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“कन्हैया, आपसे सवाल पूछने वाले युवक को आपने BJP का एजेंट कैसे कह दिया?”

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अभी हाल ही में सोशल मीडिया पर एक वीडियो काफी वायरल हुआ जिसमें एक इंटर पास युवक कन्हैया कुमार पर सवालों की बौछार करते दिखाई पड़े। बेगूसराय के एक गाँव में रोड शो के दौरान पहले तो स्थानीय लोगों ने उनका रास्ता रोकते हुए उनके खिलाफ प्रदर्शन करना शुरू कर दिया।

स्थानीय लोगों ने उनसे जेएनयू से संबंधित सवाल पूछने शुरू कर दिए। उन्होंने कन्हैया से देश विरोधी नारे लगाने संबंधित मुद्दों पर भी सवाल किए लेकिन जवाब बेहद निराशानजक दिखाई पड़ा।

जेएनयू नारे के सवाल पर कन्हैया का निराशाजनक जवाब

जब उस युवक ने कन्हैया से पूछा कि आपने 2016 में जेएनयू में ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ का नारा क्यों लगाया? इस पर कन्हैया ने उससे पूछा कि क्या तुम बीजेपी से हो? कन्हैया के सवाल पर युवक ने ना में जवाब देते हुए कहा कि वह चुनाव में ‘नोटा’ का बटन दबाएगा।

गौरतलब है कि कन्हैया कुमार अपने ऊपर लगे आरोपों के लिए जितने जाने जाते हैं, उतने ही सरकार से सवाल करने के लिए भी जाने जाते हैं मगर यहां पर जवाब देने के मामले में उन्होंने भी सरकार जैसी भूमिका दिखाई। ‘बीजेपी से हो’ का अभिप्राय यह है कि कन्हैया उस युवक को बीजेपी का एजेंट बता रहे थे, जो शर्मनाक है।

सरकार से सवाल करने पर जिस तरह लोगों को देशद्रोही का प्रमाण-पत्र दे दिया जाता है, ठीक उसी तरह कन्हैया ने भी खुद को स्थापित करते हुए उस युवा को भाजपाई करार दिया।

आखिर कन्हैया ने सीधे तरीके से जवाब क्यों नहीं दिया?

कन्हैया भले ही देश की शीर्षस्थ मीडिया डिबेट के आमंत्रणों में जन मुद्दों से जुड़े सवालों को पेश करने के स्वतंत्र पैरोकार हैं मगर एक आम गाँव का लड़का जिसकी डिग्री भी उनके समतुल्य कहीं नहीं टिकती, उसने सरेआम अपने सवालों से कैसे झकझोर दिया?

कन्हैया कुमार
कन्हैया कुमार। फोटो साभार: फेसबुक

हमारे देश में सभी सामाजिक-आर्थिक हैसियत के लोग रहते हैं और सभी लोगों या समुदाय के हित-अहित से जुड़े कुछ मौलिक सवाल हैं, जिनके आधार पर उनके वर्तमान और भविष्य की कुछ आशाएं टिकी हैं जिन्हें उठाने का उन्हें भी पूरा अधिकार है।

ऐसा नहीं है कि कन्हैया उस युवक के सवाल के जवाब नहीं जानते मगर मौका और समय की नज़ाकत ने उन्हें चुप रहने के लिए मजबूर कर दिया। अगर चुनाव नहीं होता या कन्हैया स्वयं चुनाव में नहीं होते तो इस सवाल का जवाब वह किसी भी बड़े जर्नलिस्ट को दे सकते थे, जो वह उस युवा को बखूबी देते।

क्या यह देश के नेताओं की मजबूरी है?

हमारे देश के नेताओं की यह मजबूरी है कि जब मामला चुनाव जीतने और हारने का हो, तो उनकी विचारधारा और खुद को पारम्परिक राजनीति से अलग बताने वाले नवोदित लोग भी उसी परंपरा का आश्रय ले लेते हैं। यह सभी जानते हैं कि कन्हैया जिस साम्यवादी के वाहक बने हुए हैं, उसका मूल चिंतन शोषक और शोषित के भेद को मिटाना है, जो धर्म को अफीम समझता है और धार्मिक मान्यताओं का मखौल उड़ाते हैं।

कन्हैया कुमार
कन्हैया कुमार। फोटो साभार: फेसबुक

ज़ाहिर है कि जो लोग इन मूल चिंतनों के पैरोकार हैं, उनसे उनका अंतर्विरोध स्वाभाविक होना चाहिए। ऐसा उन्होंने ब्राह्मणवाद और मनुवाद पर नकारात्मक टिप्पणी करके साबित भी किया है।

इसका परिणाम है कि भारत की संसदीय राजनीति में आज़ादी और काँग्रेस के बाद दूसरा सबसे बड़ा दल कम्युनिस्टों का रहा है, जो आज अप्रासंगिक बना हुआ है। उदारहण के तौर पर सीताराम येचुरी का हिन्दू समाज के प्रति दिया गया बयान उनकी सोच को दर्शाता है।

रोमांच की बात यह है कि जाति व्यवस्था पर सवाल उठाने वाले कन्हैया स्वयं अपनी जातीय पहचान के लिए मोहताज बने हुए हैं। अतः उनसे सवाल होना भी लाज़मी है। यही राजनीतिक लाभ लेने की मजबूरी है, जो कथनी और करनी में अंतर ला देती है और कोई भी नेता अपनी विचारधारा को समयानुकूल समायोजित कर लेता है, जिससे नेताओं की प्रामाणिकता पर भी सवाल उठाता है।

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