नेशनल इलेक्शन वॉच की एक रिपोर्ट के मुताबिक राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की कुल कमाई 2004-05 से 2014-15 के मध्य लगभग 11367.34 करोड़ रुपये रही, इसमें से इनकी 69% कमाई का स्रोत उपलब्ध नहीं है। राजनीतिक पार्टियों की 16% कमाई उन दाताओं से हुई जिन्होंने अपना नाम दिया था। इस बीच जहां राष्ट्रीय दलों की कमाई 313% बढ़ी वहीं क्षेत्रीय दलों की कुल आय लगभग 652% बढ़ी।
नेशनल इलेक्शन वॉच के संस्थापक जगदीप छोकर ने रिपोर्ट ज़ारी करने के बाद कहा कि राजनीतिक दलों को जब तक आरटीआई के दायरे में नहीं लाया जाएगा तब-तक उनकी न तो जवाबदेही तय हो सकेगी और न ही उनमें होने वाली धांधलियों की जानकारी मिल सकेगी। राजनीतिक दलों के बही-खातों की वार्षिक जांच एक निष्पक्ष आडिटर से कराई जाए तभी दलों की वित्तीय धांधली पर लगाम कसी जा सकेगी।
इस रिपोर्ट के अनुसार समाजवादी पार्टी की 94% आमदनी अज्ञात स्रोतों से है, साथ ही साथ इस रिपोर्ट में सबसे ज़्यादा अज्ञात पूंजी इसी पार्टी के पास है। समाजवादी पार्टी से थोड़ा पीछे अकाली दल है जिसकी 86% आमदनी अज्ञात स्रोतों से है। ऐसे में कांग्रेस कहाँ पीछे रहने वाली थी, कांग्रेस की आमदनी का 83 % हिस्सा आज्ञात स्रोतों से आता है। केंद्रीय नेतृत्व वाली पार्टी बीजेपी कुल आमदनी का 65% हिस्सा अज्ञात स्रोतों से आता है।
एक आम आदमी की हैसियत से ये कहा जा सकता है कि राजनीतिक दलों की रोटियां अज्ञात स्रोतों से पकती हैं, जिनके दाता का नाम किसी को नहीं पता है। क्या ये काला धन नहीं है? क्या राजनीतिक दल काले धन को सफेद बनाने के साधन मात्र हैं?
सारा काला धन इनके पास है पर नोटबंदी से परेशानी आम जनता को हो रही है। खैर जनता की तो आदत में परेशानी शामिल हो रही है।अब जनता को कुछ नया नहीं लगता। जगदीप छोकर का मानना है कि नोटबंदी से आने वाले विधानसभा चुनावों के दौरान काले धन का प्रचलन रोकने में मदद नहीं मिलेगी क्योंकि काला धन तभी खत्म किया जा सकता है जब उसके स्रोतों का भी सफाया हो।
खैर, जो भी हो इस रिपोर्ट ने राजनीतिक दलों की फंडिंग पर तो सवाल उठा ही दिया है। किस पार्टी को ईमानदार कहें जब सारी पार्टियां एक कतार में खड़ी नज़र आ रही हैं। सरकार डिजिटल स्कीम चला कर हर संस्थान को पारदर्शी होने की सीख दे रही है लेकिन सरकार और विपक्ष का रुख देखकर नहीं लगता कि लेन-देन में कोई पारदर्शिता राजनीतिक पार्टियां अपनाने के मूड में हैं।
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