पौराणिक मिथक बुद्धि विलास की उपज भर नहीं है, अगर आपके पास दृष्टि है तो मिथक सारगर्भित है। हर समकालीन संदर्भ को समझने के लिए सूत्र देते हैं। भारतीय समाज की वर्णाश्रम पद्धति को कर्म (श्रम) विभाजन की व्यवस्था माना जाता है।
गाँधी जी ने डॉ. अंबेडकर के सामने वर्णाश्रम पद्धति की पैरवी के लिए यही दलील दी थी। हालांकि, डॉ. अंबेडकर ने इसे नामंज़ूर करते हुए कहा था कि यह श्रम विभाजन की ना होकर श्रमिक विभाजन की व्यवस्था है। अनुमान यह बताता है कि पहला वर्ण ब्राह्मण के रूप में बना।
दार्शनिक प्रवृत्ति के वे लोग जो गाय चराते समय शाम ढलने पर क्लांत होकर विश्राम की अवस्था में आसमान की ओर निहार रहे होते थे और जब उन्हें तारामंडल में एक पिण्ड टूटकर कहीं गुम होता दिखाई देता था तो उनमें बौद्धिक बेचैनी जाग जाती थी कि क्षितिज पर रात ढलते ही सारे उल्का पिंड कहां से आ जाते हैं और कोई टूटी हुई उल्का कहां चली जाती है। इस दार्शनिकता को लोगों में स्वतः स्फूर्त प्रतिष्ठा मिलने लगी।
ऋषियों को समाज की देखरेख की ज़िम्मेदारी मिली
दार्शनिक मिजाज़ के व्यक्ति को असाधारण मानकर श्रद्धा केंद्र बनाया जाने लगा तो गुरुता की अनुभूति से त्याग और सयंम के गुणों को अपने में निखारने की ओर उनकी उन्मुखता स्वाभाविक थी सामाजीकरण और राज्य व्यवस्था के उदय के साथ नियम और अनुशासन के तंत्र की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी। स्वयं में सर्वोच्च नैतिकता के प्रतिमान दार्शनिक रुझान के इन त्यागी तपस्वियों को समाज में अनुशासन का कार्यभार सहज ही सौंप दिया गया।
इस तरह न्यायिक संवर्ग के रूप में ऋ़षि स्थापित हुए। दार्शनिक जिज्ञासाओं और उनके समाधान को ब्रहम ज्ञान के रूप में परिभाषित किया गया। इस तरह वर्ण व्यवस्था के अस्तित्व में आने पर ऋषि, ब्राह्मण की गुणवाचक संज्ञा से पहचाने जाने लगे। शायद प्रारंभ में ब्राह्मण संवर्ग वंशानुगत नहीं था।

उस समय भौतिक संसाधनों के विकास और उनके स्वामित्व की स्थिति नहीं आई थी इसलिए गौरव का मूल्य सर्वोच्च था। ब्राह्मण होने के नाते समाज में अपने पिता के गौरवपूर्ण स्थान से ऋषियों की संतानें भी इस व्रत का वरण करने के लिए आकर्षित हुईं। हालांकि, संयम की अपरिहार्यता ने ब्राह्मण संवर्ग का जीवन अत्यंत प्रतिबंधित बनाकर कठिन कर दिया था। इस तरह जब यह संवर्ग जन्मजात आधार पर रूढ़ हो गया तो कई जटिलताएं सामने आईं।
बहुमुखी प्रतिभा वाली ब्राह्मण/ऋषि संतानें मर्यादा के नाम पर आरोपित निषेधों से उद्वेलित होकर विद्रोह करने लगीं। विद्रोह की पहली कथा महर्षि भृगु की है, जिनका पराक्रमी स्वभाव चिंतन की मर्यादा तक बंधे रहने तक की स्थिति को स्वीकार नहीं कर पा रहा था और यह स्थिति विष्णु से उनकी टकराव का कारण बन गई। उन्होंने एक दिन उग्र होकर विष्णु की छाती पर पैर मारकर करके उन्हें सन्न कर दिया। इसके बाद भृगुकुल के ऋषि वंशजों को शूरवीरता के उद्यम का भी अधिकार मिल गया।
ऋषियों को राजकुल की बेटियां ब्याही जाती थी। भृगु के वंशज परशुराम की मां रेणुका के बारे में तो सभी जानते हैं कि वे राजपुत्री थीं। लेकिन उनकी दादी सत्यवती भी राजकुल की थी जो राज ऋषि विश्वामित्र की बहन कही जाती हैं। भृगुकुल में एक बार फिर परशुराम को मर्यादा के नाम पर राजकोप का सामना करना पड़ा। सहस्त्रार्जुन उन राजाओं में से था जिसे ऋषियों का शौर्यकर्म सहन नहीं था।
इसी विरोध की वजह से उसने परशुराम के पिता जमदग्नि की हत्या कर दी। क्रुद्ध होकर परशुराम ने सहस्त्रार्जुन का वंशनाश करके ऐसा प्रतिशोध लिया कि सारा भू-मंडल कांप गया। परशुराम उस समय की आधुनिक शस्त्रकला में इतने पारंगत थे कि भीष्म, कर्ण आदि महारथियों को उन्होंने ही अमोघ शस्त्रों के संचालन का प्रशिक्षण दिया था।
क्या है ब्राह्मण की परंपरा की शुरुआत?
