मैं तमाशे के काबिल नहीं हूँ, वो तमाशा बनाये हुए हैं,
हर इशारे पर मैं चल रहा हूँ, फिर भी तेवर चढ़ाये हुए हैं,
सैफई परिवार में छिड़े संघर्ष का पटाक्षेप हो गया है। हालांकि इसको सशक्त पटाक्षेप कहना खुद को मुगालते में डालना और दूसरों को गुमराह करने की तरह होगा। अखिलेश और शिवपाल ने युद्ध विराम के बाद भी एक-दूसरे पर जो कटाक्ष किए हैं वे साबित करते हैं कि सैफई परिवार में वर्चस्व को लेकर छिड़ी जंग की खाई इतनी गहरी हो चुकी है कि यह किस मुकाम पर जाकर ठहरेगी, इसके लिए अगले चुनाव के नतीजे का इंतजार करना होगा। ध्यान रहे कि शिवपाल सिंह ने तो यहां तक कह दिया है कि अगर विधानसभा चुनाव के बाद सपा फिर बहुमत में आती है तो जरूरी नहीं है कि अखिलेश को दोबारा मुख्यमंत्री बनाया जाए। कौन मुख्यमंत्री होगा इसका फैसला चुनाव नतीजों के बाद नेताजी यानी मुलायम सिंह तय करेंगे, लेकिन व्यक्तित्व के संघर्ष की उठापटक का इस पूरी लड़ाई में बहुत ज्यादा दूरगामी महत्व नहीं है। इस जद्दोजहद को अगर गहराई से समझना है तो इसकी पीढ़ियों के संघर्ष की जो असल तासीर है उस पर गौर करना होगा।
समाजवादी पार्टी स्थापित होने से विस्तार तक जिस रीत-नीति पर चलती रही है, उसकी केंचुल उतारने का वक्त अखिलेश के समय आ गया है। मुलायम सिंह के हस्तक्षेप की वजह से फिलहाल इस पर विराम जरूर लग गया है लेकिन पार्टी के दीर्घजीवी अस्तित्व के लिए अखिलेश ने जो राह पकड़ी थी उस ओर अग्रसरता अनिवार्य है। समाजवादी पार्टी की विरासत को एक गिरोह की शक्ल में मुलायम सिंह ने अखिलेश को सौंपा था और चूंकि गिरोह की उम्र व्यापक लोकतांत्रिक राजनीति में बहुत लम्बी नहीं होती इसलिए अखिलेश के रास्ते से पार्टी का विचलन आखिर में आत्मघाती साबित होगा, यह हर दूरदृष्टि वाले विश्लेषक को मानना पड़ेगा।
बाबा साहब अम्बेडकर ने इस बात पर बल दिया था कि राजनीतिक सुधार तब तक फलदायी नहीं हो सकते जब तक कि सामाजिक सुधारों के जरिए उनके लिए अनुकूल जमीन नहीं बनाई जाए। उदार आधुनिक लोकतंत्र की बाबा साहब से ज्यादा गहरी समझ नये भारत के किसी राजनीतिज्ञ में नहीं रही इसलिए उनके विचारों का यह उद्धरण आज तक प्रासंगिक है। जहां तक मुलायम सिंह का सवाल है गांवदारी में वर्चस्व के लिए चलते पुर्ज़ा लंबरदार जिस तरह की लड़ाई लड़ते हैं मुलायम सिंह ने उसी पैटर्न की राजनीति की, लेकिन यह उनका भाग्य कहा जाएगा कि इतनी संकीर्ण राजनीति के बावजूद उत्तर प्रदेश जैसे विशाल राज्य में वे इतने समादरित हुए कि आज उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी राजनीतिक शख्सियत के रूप में मान्यता मिली हुई है। गांव में लंबरदारी की रखवाली के लिए पहला गुण है लठैतों को अपने साथ जोड़ना, दूसरा गुण है पार्टीबंदी की सोच अपनी पार्टी के आदमी के हर स्याह-सफेद में बिना किसी नैतिक हिचक के साथ देना और इसके बाद लड़ाई जीतने के लिए रुपया-पैसा लेकर दूसरे किसी भी प्रलोभनीय साधन के इस्तेमाल से न हिचकना।
