2019 लोकसभा चुनावों के 6ठे चरण का मतदान जारी है। चुनावी हंगामे, नारे, वादे, जुमले-हमले और नेताओं की भाषणबाज़ी पूरे शबाब पर है। चुनाव और मौसम दोनों का तापमान बढ़ रहा है। आकाश में पक्षी भले ना हो मगर लोकतंत्र के पक्षी-विपक्षी अवश्य मंडरा रहे हैं।
खैर, हर बार की तरह इस बार भी चुनाव सम्पन्न हो जाएंगे, जिसमें किसी को जीत मिलेगी तो किसी को हार। इन सब के बीच यह चुनाव कई कड़वे सवालों एवं अनुभवों के लिए भी याद रखा जाएगा।
मुख्य रूप से आज सत्ताधारी दल जिस प्रकार की चुनावी रणनीति के साथ आगे बढ़ रहे हैं, यह चुनाव जन-सरोकार एवं विकास के मुद्दों के खिलाफ एक साज़िश का रूप लेती दिख रही है।
पांच वर्ष तक सत्ता में रहने के बावजूद अगर भाजपा इस चुनाव को सिर्फ राष्ट्रवाद (भाजपा /संघ परिभाषित), एंटी-पाकिस्तान, आतंकवाद और सेना के नाम पर लड़ रही है तो यह कहीं ना कहीं विकास और जनहित के मुद्दों पर सरकार की नाकामियों की गवाही भी दे रहा है।
पाकिस्तान के नाम पर डर दिखाने की कोशिश
हम लगातार देख रहे हैं कि किस प्रकार से प्रधानमंत्री मोदी, जो पिछले पांच वर्षों में ‘चाय वाला’ से प्रोमोशन प्राप्त कर इस बार चौकीदार बन गए हैं, लगातार अपने भाषणों में पाकिस्तान का डर दिखा रहे हैं।
लोगों को बताया जा रहा है कि अगर मोदी जी दोबारा प्रधानमंत्री नहीं बने तो पाकिस्तान भारत पर हमला कर देगा। अगर हमारे अंदर थोड़ा भी विवेक है तो हमें खुद से यह पूछना चाहिए कि क्या एक राष्ट्र के रूप में हम इतने कमज़ोर हो चुके हैं कि पाकिस्तान से डरने लगें।
अगर हां, तो सवाल यह भी उठना चाहिए कि भारत को इतना कमज़ोर किसने बना दिया। क्या मोदी सरकार ने? हमें यह समझना होगा कि आज जिस प्रकार से पाकिस्तान का डर दिखा कर इस मुल्क में एक डरा हुआ राष्ट्रवाद फैलाया जा रहा है।
यह सत्ता द्वारा प्रायोजित बेहद गंदी चुनावी साज़िश है। ऐसा भयाक्रांत राष्ट्रवाद कुछ नेताओं के लिए अच्छे चुनावी परिणाम भले ले आए लेकिन राष्ट्र के शौर्य का प्रमाण बिलकुल नहीं हो सकता है।
विकास के सतरंगी सपने लुप्त
वास्तव में पिछले 6 -7 महीनों में भाजपा के राजनीतिक क्रिया-कलापों का विश्लेषण करें तो काफी चीज़ें आसानी से समझी जा सकती हैं। 2014 में विकास के सतरंगी सपने, अच्छे दिन, गुजरात मॉडल, आईटी सेल निर्मित आंधी एवं काँग्रेस विरोधी लहर पर सवार होकर प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आई मोदी सरकार ने देश की राजनीति की धारा ही बदल कर रख दी।
विपक्ष ऐसा औंधे मुंह गिरा कि जब तक होश संभालता एक-एक कर सभी राज्यों पर भाजपा का कब्ज़ा होता चला गया। इस शानदार सफलता में ‘मोदी ब्रांड’ सबसे धमाकेदार रहा लेकिन नवंबर 2018 में हुए पांच राज्यों के चुनाव परिणाम ने भाजपा की नींद उड़ा दी।

मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान जैसे राज्य, जो बुरे दौर में भी भाजपा के गढ़ रहे हैं, वहां भाजपा का सत्ता से बेदखल होना केंद्र में उसकी वापसी की संभावनाओं को धूमिल करने लगा था। साथ ही उत्तरप्रदेश सहित देश के कई हिस्सों में हुए लोकसभा उपचुनावों में अपनी जीती हुई कई सीटों पर भाजपा को मुंह की खानी पड़ी।
