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डियर रवीश कुमार, हिंदी अखबारों में सिर्फ कूड़ा नहीं छपता

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प्रिय रवीश जी,
आपका ब्लॉग पढ़ा, जिसमें आपने हिन्दी अखबारों की रिपोर्टिंग को लेकर चिंता ज़ाहिर की है। हालांकि आपकी बातों से काफी हद तक सहमति रखता हूं, लेकिन दिक्कत ये है कि उस लेख में आपने दिल्ली के या फिर राजधानियों के हिन्दी अखबार जैसे शब्द नहीं बोले हैं। इसलिए उसे मैं पूरी हिन्दी अखबार की पत्रकारिता पर सवाल मानकर चल रहा हूं और चूंकि आपने अपने लेख के हेडिंग में ही सवाल पूछा है तो मुझे लगता है उसका जवाब दिये जाने में कोई बुराई नहीं है। एक तो आपने शुरू में अपने ब्लॉग की पहुंच दस-बीस हजार लोगों तक होने को ही बताया है तो मुझे लगा मेरी पहुंच तो बीस लोगों तक भी बमुश्किल है, इसलिए ‘यूथ की आवाज’ के सहारे आप तक और आपके पाठकों तक अपनी बात पहुंचाने की कोशिश कर रहा हूं।

आपके लेख के साथ दिक्कत है कि आप दिल्ली व्यू से पूरे हिन्दी अखबारों को देख रहे हैं। जबकि सच्चाई है कि अगर रिपोर्टिंग कहीं हो रही है तो वो इन्हीं हिन्दी अखबारों के छोटे-छोटे संस्करणो में हो रही है। खुद आप लगातार अपने कार्यक्रम/रिपोर्टिंग का कोई असर नहीं होने को लेकर चिंतित रहते हैं, जबकि वहीं इसके उलट इन जिलों-कस्बों के रिपोर्टरों की हर खबर का अपना असर होता है। बहुत सारे छोटे-छोटे अखबारों के ईपेपर मौजूद हैं, आप जाकर देख लीजिए। वहां आपको खबरें मिलेंगी- किसी गांव को इंदिरा आवास नहीं मिला, कहीं थानेदार-पुलिस परेशान कर रहा है, कहीं कलेक्टर धांधली कर रहे हैं, किसी गांव की सड़क जर्जर है, किसी बैंक में मैनेजर मनमानी कर रहे हैं, कहीं किसानों को खराब बीज दिया जा रहा है। सबसे ज़रुरी बात कि इन खबरों से प्रशासन असहज होता है, स्थानीय अधिकार, नेता असहज होते हैं, कार्रवाई करते हैं। आजकल तो हिन्दी अखबार फॉलो-अप से ज़्यादा खबर का असर छापने लगे हैं, तो आपको आसानी से इन खबरों का असर दिख जायेगा।

आपको बताने की जरुरत नहीं पिछले कई सालों से यह आंकड़ा दिया जा रहा है कि सबसे ज़्यादा परेशानी छोटे शहरों के रिपोर्टर झेल रहे हैं। वे खनन माफिया के खिलाफ लड़ रहे हैं, किसी नेता की दंबगई के खिलाफ रिपोर्ट कर रहे हैं और बदले में अपनी जान तक दे रहे हैं। उन्हें धमकी दी जाती है, उन्हें झूठे मामलों में फंसाया जाता है। आंकड़े बताते हैं कि सबसे ज़्यादा पत्रकारों पर हमले छोटे शहरों और भारतीय भाषाओं के पत्रकारों पर हुए हैं।

बस्तर के रिपोर्टरों की कहानी पर तो दिल्ली में भी काफी चर्चा हुई है। इन रिपोर्टरों को आखिर क्यों जेल में डाला जाता है? क्योंकि ये फर्जी इंकाउंटर की रिपोर्ट लिखते हैं, ये जंगल-जमीन की लूट के खिलाफ लिखते हैं।

बाढ़ आये, सूखा आये, सरकारी योजना की लूट हो, किसानों की दूसरी समस्याओं पर सबसे ज़्यादा रिपोर्ट कहां पढ़ने को मिलती हैं? इन्हीं हिन्दी के छोटे-छोटे अखबारी संस्करणों में। जबकि दिल्ली से उलट इन रिपोर्टरों को न तो सैलरी दी जाती है, बल्कि उलटे इन पर विज्ञापन जुटाने से लेकर दूसरे तमाम बोझ को डाल दिया जाता है। फिर इन परिस्थितियों में भी यही रिपोर्टर हैं, जो ज़मीनी रिपोर्ट कर रहे हैं।