चूंकि इस राजनीति में सिद्धांतों की कोई जगह नहीं है इसलिए मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करने के निर्णायक दौर में खुद को पिछड़ों का मसीहा साबित करने वाले मुलायम सिंह ने मुकरे गवाह का रवैया अपनाया तो कोई विचित्र बात नहीं है। मुलायम सिंह जिन डा. लोहिया को प्रेरणास्रोत मानते हैं वे सवर्ण बिरादरी से आये थे लेकिन इसके बावजूद उन्होंने परिवर्तन के लिए दलित और पिछड़ों को हराबल दस्ता बनाने की रणनीति अख्तियार की। इस संबंध में यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि डा. लोहिया ने १९५७ के दूसरे आम चुनाव में अपनी पार्टी का गठबंधन बाबा साहब की पार्टी से करने की पहल की थी और बाबा साहब इसके लिए तैयार भी हो गए थे। लेकिन यह दुर्योग रहा कि चुनाव के पहले ही बाबा साहब के जीवन का अवसान हो गया।बहरहाल बाबा साहब की सोच के अनुरूप राजनैतिक सुधारों को कामयाब बनाने के लिए सामाजिक सुधार का होमवर्क करने के तहत वर्णव्यवस्था के उन्मूलन के लिए डा. लोहिया कार्य कर रहे थे। जिसमें इस व्यवस्था से पीड़ित जातियां या वगॆ उनके स्वाभाविक साथी थे, लेकिन यह कवायद जातिगत गोलबंदी से कहीं बहुत ऊपर थी।
मुलायम सिंह ने लोहियावाद की क्या गत की इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अखिलेश के मुख्यमंत्री बनने के कुछ महीनों बाद उन्होंने लखनऊ की एक सभा में कहा कि समाजवाद की नींव ब्राह्मण समाज ने रखी थी और ब्राह्मण समाज ही समाजवादी विचारधारा का असली पोषक है। इससे न तो तब किसी को गलतफहमी हुई थी कि मुलायम सिंह ब्राह्मण समाज के बहुत बड़े पैरोकार हैं और अब तो बिल्कुल नहीं रही। लेकिन एक अंतरराष्ट्रीय विचारधारा को जाति विशेष से जोड़ने का जो कौशल उन्होंने दिखाया वह केवल गांव स्तर का राजनीतिज्ञ ही कर सकता है, इसमें कोई संदेह नहीं रह गया लेकिन विचारधारा के स्तर पर इस तरह की बेतुकी गोलबंदियों के प्रति अगर उत्तर प्रदेश जैसे प्रबुद्ध राज्य के बुद्धिजीवी रीझने का स्वांग करते रहे हैं तो इसकी एक ही वजह है और वह है इस प्रदेश का धूर्त सामाजिक चरित्र।
भारतीय परंपरा में दिवंगत के प्रति आलोचनात्मक टिप्पणी करने का रिवाज नहीं है इसलिए इस तारतम्य में जनेश्वर मिश्र पर कोई कठोर टिप्पणी करना बहुत से लोगों को अरुचिकर लग सकता है। लेकिन इतिहास का सही निरूपण ही भविष्य उचित दशा निर्धारित करता है इसलिए भारतीय समाज को भावुकता की बजाय इतिहास विवेचन के मामले में निर्मम होने का हुनर सीखना होगा।जनेश्वर मिश्र को जीवन भर छोटे लोहिया के संबोधन से विशेष प्रतिष्ठा मिलती रही। लोहियावाद की जो विशिष्ट पहचान है उसमें समाजवादी विचारधारा के अनुशीलन करने वाले तो बहुत महापुरुष हुए पर उनकी पहचान वंशवाद के कट्टर विरोधी के बतौर रही जो तत्कालीन भारतीय परिस्थितियों में लोकतंत्र के सुचारु प्रवाह की दृष्टि से उनका अत्यंत मौलिक दृष्टिकोण कहा जा सकता है।
लेकिन जनाब छोटे लोहिया ऐसे महापुरुष थे जिन्होंने समाजवादी पार्टी को वंशवाद की परंपरा में आगे बढ़ने की शक्ति प्रदान करते हुए मुलायम सिंह के सुपुत्र अखिलेश के राजनीति में डेब्यू को हरी झंडी दिखाकर मान्यता प्रदान की। स्मरण दिलाना होगा कि अखिलेश की राजनीति में इंटी जिस साइकिल यात्रा के माध्यम से हुई थी उसे तथाकथित छोटे लोहिया ने हरी झंडी दिखाकर रवाना किया था। जनेश्वर मिश्र जैसे आईएसआई मार्का जैसे समाजवादियों के नाते ही मुलायम सिंह के सोशलिस्ट ब्रांड को वैधता प्राप्त हुई। छोटे लोहिया ने अखिलेश को हरी झंडी दिखाते समय केवल मुलायम सिंह के प्रति स्वामी भक्ति का फर्ज़ पूरा किया था। लेकिन उन्हें अंदाजा नहीं था कि यह लड़का आगे चलकर उनकी पथभ्रष्ट शुरुआत को उत्तर प्रदेश की राजनीति को सही पटरी पर लाने का सूत्रधार बनेगा।
लेखक जाने-माने हिन्दी पत्रकार और और झाँसी टाइम्स के प्रधान संपादक हैं।
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