पिछले कुछ महीनों से मुस्लिम महिलाओं के हवाले से तीन तलाक और बहुविवाह पर खूब चर्चा हो रही है। अगले कुछ दिनों तक हम इस मुद्दे से जुड़े अलग-अलग पहलुओं पर वरिष्ठ पत्रकार नासिरूद्दीन की टिप्पणियां प्रकाशित करेंगे।
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दसियों साल से भारतीय मुसलमान एक ऐसी बहस पर अटके हैं, जिसे बहुत पहले खत्म हो जाना चाहिए था। यह काम भी मुसलमानों को खुद ही कर लेना चाहिए था। नतीजतन, बहस रह-रह कर सर उठाती है। बहस है, क्या इकतरफा, एक साथ और एक वक्त में ज़बानी तलाक-तलाक-तलाक कह देने से मुसलमान जोड़ों के बीच का शादीशुदा रिश्ता हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा? अगर हो जाएगा तो यह 21वीं सदी में मानव अधिकारों की दुनिया में किस पैमाने पर किस रूप में देखा जाएगा?
तलाकशुदा ज़िंदगी
उत्तराखण्ड की रहने वाली शायरा बानो की शादी 2002 में हुई। शादी के लिए दहेज देना पड़ा। शादी के चंद रोज़ बाद ही और ज़्यादा दहेज की मांग शुरू हो गई। जब ये मांग पूरी न हुई तो उस पर जुल्मो-सितम किए गए। उसके शौहर ने लगभग 15 साल तक शायरा बानो को मानसिक और शारीरिक रूप से परेशान किया। मारता- पीटता था। बार-बार तलाक की धमकी देता था। तलाक के डर और समाज की वजह से वह सब सहती रही। खबरों के मुताबिक, उसे ऐसी दवाएं दी गईं, जिससे उसके कई एबॉर्शन हो गए। वह हमेशा बीमार रहने लगी। पहले उसे जबरन मायके भेजा गया। फिर 2015 के अक्टूबर में बिना उसकी जानकारी के इक्ट्ठी तीन तलाक देकर शौहर ने उससे मुक्ति पा ली। शायरा बानो के बच्चे भी शौहर ने जबरन अपने पास रख लिए हैं। उनसे सम्पर्क भी नहीं करने देता है। शायरा ने ही सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर तलाक के इस रूप यानी एक साथ इकतरफा तलाक को खत्म करने की मांग की है।
इसी तरह, लखनऊ की रज़िया की कहानी है। शादी के कुछ महीनों बाद शौहर कमाने के लिए सऊदी अरब चला जाता है। इस बीच रज़िया एक बच्चे की मां बन जाती है। शौहर के सऊदी अरब जाते ही परिवार की आमदनी बढ़ जाती है। ससुराल वालों को लगता है कि वे अपने बेटे की ज्यादा दहेज वाली शादी कर सकते हैं। अचानक एक दिन रज़िया को उसके ससुराल वाले बताते हैं कि शौहर ने उसे सऊदी से टेलीफोन पर तलाक दे दिया है। एक पल में रज़िया की जिंदगी बदल दी जाती है। फिर भी उसे यकीन नहीं होता है। वह चार सालों तक इंतज़ार करती हैं। जब शौहर लौटता है, तो उसके पास नहीं लौटता। वह दूसरी शादी करने के लिए लौटता है। रज़िया की उम्मीद खाक में मिल जाती है। बेवक्त एक साथ तीन तलाक की ऐसी घटनाएं, कई मुसलमान महिलाओं की जिंदगी का सच है।
तलाक के तरीके
तलाक के इस रूप को इस्लामी कानून की ज़बान में तलाक-ए-बिदत या तलाक-ए-बिदई कहते हैं। यानी तलाक का ऐसा तरीका जो कुरान और हदीस में नहीं मिलता है। तलाक देने के तरीकों में इसे सबसे बुरा माना जाता है। इस्लामी कानून में भी तलाक देने का सिर्फ यही तरीका नहीं है। यह भी कहा जाता है कि यह तरीका गुनाह है। यही नहीं, शादी खत्म कर देने के लिए तीन बार तलाक बोला जाना भी ज़रूरी नहीं है।