इंडियन एक्सप्रेस अच्छी पत्रकारिता कर रहा है मानता हूं, लेकिन यह भी जानना चाहिए कि एक्सप्रेस क्या नहीं कर रहा है। वो खास मौकों पर की गयी जीरो ग्राउंड फीचर स्टोरी को छोड़ नहीं बताता कि सिंगरौली में कोयला खनन से विस्थापित आदिवासी किन परिस्थितियों में रह रहे हैं। लेकिन राजस्थान पत्रिका का सिंगरौली एडिशन बताता है। एक्सप्रेस नहीं बता पाता कि कैसे नर्मदा बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ताओं को खनन माफियाओं के खिलाफ संघर्ष की वजह से झूठे मुकदमे लगा जेल में डाल दिया जाता है, लेकिन बड़वानी और इंदौर के अखबार हमें यह बताते हैं।

हालांकि एक्सप्रेस की अपनी सीमाएं और संसाधन हैं, इसमें उसकी गलती नहीं मानता लेकिन फिर उसकी तुलना पूरे हिन्दी अखबारों की रिपोर्टिंग से आप कैसे कर सकते हैं? अगर आप दिल्ली के हिन्दी अखबार कह रहे होते, तो फिर मैं भी आपसे सहमत होता, लेकिन अगर आप अपने लेख में कलेक्टर का जिक्र करते हैं, तो फिर मैं मानकर चलता हूं कि आप छोटे शहरों के पत्रकारिता पर भी टिप्पणी कर रहे हैं और इसलिए तस्वीर के दूसरे पहलू पर बात करना ज़रुरी हो जाता है।

मैं मानता हूं, इन छोटे शहरों में भी दलाली की पत्रकारिता हो रही है, कलेक्टर-एसपी के तलवे चाटे जा रहे हैं। लेकिन अपने पचास से अधिक जिलों और छोटे सेंटर पर मिले पत्रकारों के अनुभव के बाद मैं दावे से कह सकता हूं कि हर जिले में एक-दो बहेतरीन रिपोर्टर हैं, जो लगातार सरकार और व्यवस्था की आलोचना कर रहे हैं।

दिक्कत यह भी है कि दिल्ली के पत्रकारों को बैतूल के अक्कू भाई, रिशु नायडू जैसे पत्रकार तभी याद आते हैं, जब उन्हें वहां जाकर ‘ग्राउंड रिपोर्टिंग’ करनी होती है। वापिस आकर जब दिल्ली वाले उस रिपोर्ट पर अवार्ड ले रहे होते हैं, ठीक उसी वक्त अक्कू भाई जैसे लोग कोर्ट में खड़े हो पीड़ित की तरफ से केस लड़ रहे होते हैं।

जब दिल्ली में बैठे लोग पत्रकारिता के नाम पर अपना स्टार्ट-अप वेबसाइट खोलकर सेक्स और सनसनी परोस रहे होते हैं तो किसी जिले का एक छोटा सा पत्रकार छोटे-छोटे विज्ञापन के सहारे अपना अखबार चला रहा होता है और स्थानीय प्रशासन की नाम में दम करके रखता है। लोगों को नोटबंदी और दूसरे सरकारी फैसलों से हो रही परेशानी के बारे में बता रहा होता है।

जरुरी है कि दिल्ली के अखबारों को ही सच मानकर पूरे देशभर में चल रहे भाषायी पत्रकारिता को नजरअंदाज़ करने या उनकी आलोचना करने की परंपरा खत्म हो। मूल्यांकन इन छोटे शहरों की पत्रकारिता का भी होना चाहिए; इनकी दलाली, वसूली पर भी बात होनी चाहिए। लेकिन दिल्ली के नज़रिए से नहीं, बैतूल और बस्तर के नज़रिये से। कोसी की पत्रकारिता का मूल्यांकन दिल्ली के एक्सप्रेस अखबार के हिसाब से करियेगा तो वो अनजस्टिफाईड है और होगा।

फिर बात करनी है तो इन हिन्दी अखबारों के उन संपादकों पर भी होनी चाहिए, जो खुद को संपादक कम सामंत ज़्यादा समझते हैं। उन सवर्ण मठाधीशों पर होनी चाहिए, जो अखबारों के न्यूजरुम में बैठकर अपनी सड़ी हुई मध्ययुगीन मानसिकता का जहर उगल रहे हैं। उन संपादकों पर बात हो जो अपने यहां काम करने वालों को पत्रकार कम अर्दली ज़्यादा मानते हैं।

आईये बात करते हैं और बेहतर पत्रकारिता की उम्मीद को जिंदा रखते हैं।

कुछ हिन्दी के ईपेपर के लिंक्स, यहां जाकर छोटी-छोटी जगहों की रिपोर्टिंग देखिये, उन जगहों के बारे में जानिये, जिनका हमने-आपने नाम भी नहीं सुना।

http://epaper.patrika.com/

http://epaper.bhaskarhindi.com/

http://prabhatkhabar.com/

http://khabarlahariya.org/

सस्नेह

अविनाश कुमार चंचल,
पूर्व पत्रकार, हिन्दी अखबार

फोटो आभार: गेटी इमेजेस

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