सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई ने अपने खिलाफ लगाए गए यौन शोषण के आरोपों को लेकर पूरे सिस्टम में विस्फोट कर दिया है कि कुछ बड़ी ताकतें प्रधानमंत्री कार्यालय को निष्क्रिय करना चाहती हैं। उनकी अगुवाई करने वाली पीठ में कुछ संवेदनशील मामले सूचीबद्ध हैं। उन्होंने संदेह जताया कि इन्हें लेकर उनको ब्लैकमेल करने के लिए साज़िश रची गई होगी।
जजों की प्रेस कॉन्फ्रेंस का प्रसंग फिर हुआ ज़िंदा
इसके पहले गत वर्ष सुप्रीम कोर्ट के ही चार वरिष्ठ जजों ने मीडिया को बुलाकर शीर्ष अदालत के प्रशासन में अनियमितता के सवाल खड़े करके सारे देश को चौका दिया था। जस्टिस चेलमेश्वर, जस्टिस कुरियन जोसफ, जस्टिस मदन लोकुर और जस्टिस रंजन गोगोई भी यह सनसनीखेज़ और उच्चतम न्यायालय के इतिहास में पहली बार प्रेस कॉन्फ्रेंस करने वाले जजों में शामिल थे।
उनके आरोपों का सार यह था कि तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश का कई महत्वपूर्ण और संवेदनशील मामले स्थापित परंपराओं के खिलाफ कुछ चुनिंदा जजों को सौंप देते हैं, जो कि कनिष्ठ हैं और ऐसा बार-बार किया जा रहा है। जस्टिस लोया की संदिग्ध मौत के मामले की सुनवाई के लिए भी तत्कालीन चीफ जस्टिस द्वारा ऐसा ही रवैया अपनाने का आरोप उन्होंने खास तौर पर लगाया था।
सीजेआई बनने के बाद जस्टिस गोगोई से बेफिक्र रही सरकार
बाद में जस्टिस रंजन गोगोई, चीफ जस्टिस की कुर्सी पर पहुंच गए। इस पृष्ठभूमि के बावजूद उन्होंने कोई ऐसा फैसला नही सुनाया और ना ही ऐसा कोई आदेश पारित किया, जिससे सरकार परेशानी का अनुभव करती। केवल राम मंदिर मसले में उन्होंने जल्दबाज़ी करने से दृढ़ता पूर्वक इंकार कर दिया था, जिससे भाजपा समर्थित साधु-संत बेहद उद्वेलित देखे गए थे लेकिन सचमुच सरकार की मंशा इस मामले में क्या थी आज तक कोई यह नही जानता।

भाजपा के बहुत से मुद्दे हैं जिनमें अनुच्छेद 370 के तहत कश्मीर के विशेष दर्जे को समाप्त करने के अलावा अयोध्या में विवादित स्थल पर भव्य राम मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त करना खास तौर पर शामिल है। सरकार ने इन मामलों में अपने संकल्प को पूरा करने की इच्छा शक्ति नही दिखाई, यह बहुत स्पष्ट रूप से जाहिर है।
यह प्रश्न अनुत्तरित है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कुर्सी संभालने के बाद से आज तक अयोध्या में रामलला के दर्शन करने क्यों नही पहुंचे। यही नहीं, राम मंदिर के अविलंब निर्माण के लिए सबसे ज़्यादा झगड़ा करने वाले प्रवीण तोगड़िया बड़े बेआबरू होकर तेरे कूंचे से हम निकले के अंदाज़ में विश्व हिंदू परिषद से निष्कासित कर दिये गए। उन्हें बिना डंक का बिच्छू बनाकर छोड़ देने के पीछे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ही मुख्य भूमिका समझी जाती है।
गुमनाम है कोई, बदनाम है कोई, कौन है यह आखिर
प्रधान न्यायाधीश ने अपने खिलाफ जिस बड़ी ताकत का इशारा किया है, उसे लेकर सरसरी तौर पर संदेह की उंगली सबसे पहले प्रधानमंत्री कार्यालय पर उठी। उन्होंने कहा कि एक बड़ी हस्ती जो पहले जेल जा चुकी है और अब बाहर है, उनका चरित्र हनन उसी का किया धरा है।
इसके बाद लोग अटकलों में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का नाम लेने लगे लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि उन्होंने इस सोमवार से शुरू होने वाले सप्ताह में उनके नेतृत्व वाली पीठों में सूचीबद्ध मामलों से जुड़ी हस्तियों की ओर इशारा उनके खिलाफ षड्यंत्र के लिए किया है और इनमें राफेल करार के मुद्दे पर दिए गए बयान को लेकर काँग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी के खिलाफ दायर अवमानना याचिका भी थी, जिस पर अब उन्होंने खेद व्यक्त करने के बावजूद राहुल गाँधी को नोटिस जारी कर दिया।

इस सस्पेंस को यह जानकारी और बढ़ा देती है कि जिस वेबसाइट ने प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ यौन शोषण के आरोपों को प्रकाशित कर कथित तौर पर उनकी अवमानना की है, वह सरकार विरोधी रुख के लिए जानी जाती है और उसके बारे में यह भी संदेह किया जाता है कि गोपनीय तौर पर उस वेबसाइट को काँग्रेस के एक खेमे से फंडिंग होती है।
प्रधान न्यायाधीश ने अपनी वेदना को लेकर बहुत ही कूट शब्दावली का इस्तेमाल किया है, जिसे डिकोड करना आसान नहीं है। उनका इशारा किस ओर है, यह इतनी अबूझ पहेली है कि पुराने ज़माने की गुमनाम फिल्म की याद दिला देती है।
अवतारी लीडरशिप से सुचारू सिस्टम तक का सफर
लोकतंत्र में पारदर्शिता अनिवार्य तत्व की तरह है लेकिन यह तंत्र भी पूरी तरह दरबारी षड्यंत्र से मुक्त नहीं हो सकता। हालांकि लोकतांत्रिक व्यवस्था में सत्ता के अतःपुर के षड्यंत्र की गुंज़ाइश नून हो जाती है।
लोकतंत्र में संस्थाएं काम करती हैं और किसी व्यक्ति का एक मात्र रोल इसमें संभव नहीं होना चाहिए। भारत में जब लोकतंत्र नया-नवेला था, नेहरू-इंदिरा युग में उस समय सिस्टम नहीं पनप पाया था इसलिए सारा शासन-संचालन सर्वोच्च नेतृत्व का मुंह ताकता रहता था।

