भारत में चुनावों का दौर चल रहा है। कोई राम मंदिर की बात कर रहा है तो कोई गाय के नाम पर वोट मांग रहा है। छात्र विवादित बयान देकर चुनाव लड़ रहे हैं, तो कहीं बड़े राजनीतिक दल अपने पूर्वजों के किए हुए कामों के आधार पर वोट मांग रहे हैं।
इस दौर में एक दूसरे पर जम कर कीचड़ उछाला जा रहा है मगर सब यह भूल गए हैं कि जो कीचड़ हम एक दूसरे पर उछाल रहे हैं, वह ज़्यादा दिनों तक नहीं टिकने वाला है।
कीचड़ बनाने के लिए पानी की ज़रूरत होती है। आने वाले समय में पीने का पानी भी हमें मुश्किल से नसीब होने वाला है। यह मैं नहीं, बल्कि आंकड़े कह रहे हैं। तो अब आप ही यह तय करिए कि पीने का पानी ज़्यादा ज़रूरी है या राम मंदिर?
भारत सरकार ने 2018-19 में साफ पानी के लिए 22,356 करोड़ रुपए खर्च किए हैं फिर भी भारत में पैकेज्ड ड्रिंकिंग वाटर इंडस्ट्री का व्यापार 8000 करोड़ रुपए का है।
पानी के लिए चलाई गई भारत सरकार की योजनाएं:
- नगरीय जल कार्यक्रम
- राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम
- जल गुणवत्ता अनुश्रवण एवं निगरानी
- स्वजलधारा परियोजना
- मुक्तिधाम योजना
- लोहिया स्वच्छता योजना
इन सबके बावजूद आज भारत में लगभग 60 करोड़ लोग पानी की कमी से जूझ रहे हैं। नीति आयोग ने “कंपोजिट वाटर रिसोर्सेज मैनेजमेंट” के नाम से एक रिपोर्ट जारी की है। यह रिपोर्ट बहुत डरावनी है। भूजल पानी का संसाधन, जो हमारी पानी की आपूर्ति का 40% हिस्सा रखते हैं, तेज़ी से कम हो रहे हैं।
2020 तक भूजल संसाधन खत्म हो जाएंगे
रिपोर्ट के मुताबिक नई दिल्ली, बेंगलुरु और चेन्नई सहित 20 से अधिक शहरों में 2020 तक भूजल संसाधन खत्म हो जाएंगे, जिससे 10 करोड़ लोग प्रभावित होंगे। यहां तक कि भारत के 90 शहरों में पीने के लिए पर्याप्त स्वच्छ पानी नहीं है। हमारे देश के गाँवों में एक लाख से अधिक घरों में रहने वाले पांच करोड़ से भी अधिक लोगों के पास आज भी स्वच्छ पेयजल की सुविधा नहीं है।

आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार कम से कम 22% ग्रामीण परिवारों को पानी लाने के लिए आधा किलोमीटर और उससे भी अधिक दूर पैदल चलना पड़ता है। इसमें अधिकतर बोझ महिलाओं को ढोना पड़ता है। गाँवों में 15% परिवार बिना ढके हुए कुओं पर निर्भर करते हैं। गाँवों के 85% पेयजल संसाधन भूमिगत जल पर आधारित है। गाँवों की केवल 30.80% आबादी के पास ही नल के पानी की सुविधा है।
गाँवों के सरकारी विद्यालयों में पानी की भारी दिक्कत
नवीनतम उपलब्ध आंकड़ें दर्शाते हैं कि गाँवों के 44% से भी कम सरकारी विद्यालयों में पेयजल की सुविधा है। देश में अभी 2000 विषाक्त और 12000 फ्लोराइड प्रभावित ग्रामीण आवास हैं। 40% आबादी को 2030 तक पीने के साफ पानी की कोई सुविधा नहीं होगी।
वाटर क्वालिटी इंडेक्स में 122 देशों की सूची में हम 120वे नंबर पर हैं। शहरों में भी केवल 50% लोगों को साफ पानी उपलब्ध है। इस मामले में बांग्लादेश की हालत हमसे कहीं ज़्यादा बेहतर है। भारत की नदियों, झीलों और भूजल में उपलब्ध जल का 70% पानी प्रदूषित है। 75% परिवारों के पास अपने परिसर में पीने का पानी नहीं है।
2018 के स्टॉकहोम वाटर प्राइज़ विनर का कहना है, “अगर आप कीमतें बढ़ाते हैं तो भी अमीर पानी बर्बाद करेगा, जबकि गरीब इसे बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे। हम पानी के कॉर्पोरेट नियंत्रण की ओर नहीं बढ़ सकते।”
2030 तक हालात और भी निराशाजनक होंगे
2030 तक भारत की लगभग 40% आबादी के पास पीने का पानी नहीं होगा और साथ ही पानी की किल्लत की वजह से हमारी जीडीपी 6% तक गिर जाएगी।
खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृह राज्य गुजरात ने नर्मदा नदी से जुड़े दो जलाशयों के लिए जल आवंटन को लेकर तनाव देखा है। मार्च में गुजरात सरकार ने नदी से सिंचाई के पानी को रोक दिया और किसानों से फसलों की बुवाई नहीं करने की अपील की। देश के सबसे अमीर राज्य महाराष्ट्र ने पानी पर 800 करोड़ रूपए खर्च किए, वही राजस्थान ने 672 करोड़ रूपए।

अब जल संकट राजनीतिक क्षेत्र में भी तनाव बढ़ा सकता है। 11 भारतीय राज्यों में नदी जल बंटवारे को लेकर सात बड़े विवादों पर अभी सुनवाई चल रही है। साफ पानी के अभाव की वजह से भारत में हर साल लगभग 200000 लोगों की मौत होती है।
अगर अब भी चुनावों में पेयजल को एक गंभीर मुद्दे की तरह नहीं देखा जा रहा है तो यह आपके लिए गंभीर स्थिति है। वोट आपका है और सही फैसला भी आपको ही लेना होगा। अगर अब भी आपके लिए राम मंदिर ज़्यादा ज़रूरी है तो सारे ज़रूरी मुद्दे भूल कर बोलते रहिए “मंदिर वही बनेगा।”
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