एक जिला, चार विधानसभाएं, चारों विधानसभाएं सत्ता की और उत्तर प्रदेश सरकार में दो विधायक कैबिनेट मंत्री भी हैं। एक लोकसभा क्षेत्र भी है और सांसद साहब भी रूलिंग पार्टी के और मेरे तो शहर के चेयरमैन भी सत्ता वाली पार्टी के ही हैं। मतलब लगभग पूरा इलाका सत्ता के हाथ में है फिर भी हालात गंभीर। उसी जिले की एक विधानसभा है “हसनपुर”, जो मेरा शहर है। एक ठीक-ठाक छोटा सा खूबसूरत शहर, दिल्ली से करीब 100 किलोमीटर दूर ये औद्योगीकरण रहित क्षेत्र राष्ट्रीय राजमार्ग से महज़ 12 किलोमीटर की दूरी पर है।

जो लोग यहां रहते हैं उनको शायद हसनपुर में बदलाव की कोई चाह नहीं है, बस किसी तरह गाड़ी चल रही है। जो लोग यहां से पढ़कर आगे की पढाई करने बाहर चले जाते हैं, वो हर किसी की तरह अपनी ही ज़िन्दगी में कहीं फंसे रह जाते हैं और शहर से धीरे धीरे उनका संपर्क टूट जाता है। वो लोग अपने पैत्रिक स्थान को नज़र अंदाज़ करते हुए किसी बड़े शहर से खुदको बेवजह जोड़ने की कोशिश करते हैं। मैं भी उसी भीड़ का एक हिस्सा हूं।
बिजली आम दिनों में वहां दो-तीन घंटे आती है और चुनाव के करीब आते-आते चार-पांच घंटे हो जाती है। एक मेले की तरह चुनाव में जगह-जगह रैली चल रही होंगी, वहां लोग प्रचार के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल नहीं करते। लेकिन बिना उसके भी अच्छी खासी राजनीति जानते हैं। न तो वो रेलवे स्टेशन की बात करते हैं न डिग्री कॉलेज खोलने की। बस खुदको जुझारू और शिक्षित बताकर चुनाव जीत जाते हैं।
अगर आप हसनपुर में हैं और आपको रात में कहीं जल्दी में निकलना है तो दस बजे के बाद बस मिलने में कितना भी टाइम लग सकता है। वहां सरकारी बस स्टैंड है, लेकिन पूरी तरह से निजी बस सर्विस के हाथ में है। पूरे दिन में शायद ही कोई उत्तर प्रदेश परिवहन की बस जाती होगी। आज भी वहां ग्रामीण बस सेवा का रिवाज है जिसे 12 किलोमीटर का रास्ता तय करने में भी करीब 45 मिनट लगते हैं।

अगर शहर के हल्का सा बाहर जायेंगे तो बाई पास से आपको रोडवेज का मिलना भी निश्चित नहीं है। आपको बता दूं कि 2012 के बाद हमारे जिले के एक विधायक उत्तर प्रदेश सरकार में परिवहन मंत्री भी रह चुके हैं। लेकिन अगर हाल बदहाल हो तो मुख्यमंत्री भी किस काम का।
सड़कें और गड्ढो में कुछ ख़ास अंतर नहीं है। बारिश में शहर में पानी को घुटनों तक आने में ज्यादा समय नहीं लगता। लेकिन उत्तर प्रदेश के विकास की कहानी को, हमारी मीडिया केवल लखनऊ और बड़े शहरों से आंकती मालूम पड़ती है। वहां के पत्रकार, पत्रकार कम हर छोटे शहर की तरह नेताओ के चेले ज्यादा लगते हैं।

ये एक बहुत ज्यादा “अनमैनेज्ड” सा शहर है। पिछली सरकार में भी जो हमारे विधायक जी हुआ करते थे, उन्हें भी बस चुनाव से पहले देखा गया था। फिर बाद में उनकी सेहत और गाड़ियों का स्तर ही बढ़ता चला गया था। मतलब विकास तो हुआ है, लेकिन बस एक परिवार का।
वहां जिनके पास पैसा है या थोड़े काम धंधे वाले लोग हैं उनका काम तो चल ही रहा है और चलता भी रहेगा, लेकिन एक आम जन का जीवन वहां थोडा आश्चर्य वाला है। प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री जी जितने भी गैस या घर देने की योजना शुरू कर लें, लेकिन वहां आज भी कई कच्चे घरों में लकड़ी का चूल्हा जलता है। आस-पास के कई गांव आज भी ऐसे हैं जहां 5 किलोमीटर तक पैदल चलने के बाद ही कोई सवारी मिल पाती है।

एक इंटर कॉलेज है, एक डिग्री कॉलेज। सी.बी.एस.ई. का एक स्कूल भी है जो अभी कुछ ही साल पहले शुरू हुआ है। बाकी के स्कूल लगभग 12 किलोमीटर की दूरी पर हैं। तहसील है, जो खचाखच भरे एक बाज़ार में है। चौक भी कई सारे हैं, जैसे इंदिरा चौक, अम्बेडकर चौक लेकिन अतिक्रमण हटाने का या एक सिस्टम से चलने से न तो शहर प्रशासन को मतलब है और न ही सरकार को।
फोटो आभार: फेसबुक पेज हमारा शहर हसनपुर.
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