इस्लाम में तलाक के कई तरीके हैं। यह उनमें से यह एक है। पहला तरीका है, तलाक-ए-अहसन। इसे सबसे अच्छा तरीका माना गया है। यह तीन महीने के अंतराल में दिया जाता है। इसमें तीन बार तलाक बोला जाना जरूरी नहीं है। एक बार तलाक कह कर तीन महीने का इंतज़ार किया जाता है। तीन महीने के अंदर अगर-मियां बीवी एक साथ नहीं आते हैं तो तलाक हो जाएगा। हालांकि अगर मियां-बीवी दोबारा चाहें तो इसके बाद दूसरी बार शादी कर सकते हैं।
दूसरा तरीका तलाक-ए-हसन कहलाता है। इसमें तीन महीनों में माहवारी के दौरान बारी-बारी से तलाक दिया जाता है। इस तलाक के बाद मियां-बीवी दोबारा शादी नहीं कर सकते हैं। शादी होने की एक शर्त है। जब तक वह शर्त पूरी न हो, शादी नहीं हो सकती है। इस शर्त को हलाला कहते हैं।
तलाक के तीसरे रूप यानी तलाक-ए-बिदत या तलाक-ए-बिदई का ज़िक्र ऊपर किया जा चुका है। तलाक-ए-बिदई तुरंत लागू हो जाता है। मियां-बीवी को किसी तरह की सुलह की गुंजाइश नहीं मिलती है।
तलाक-ए-अहसन और तलाक-ए-हसन दोनों के दौरान में मियां-बीवी के बीच सुलह की गुंजाइश बनी रहती है। इसीलिए उलमा इन दोनों को सबसे बेहतर मानते हैं। इसीलिए इन दोनों रूपों को तलाक-उस-सुन्नत के रूप में रखा जाता है। तलाक-उस-सुन्नत यानी तलाक के ऐसे रूप जिसकी प्रक्रिया या नियम पैगम्बर हज़रत मोहम्मद की परम्परा (सुन्नत) से तय हुई है। तलाक-ए-बिदई जो बाद में तलाक के तरीके के रूप में आया है।
सुलह की गुंजाइश और मौलाना आज़ाद
यही नहीं, तलाक की बुनियाद, जोड़ों के बीच मतभेद या लगाव न होने का नतीजा होती हैं। इसीलिए तलाक की इजाज़त देने से पहले इस्लाम इस बात की पैरवी करता है कि जोड़े सुलह की गुंजाइश तलाशें। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद कुरान की अपनी तफ्सीर ‘तर्जमानुल कुरान’ में एक आयत के हवाले से कहते हैं, ‘अगर ऐसी सूरत पैदा हो जाए कि अंदेशा हो शौहर और बीवी में अलगाव पड़ जाएगा। फिर चाहिए कि खानदान की पंचायत बिठाई जाए। पंचायत की सूरत यह हो कि एक आदमी मर्द के घराने से चुन लिए जाएं और एक औरत के। दोनों मिल कर सुलह कराने की कोशिश करें।’
अगर सुलह न हो पाई तब? तलाक इस सुलह के नाकाम होने के बाद का अगला कदम है। पैगम्बर हज़रत मोहम्मद की हदीस है, ‘खुदा को हलाल चीज़ों में सबसे नापसंदीदा चीज़ तलाक है।’ फिर भी इसकी नौबत आ गई है तो मौलाना आज़ाद ने इसी किताब में तलाक से जुड़ी आयत के हवाले से लिखा है, ‘तलाक देने का तरीका यह है कि वह तीन मर्तबा, तीन मजलिसों में, तीन महीनों में और एक के बाद एक लागू होती हैं। और वह हालत जो कतई तौर पर रिश्ता निकाह तोड़ देती है, तीसरी मजलिस, तीसरे महीने और तीसरी तलाक के बाद वजूद में आती है। उस वक्त तक जुदाई के इरादे से बाज़ आ जाने और मिलाप कर लेने का मौका बाकी रहता है। निकाह का रिश्ता कोई ऐसी चीज़ नहीं है कि जिस घड़ी चाहा, बात की बात में तोड़ कर रख दिया। इसको तोड़ने के लिए मुख्तलिफ मंज़िलों से गुज़रने, अच्छी तरह सोचने, समझने, एक के बाद दूसरी सलाह-मशविरा की मोहलत पाने और फिर सुधार की हालत से बिल्कुल मायूस होकर आखिरी फैसला करने की ज़रूरत है।‘ (तर्जुमानुल कुरान, खण्ड दो, पेज 196-197)