उत्तर प्रदेश में तो लोकप्रिय मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या अपनी सीट तक पार्टी के खाते में नहीं जोड़ पाए। यह परिणाम उस भाजपा के लिए सिर दर्द बनते जा रहे थे, जो इस देश पर 20 -25 वर्षों तक एकछत्र राज के सपने देख रही थी।
पुलवामा हमले के ज़रिये की गई राजनीति
भाजपा को पता चल चुका था कि जनता सरकार से निराश चुकी है और जनता ने हिसाब मांगना शुरू कर दिया तो सरकार की वापसी मुश्किल हो जाएगी। ऐसे में जनता को असल मुद्दों से दूर भटकाने के लिए कोई मास्टरस्ट्रोक ज़रूरी था।
पुलवामा हमले के बाद जिस प्रकार से हमारे प्रधानमंत्री सहित पूरी भाजपा उत्साह में दिखी, अगर हम साज़िश की आशंकाओं को नज़रअंदाज़ भी कर दे तो यह किसी भी सरकार के लिए अच्छी छवि नहीं थी, खासकर उस सरकार के लिए जो खुद को राष्ट्रवादी कहती है।
एक तरफ शहीदों की चिताएं जल रही थी तो वहीं दूसरी तरफ लाखों के मंच से प्रधानमंत्री मोदी पाकिस्तान के खिलाफ चुनावी भाषण देकर लोगों की भावनाओं को वोट में तब्दील करने में जुटे हुए थे।

शहीदों की चिताओं की आंच पर राजनीतिक रोटियां सेंकने वाली सरकार ने आज तक यह बताना ज़रूरी नहीं समझा कि जब पहले से हमले की इनपुट थी फिर सुरक्षा में चूक कैसे हुई? कैसे प्रतिबंधित क्षेत्र में भारी मात्रा में विस्फोटक पहुंच गया?
नियमानुसार तय संख्या से अधिक जवान एक साथ कैसे ट्रैवल कर रहे थे? इस चूक के लिए कौन लोग ज़िम्मेदार हैं? कितने लोगों पर कार्रवाई हुई? इन प्रश्नों से भाजपा का चुनावी गणित खराब हो सकता है, इसलिए सरकार पुलवामा हमले की गहराई से जांच में दिलचस्पी भी नहीं ले रही है।
दूसरी तरफ, जवाबी कार्रवाई में एयर स्ट्राइक किया गया। पूरा विपक्ष सरकार के साथ खड़ा था लेकिन यह स्थिति भाजपा के लिए फायदेमंद नहीं थी। उसे तो चुनाव में विपक्षी नेताओं को पाकिस्तान समर्थक सिद्ध करना था। खुद को राष्ट्रभक्त सिद्ध करने का यह एकमात्र फॉर्मूला बचा था, जिस पर भाजपा ने पूरा चुनाव दांव पर लगा दिया था।
सेना ने कहा कि कितने आतंकी मरे यह गिनना उनका काम नहीं है लेकिन अमित शाह 250 का आंकड़ा जनता को गिनाने लगे। योगी आदित्यनाथ ने 400 का आंकड़ा गिना दिया। इसी प्रकार कई भाजपा नेता लाशों का आंकड़ा देकर इन आंकड़ों को सीटों में तब्दील करने की कोशिश में लग गए।
इन आंकड़ों को सुनते हुए कई बार 2014 के कालेधन के आंकड़े भी याद आ रहे थे जब कोई 1 लाख करोड़, कोई 2 लाख करोड़ और कोई 3 लाख करोड़ कह रहा था। जब विपक्षी नेता भाजपा नेताओं के दिए गए आंकड़ों के सबूत मांगने लगे तो इसे सेना के शौर्य पर सवाल बताया गया।
यह अजीब था कि भाजपा को सेना मान लिया गया और उनसे सवाल पूछना सेना का अपमान बता दिया गया। यह दरअसल सेना की आड़ में सवालों से बचने की कोशिश थी। भाजपा के पास राम मंदिर, धारा-370, हिन्दू-मुस्लिम जैसे पुराने हथियार भी तरकश में हैं जिनकी धार थोड़ी कम हुई है।
गैरज़रूरी मुद्दों पर हो रही है बात
