कर सकती है मगर किसी की लालसा या लालच को पूरा नहीं कर सकती।

उन्होंने आगे कहा, “अंत में मैं, दिल्ली स्थित ‘‘यादे जलियां संग्रहालय’’ में उस ऐतिहासिक घटना से संबंधित फोटोग्राफ, चित्र, समाचार पत्रों को संकलित और संरक्षित करने और उन्हें सुरुचिपूर्ण तरीके से प्रदर्शित करने के लिए सरकार के प्रयासों का अभिनंदन करता हूं। यह संग्रहालय जलियांवाला बाग हत्याकांड का आधिकारिक विवरण प्रस्तुत करता है।”

The post जलियांवाला बाग हत्याकांड: 100 साल बाद भी नहीं मिटे हैं ज़ख्मों के निशान appeared first and originally on Youth Ki Awaaz and is a copyright of the same. Please do not republish.


Viewing all articles
Browse latest Browse all 8261

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>