तमाम भारतीय नेताओं की तरह लालू यादव में भी खामियां और अच्छाइयां हैं लेकिन एक बात तो तय है कि नब्बे के दशक के बाद भारतीय राजनीति को लालू यादव के बिना नहीं देखा जा सकता। आप लालू यादव से सहमत हो सकते हैं, असहमत हो सकते हैं लेकिन आप भारतीय राजनीति में ‘लालू प्रभाव’ से इनकार नहीं कर सकते हैं।
सामाजिक न्याय के मसीहा के तौर पर लालू यादव

नब्बे के दशक में लालू के उदय के बाद, दलित-पिछड़ा और ओबीसी समाज अंगड़ाई लेने लगा। उस काल में लालू यादव का अचानक से उदय होने से दोनों समाज पर फर्क पड़ा। एक तरफ वो समाज था जो सदियों से वर्चस्वशाली कहलाने और दिखने का आदी हो गया था, वहीं दूसरी ओर वो समाज था जिसे सदियों से दबाया गया था।
इस दबे समाज को अब एहसास होने लगा था कि अगर हमें कोई दबाता है तो हम भी उसे दबा सकते हैं। बस यहीं से शुरू हो गया जातीय संघर्ष का दौर। इस संघर्ष में तथाकथित उच्च जाति के लोग अपनी आन-बान-शान बचाने में लग गए। वहीं, सदियों से दबे लोग बदले की भावना से पीड़ित हो गए। इस सामाजिक न्याय के संघर्ष में बेतहाशा अन्याय भी हुआ। यह अलग बात है कि यह सब बदले की भावना में हुआ लेकिन हुआ ज़रूर। इस ज़िम्मेदारी को लालू यादव को समझना चाहिए था लेकिन उन्होंने इसे नहीं समझा। चाहे यह उनकी मजबूरियां रही हो या फिर राजनीति करने का तरीका। जो भी हो पर इस ज़िम्मेदारी से लालू यादव को मुक्त नहीं किया जा सकता है।
सवर्णों के खलनायक के तौर पर लालू यादव

जब लालू यादव ने ‘भूराबाल साफ करो’ का नारा दिया तब वो राजनीति में अपनी पैठ बनाने में जुटे थे। पिछड़ों के प्रति अगड़ों के शोषण का रवैया जगज़ाहिर था। पिछड़ों में भी अगड़ों के प्रति गुस्सा और बदले की भावना स्वाभाविक थी। इस हालत में लालू यादव को सवर्णों को सामने से चुनैती देना सबसे ज़्यादा फायदेमंद लगा। बस फिर क्या था, उन्होंने खुले मंच से ‘भूराबाल साफ करो’ का नारा दे डाला। इसका प्रभाव बिहार की राजनीति पर क्या पड़ा, ये तो जगज़ाहिर है लेकिन लालू यादव सवर्णों के खलनायक बन गए।
जातिवादी के तौर पर लालू यादव
भारतीय समाज में जाति एक हकीकत है। इनमें से भी दलित पिछड़े बहुसंख्यक है। इस स्थिति में लालू यादव के लिए जातिगत राजनीति को हवा देना खाली प्लॉट जैसा लगा। पिछड़ी जातियों के सामाजिक स्तर में सुधार भी आया लेकिन इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि जातिगत दूरियां, जातिगत संघर्ष में बदल गई।
भ्रष्टाचार के दोषी के तौर पर लालू यादव
भारत में कोई ऐसी राजनीतिक पार्टी नहीं है, जो चंदे के पैसों से चुनाव लड़ ले। चुनावी खर्चे इतने हैं कि हर पार्टी को कुछ ना कुछ कॉर्पोरेट कम्पनियों, साहूकारों से पैसा लेना पड़ता है और चुनाव जीतने के बाद इसका सीधा मतलब है कि उन कॉर्पोरेट घरानों को राजनीतिक संसाधनों से फायदा पहुंचाया जाय। बस यही परेशानी लालू यादव के भी साथ रही लेकिन मीडिया में बैठे सवर्ण प्रभुत्व वाले लोगों को यह मौका बेहतर लगा लालू यादव को खलनायक घोषित करने के लिए।
वंशवादी राजनीति को बढ़ावा देने वाले लालू

पुत्रमोह भी कोई चीज़ होती है। बस इसी में फंस गए लालू यादव भी। इसका परिणाम यह हुआ कि लालू ने पुत्रमोह में आकर बिहार की राजनीति में एक नालायक और एक सेमीलायक पुत्र को लॉन्च कर दिया। अगर वे दोनों अपने आपको बेहतर कर पाते हैं तो राजनीति में टिकेंगे वरना अपनी उचित जगह पर पहुंच जाएंगे। ऐसे कितने नेतापुत्र आए और चले गए।
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