जिस प्रकार से पिछले चुनाव में कालाधन, भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी, गरीबी, महंगाई, रुपए की कीमत, पेट्रोल की कीमत, किसानों की समस्याएं जैसे मुद्दों का ज़िक्र हो रहा था, वह इस चुनाव में देखने को नहीं मिल रहा है। प्रधानमंत्री और भाजपा के नेताओं के भाषणों में उनके द्वारा किए गए पिछले पांच वर्षों के कामों का भी कोई ज़िक्र नहीं होता है।
मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया, कुशल युवा कार्यक्रम, आदर्श सांसद ग्राम योजना जैसे अपने कार्यक्रम प्रधानमंत्री अब याद नहीं करना चाहते हैं और ना ही यह चाहते हैं कि इन वादों को जनता याद रखे। प्रधानमंत्री के भाषणों में नोटबंदी पर एक शब्द मिलना असंभव है।

इसी प्रकार आधी रात को संसद में 1950 का फिल्म सेट लगा कर जीएसटी पास किया गया। उस पर कोई नहीं बोल रहा है। स्मार्ट सिटी, बुलेट ट्रेन पर कोई बात नहीं हो रही है। शर्मनाक तो यह भी है कि सत्ता के दबाव में झुक कर इस देश का मेनस्ट्रीम मीडिया भी इन मुद्दों पर चुप्पी साधे हुए है। 2014 से पहले हर रोज़ पेट्रोल, रुपए की कीमत, बढ़ती महंगाई, बेरोज़गारी पर डिबेट करने वाले विशेषज्ञ अब बेरोज़गार हो चुके हैं।
मोदी जी के भाषण का मुद्दा सिर्फ पाकिस्तान
कुल मिलाकर देखें तो मोदी जी के भाषणों में ना 2014 की तरह जनता को प्रभावित करने वाले मुद्दे हैं और ना ही पांच वर्षों के उनके कार्यक्रमों की उपलब्धियां हैं। उनके भाषण का मुद्दा सिर्फ पाकिस्तान है और वह विपक्षी नेताओं को पाकिस्तान समर्थक सिद्ध करने के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रहे हैं।
देश की सेना को मोदी जी की सेना साबित करने की कोशिश हो रही है। राजनीतिक खेल अपनी जगह पर हमारे देश की सेना दुश्मनों को मुहतोड़ जवाब देने में कल भी सक्षम थी, आज भी है और कल भी रहेगी।
कुल मिलाकर समय लोकतंत्र के लिहाज से बेहद संगीन है। हम मतदाताओं को समझना होगा कि लोकतंत्र में जनता मालिक और सत्ता नौकर है। नौकर के काम-काज का हिसाब लेना हमारी ज़िम्मेदारी है। हमें यह याद रखना होगा कि सत्ता हमारी आंखों में धूल झोंकती है।

पूरा लोकतंत्र ही उल्टी धारा में गतिशील है। लोकतंत्र के नौकर ने खुद को भगवान बना लिया है और हम आम जनता जो मालिक थे, अब भक्त बन गए हैं। यह स्थिति नेताओं के लिए सुखद है क्योंकि उन्हें पता है कि भक्त कभी सवाल नहीं करेगा, उसे तो सिर्फ प्रवचनों और कहानियों में ही उलझे रहना है।
हमें समझना होगा कि यह चुनाव सिर्फ नेताओं का चुनाव नहीं, बल्कि हम मतदाताओं का भी है। आज हमारे सामने हमारी राजनीतिक चेतना और अपने लोकतांत्रिक वजूद को ज़िंदा रखने की चुनौती है।
जो नेता हमें अपना वैचारिक और राजनीतिक गुलाम समझने लगे हैं, उन्हें बताना होगा कि हम भक्त नहीं बल्कि इस लोकतंत्र के मालिक हैं। हमें यह सबक देना होगा कि चुनाव जनता के मुद्दों पर ही होगा और सत्ता के साज़िशपूर्ण अफवाही मुद्दों से चुनाव को हाईजैक करने की कोशिशें परास्त होंगी।
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