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“लोकतंत्र का गंभीर बने रहना नेहरू की ही देन है”

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विवेक राय:

2014 में मैंने पंडित नेहरू को, उनके 125 वे जन्मदिवस पर इन शब्दों में परिभाषित किया था-
“You are a policy for criticism, You are a subject for discussion,

You are a dream for debate, You are a book for studying,
You are a memory for remembering, You are a personality for thinking. Yeah!! You are a leader for respect.”

आज़ाद भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू, सच्चे मायनों में धर्मनिरपेक्ष, आधुनिक और लोकतांत्रिक मूल्यों को जीने वाले मानवतावादी नेता। पंडित नेहरू ने जब देश की कमान संभाली थी तब उन्होंने देश की राजनीतिक व्यवस्था को एक संयुक्त जवाबदेही का रूप देने का प्रयास किया ताकि हर विचार और विचारधारा का योगदान देश के निर्माण में लिया जा सके। उन्होंने एक आलोचनात्मक संवाद को भी स्थापित किया। नेहरू ये जानते थे कि भारत ‘एक विचार’, ‘एक संस्कृति’, ‘एक धर्म’, ‘एक भाषा’ नहीं है बल्कि ये विभिन्न जीवनशैलियों का देश है, जहां ‘एकाधिकार’ किसी का नहीं ‘सर्वाधिकार’ सभी का है। वो मानते थे और आज ये साबित हो गया है कि ‘ये सारी विविधताएं’ केवल लोकतांत्रिक व्यवस्था में ही एक साथ रह सकती हैं, जहां सभी को आज़ादी हो और वो देश के महत्व को खुद ही समझें।

नेहरू चाहते तो आज़ादी में योगदान न देने वालों या उसका विरोध करने वालों को सहज ही ‘देश के गद्दार’ घोषित कर सकते थे और एक ‘बिना विरोध’ का शासन कर सकते थे। लेकिन उन्होंने उदारवादी रवैया अपनाया और साम्यवादियों और कट्टरपंथियों के लिए लोकतांत्रिक चुनावी व्यवस्था में शामिल होने के दरवाज़े खोले। उन्होंने आज़ाद भारत को सबके लिए सुनिश्चित किया, उन्होंने कभी किसी को गद्दार नहीं कहा, किसी को कोसा नहीं। उन्होंने भारत के आदिवासियों के लिए ‘पंचशील’ की अवधारणा रखी जहां उनकी संस्कृति, सभ्यता को सुरक्षित रखने की प्रतिबद्धता व्यक्त की गयी।

नेहरू को देश के बंटवारे का ज़िम्मेदार माना जाता है, कि वो प्रधानमंत्री बनना चाहते थे इसलिए उन्होंने पाकिस्तान बनने दिया। पर सच तो ये है कि मोहम्मद अली जिन्ना पूरी तैयारी के साथ पाकिस्तान की मांग ले कर आये थे। पाकिस्तान का विचार या ‘द्विराष्ट्र सिद्धांत’ उन मुस्लिम-हिन्दू कट्टरपंथी संगठनों की देन था, जो धार्मिक संख्या बल पर लोकतांत्रिक एकाधिकार चाहते थे। नेहरु का प्रधानमंत्री बनना देश का सौभाग्य रहा है, क्योंकि लोकतंत्र का गंभीर और मूल बने रहना नेहरू की ही देन है।

कुछ लोग कहते हैं सरदार पटेल को प्रधानमंत्री बनना चाहिए था, पर पटेल भारत की रियासतों को ‘भारतीय गणराज्य’ में मिला पाए क्योंकि उनके पास एक ‘विचार’ था, जो नेहरू का ही था। नेहरू-पटेल के मतभेद आपसी महात्वाकांक्षाओं का टकराव नहीं था, बल्कि वो ‘देश को बेहतर दिशा देने के लिए एक संवाद था’, यही कारण है कि दोनों सामंजस्य के साथ काम कर सके।

नेहरू की आलोचना होनी चाहिए पर ये भी मानना होगा जिस आलोचना को हम कर रहे हैं, उसका माहौल नेहरू की ही देन है। वो पश्चिम से प्रभावित तो थे, पर उनका दृष्टिकोण सभी विचारधाराओं के लिए सम्मान का था। वो विवधताओं से भरे देश को ‘एक लोकतांत्रिक राष्ट्र’ की पहचान दुनिया को देना चाहते थे और वो थी ‘लोकतांत्रिक व्यवस्था का भारतीय संस्करण’। लोग आज भी ताज्जुब करते हैं कि कैसे इतनी विविधताओं के बावजूद भारत के लोग एक साथ रह लेते हैं।

नेहरू एक अमीर व्यक्ति थे पर बावजूद इसके उनके विचार उतने ही धनी, उदार और निर्भीक थे। वो ऐसी युवा सोच थे कि जहां हर कोई साथ आ सकता था। शहीद-ए-अज़ाम भगत सिंह ने भी कई बार ‘नेहरू’ को ही भारत का सुरक्षित भविष्य बताया।