द्रोणाचार्य भी परशुराम के शिष्य थे जिन्होंने बाद में कौरवों और पांडवों को शस्त्र संचालन सिखाया था। फिर भी ऋषियों ने सत्ता के द्वारा में प्रवेश न करने का व्रत नहीं तोड़ा क्योंकि उन्हें अपनी उस महत्ता का बोध था जो सत्ता की महत्वाकांक्षा से निर्लिप्त रहने के कारण ही प्रदत्त थी। संपत्ति और उसके स्वामित्व की व्यवस्था के सूत्रपात के साथ हर वर्ग के लिए जीविका के साधन नियत होने लगे। ऋषि से ब्राह्मण के बाद पंडित, पुरोहित के यात्रा की चरण की इस कहानी को समझा जा सकता है।
पूजा-पाठ और कर्मकांड केवल राजप्रसादों तक सीमित नहीं थे। आम आदमी की दिनचर्या में भी यह उद्यम अभिन्न था। राज पुरोहितों की बात अलग थी लेकिन आम जजमानों के यहां पुरोहितायी करने वाले साधारण ब्राह्मण नगण्य दक्षिणा मिलने से भौतिकता की दौड़ में बुरी तरह पिछड़ रहे थे।
आज़ादी की लड़ाई के समय के कथा साहित्य में वर्णन मिलता है कि बिहार के कुलीन मैथिल ब्राहमणों को समाज में भले ही अत्यंत पूज्यनीय स्थान प्राप्त हो लेकिन उन्हें घोर दरिद्रता का जीवन जीना पड़ रहा था। पहनने के लिए उनके पास सिर्फ एक धोती की व्यवस्था होती थी। जिसे वे नहाकर खाट खड़ी करके उस पर सूखने के लिए बिछा देते थे और तब तक खाट के पीछे नग्न बैठे रहते थे जब तक कि धोती सूख नहीं जाती थी। महत्वाकांक्षाओं का संवरण ऋषिकुल के वंशजों यानि पंडितों के लिए विडंबना बन गया था।
जवाहरलाल नेहरू ब्राह्मणवादी थे?
देश के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू पर ब्राह्मणवाद को भारी प्रोत्साहन देने का आरोप लगाया जाता था। चौधरी चरण सिंह जैसे नेताओं ने कई बार उनकी इस बात पर भर्त्सना करते हुए उन्हें पत्र लिखे थे। दरअसल पं. नेहरू की धर्मनिरपेक्ष राजनीति ने जब ब्राह्मणों का कर्मकांडों से मोह भंग किया तो वे आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की ओर अग्रसर हो गये।
प्रतिभाशाली और बौद्धिक होने के कारण ब्राह्मणों को इसका लाभ यह मिला कि वे नौकरशाही से लेकर राजनीति तक नेहरू काल में उच्च पदों पर छाते चले गये। आज जब धर्म सत्ता की राजनीति का मुहावरा चलन में है तो भारतीय समाज फिर एक अलग मोड़ पर जाकर खड़ा हो गया हैं। परंपरा से भारतीय समाज को जो चेतना मिली है उसमें ब्राह्मणों के लिए सत्ता से वर्जना की दृष्टि घुट्टी की तरह शामिल है।

यह सोच भारतीय समाज की ग्रंथि बन चुका है। हो सकता है कि यह सिर्फ संयोग हो लेकिन यह सच है कि जब धार्मिक हस्तियों का पदार्पण और वर्चस्व राजनीतिक सत्ता में शुरू हुआ तो साधु, संत, महंत, साध्वी के कोटे से विधायक, सांसद से लेकर मंत्री, मुख्यमंत्री बनने वालों में विरला ही कोई ब्राह्मण होगा। ब्राह्मणों के तपोवन से सृष्टि चलती है और तपोवन सत्ता के स्पर्श से खंडित होता है। इसलिए सत्ता से विराग की जो लक्ष्मण रेखा ब्राह्मणों ने स्वेच्छा से अपने लिए वरण की थी वह कहीं ना कहीं उनके लिए बाध्यकारी समझ ली गई है।
मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में भले ही भगवान राम देखे जाते हों लेकिन सत्य यह है कि भारतीय सामाजिक व्यवस्था ब्राह्मणों की मर्यादा पर टिकी हुई है। यह स्थिति आदर्श और यथार्थ के टकराव का एक नया मोर्चा खोल सकती है। भगवान परशुराम की कथा इस समकालीन संदर्भ में नए सिरे से प्रासंगिक दिखाई देने लगी है। राजनीति में चूंकि ब्राह्मण बेहद असरदार भूमिका निभा रहे हैं इसलिए इस क्षेत्र में उनके औचित्य पर प्रश्न चिन्ह लगाए जाने से घर्षण होगा। ब्राहमण राजनीति को किस अंजाम पर ले जाएगा इसका विवेचन रोचक हो सकता है।
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