पैगम्बर हज़रत मोहम्मद के वक्त तलाक़
कुछ और चीजें भी देखते हैं। जैसे पैगम्बर हज़रत मोहम्मद के वक्त में तलाक का क्या तरीका अपनाया गया होगा? एक हदीस है, ‘महमूद बिन लबैद कहते हैं कि रसूल को बताया गया कि एक शख्स ने अपनी बीवी को एक साथ तीन तलाकें दे दी हैं। यह सुन कर पैगम्बर मोहम्मद बहुत दुःखी हुए और फरमाया, क्या अल्लाह की किताब से खेला जा रहा है। वह भी तब कि जब मैं तुम्हारे बीच मौजूद हूं।’ मौलाना उमर अहमद उस्मानी ‘फिक्हुल कुरान’ में बताते हैं कि पैगम्बर हजरत मोहम्मद के ज़माने में अगर तीन तलाकें एक साथ दी जाती थीं तो वह एक तलाक ही शुमार की जाती थी।
अंदाज़ा लगाइए इस्लाम, शादी न चल पाने की सूरत में अलग होने का यह तरीका सदियों पहले बता रहा था। वह शादी के रिश्ते को सड़ने देने का हामी नहीं है। कुरान ने जो तरीका बताया, उसे तलाक-ए-हसन या रजई या अहसन कहा गया है। इन्हें सबसे बेहतरीन तरीका भी माना गया है। अब अगर इस तरीके को छोड़ कर कुछ और अपनाया जाए तो यह किस शरीअत की हिफाज़त कही जाएगी?
ऐसा नहीं है कि सभी हिन्दुस्तानी मुसलमान एक वक्त में एक साथ दिए गए तीन तलाक को सही मानते हैं। मुसलमानों के कुछ तबके हैं, जो इसे नहीं मानते हैं। वह प्रक्रिया पूरी करने पर ज़ोर देते हैं। सवाल है, अगर वे मान सकते हैं तो बाकि लोग क्यों नहीं?
मिस्र ने ऐसे तलाक से 1929 में ही छुटकारा पा लिया था। इसके अलावा पाकिस्तान, बांग्लादेश, तुर्की, ट्यूनिशिया, अल्जीरिया, कुवैत, इराक, इंडोनेशिया, मलेशिया, ईरान, श्रीलंका, लीबिया, सूडान, सीरिया ऐसे मुल्क हैं, जहां तलाक कानूनी प्रक्रियाओं से गुज़र कर पूरा होता है।
दुनिया में इस्लाम पहला ऐसा मज़हब था जिसने शादी को दो लोगों के बीच बराबर का करार बनाया। अगर निकाह एक खास प्रक्रिया के बिना पूरी नहीं हो सकती तो बिना किसी प्रक्रिया के एकबारगी सिर्फ तीन बार तलाक-तलाक-तलाक कह देने से निकाह खत्म कैसे हो जाना चाहिए? यही नहीं, यह कैसी विडम्बना है कि शादी या तलाक की जो प्रक्रिया इस्लाम ने तय की थी उसकी झलक नए जमाने के कानूनों में तो दिखती है लेकिन मुसलमानों ने ही उसे छोड़ दिया है। वह तरीका अपना लिया है, जिसे सबसे बदतरीन तरीका माना गया है।
पूरी बहस और जद्दोजेहद इस एक वक्त की एक साथ ज़बानी तलाक को खत्म करने की है। बेहतर हो कि इकतरफा एक साथ तीन तलाक देने के तरीके को मुसलमान खुद ही खत्म करें। यह सही तरीका नहीं है। वरना शायरा या रज़िया जैसी अदालत की चौखट पर जाएंगी ही। वे जा रही हैं।
(ये लेख ‘प्रभात खबर’ में छपी टिप्पण्णी का विस्तार है)
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