नेहरू इंसान थे तो ज़ाहिर है उनमे भी कुछ कमियां रही होंगी, उनकी कुछ नीतियां शायद लाभदायक साबित नहीं हुई हों, पर उन्होंने कभी भगवान बनने की कोशिश नहीं की। उन्होंने कभी अपने योगदान को नहीं जताया, वो चार घंटे ही सोते थे पर कभी खुद के शब्दों से ये ज़ाहिर नहीं किया। नेहरू कभी किसी मंदिर, मस्ज़िद नहीं गए वो ‘एग्नोस्टिक’ (संशयवादी) थे, उन्होंने किसी धर्म को खुद की भारतीयता से ऊपर नहीं चढ़ने दिया। वो बड़े वादे नहीं करते थे, वो खुद की समीक्षा करने का साहस रखते थे।

एक बार एक शरणार्थी महिला ने नेहरू की गला पकड़ कर गुस्से में पूछा “मेरा सब चला गया, बोलो क्या मिला मुझे आज़ादी से?” कुछ लोग नेहरू को बचाने आगे बढ़े, नेहरू ने उन्हें रोका फिर उस महिला से कहा “पहले मेरा गला तो छोड़ो तभी तो बताऊंगा।” जब उस महिला ने अपनी पकड़ ढीली की तब नेहरू ने उत्तर दिया “आज़ादी से तुम्हे ये मिला कि आज तुम अपने देश के प्रधानमंत्री का गला पकड़ कर सवाल कर सकती हो।”

एक बात और, आलोचना का मतलब किसी को पूरी तरह नकारना नहीं होता पर दुर्भाग्य, आज के दौर में जहां मीडिया, सरकार, राजनैतिक दल, ट्विटर-फेसबुक, वेबसाइट्स आदि खुद के प्रामाणिक होने का दावा करते हैं। वहां खुद की ‘बुद्धिमत्ता’ सिर्फ सुन कर राय बनाने के कारण उपेक्षित हो जाती है। लोकतंत्र का मतलब राजनीतिक विरोध ही नहीं बल्कि सामंजस्य भी है, सद्भाव भी है। आज दुनिया को नेहरू से सीखने की ज़रूरत है। आज दुनिया के लोकतंत्र में  ‘बड़बोले, अभिमानी और स्वघोषित महान’ नेताओ की भरमार है, जो सत्ता को ‘शक्ति’ और ‘ताकत’ मान कर निर्णयों को देश पर विसंगतियों के बावजूद लाद देते हैं। ऐसे नेता अतीत की विफलताओं का राग अलाप कर खुद को प्रासंगिक रखते हैं।

भारत के प्रथम प्रधानमंत्री स्वर्गीय पंडित जवाहरलाल नेहरू को उनके 127वें जन्मदिवस पर कृतज्ञ श्रद्धांजलि। और अंत में-

ये देश कोई ज़मीन का टुकड़ा नहीं, ये कोई धर्म की सत्ता नहीं, न ही जाति की जागीर,
ये देश तो है हम और तुम, वो सभी मज़दूर जो दिन-रात खटते है, वो किसान जो मिटटी में सन कर करते है श्रृंगार;
ये देश कब हिन्दू हुआ कब मुसलमान, ये तो सियासत की बातें हैं,
सवाल सिर्फ यही है कि कब ये देश किसान होगा, कब बन पायेगा मेहनतकश मज़दूर और रोजगार के साथ युवा;
वो भारत माता कब लज़्ज़ित न होगी होते बलात्कार और दहेज़ हिंसा पर;
ये देश कोई नेता नहीं, ये देश कोई पूंजीपति नहीं न ही कोई राजनीतिक दल,
ये देश तो है ऊंचे पर्वत, बहती शुद्ध नदियां और हरियाली बिखेरते घने जंगल;
ये देश कोई ज़मीं का टुकड़ा नहीं, किसी राजा की रियासत नहीं, न ही है कोई युद्ध का मैदान;
ये देश है यहां के शिक्षक, यहां के बच्चे और यहां के जवान,
कोई कहता है धर्म खतरे में है, कोई कहता है संस्कृति खत्म हो रही है;
पर रोज़ मरता किसान, कुचले जाते मज़दूर…अरे देखो एक औरत अर्थी के सामने बैठी रो रही है…
हर रोज़ खतरे में इंसान है और यहां मज़हब की बात हो रही है,
समझो कि देश कोई विवाद नहीं, कोई तनाव नहीं;
देश है हम तुम और यहां के लोग जो गैरज़िम्मेदार नहीं है,
मौन है देश अब भी, आओ एक आवाज़ बनो,
बहुत हुई अब मनमर्ज़ी अब कुछ देश की बात करो,
युवा हैं तो युवाओ की तरह देश को अब युवा करें;
तुम हम बनकर देश, इस देश को जीवित करें…

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