जब लोकतंत्र रफ्तार पकड़ने लगा तो सिस्टम चल पड़ा और ऐसी अप्रत्याशित स्थितियां बनीं, जिनमें राजीव गाँधी की हत्या के पहले राजनीति से सन्यास लेकर घर बैठे नरसिंहाराव को अचानक प्रधानमंत्री बना दिया गया।
इसके बावजूद उन्होंने सफलतापूर्वक अल्पमत की सरकार पांच साल चलाई मगर मास लीडर के रूप में उनकी स्वीकार्यता नहीं हो सकती थी इसलिए नए चुनाव में उनके नेतृत्व की वजह से काँग्रेस पार्टी सत्ता से बेदखल हो गई।
संयुक्त मोर्चे के समय एचडी देवगौड़ा और इंद्रकुमार गुजराल की हैसियत भी नामित प्रधानमंत्री से ज़्यादा नहीं थी फिर भी देश पर कोई आफत नहीं टूटी क्योंकि देश में सिस्टम बहुत मज़बूती से कार्यशील हो गया था और कोई भी सरकार में बैठ जाए देश के लिए जोखिम नहीं हो सकता था।
प्रभावी नेतृत्व बनाम सर्वसत्तावादी नेतृत्व
यह लोकतंत्र की सही दिशा में अग्रसरता का सूचक था। प्रभावी नेतृत्व के उपलब्ध हो जाने पर यह फायदा होना चाहिए था कि सिस्टम के और सुचारू हो जाने के रूप में इसके परिणाम सामने आते हैं लेकिन सर्वसत्तावादी नेतृत्व अब अयाचित हो जाना चाहिए था।
शायद देश में कुछ ऐसा ही हो रहा है जिसके लिए संस्थाओं को अपने एकछत्र दबदबे में बाधक समझना स्वाभाविक है। सिंहासन पर बैठे व्यक्ति में ईश्वर को देखना भारतीय समाज की पुरानी ग्रंथि है।
मुगलों का राज बाबर के तत्काल बाद ही खत्म हो गया था लेकिन महाकवि कालीदास के एक ग्रंथ से प्रेरित होकर लोक भाषा में रचे गए धार्मिक महाकाव्य ने अकबर के समय सिंहासन को फिर दैवीय प्रतिष्ठा दे दी तो मुगल शासन दीर्घायु हो गया।
नेपाल में हिंदू राष्ट्र के समय राजा को विष्णु के अवतार के रूप में पूजित किया जाता था। जब लोकप्रिय राजा की सपरिवार हत्या हो गई और उनके भाई को सिंहासन मिल गया, जो लोगों की निगाह में इन बर्बर हत्याओं में संलिप्त था तो लोगों की आस्था हिल गई। सिंहासन को विष्णु के अवतार के रूप में देखने की धारणा से उनका इस कदर उचाट हुआ कि वह नास्तिक हो गए और नेपाल का हिंदू राष्ट्र का दर्जा खत्म कर वहां के जनमत ने नास्तिक माओवादियों को देश की सत्ता सौंप दी।
सरकार ने कहा वह सीजेआई के साथ
उच्चतम न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश के कार्यालय को पंगु बनाने के पीछे कौन सी बड़ी शक्ति है, यह कहना मुश्किल है लेकिन केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने स्पष्ट कर दिया है कि सरकार उनके साथ खड़ी है और न्यायपालिका को कमज़ोर करने की साज़िश की निंदा करती है।
जो भी हो कुछ दिनों पहले सीबीआई की अंदरूनी लड़ाई में जो जूतों में दाल बटी, उससे संस्थाओं के अस्तित्व को जर्जर किए जाने की धारणा को और बल मिला था। लोकपाल की नियुक्ति में आखिरी समय तक आनाकानी होती रही। हालांकि कोर्ट के आदेश की वजह से वर्तमान सरकार के अंतिम समय में लोकपाल के नाम की घोषणा कर दी गई है।

क्या यह संस्थाओं को आप्रासंगिक समझने की नीयत दर्शाता है? एक पुलिस अफसर जिसका लंबे समय तक की सेवा का बेदाग और बहादुरी से भरा रिकार्ड रहा, वह किसी पार्टी के राजनैतिक एजेंडे के लिए अपने जीवन भर की प्रोफेसनल साख की पूंजी को दांव पर लगा सकता है, इसकी कल्पना आसानी से नहीं की जा सकती।
भारतीय प्रशासन के स्टील फ्रेम का दर्जा जिन सेवाओं को हासिल है, उनमें से वरीयता क्रम पर दूसरे नंबर के आईपीएस कैडर के एसोसिएशन का असंतोष मूल्यहीन जताकर बरतरफ किया जाना देश की सेहत के लिए शुभ संकेत नहीं हैं।
खैर, वर्तमान लोकतांत्रिक मॉडल से आगे भी कुछ है या नहीं, इस सबक को पढ़ाने की तैयारी की जा रही है।
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