दक्षिणपंथी (Right wing) राजनीति का जिस तेज़ी से उदय हुआ, अब उसी रफ़्तार से वो नीचे जा रही है। हाल ही के वर्षों में इसके उदय को ब्रिटेन के यूरोपियन यूनियन (EU) छोड़ने के फैसले के साथ देखा जाता है। ब्रेक्ज़िट (Brexit) के अभियान में नाईजिल फ़राज जैसे नेताओं ने आर्थिक और सांस्कृतिक असुरक्षा का ज़िम्मेदार प्रवासियों को ठहराया। नतीजतन जून 2016 में जनमतसंग्रह में 51.9% लोगों ने ईयू को छोड़ने का फ़ैसला किया। इसी तरह के मुददों का प्रयोग डॉनल्ड ट्रंप ने अपने चुनावी अभियान में किया और वो जीते भी।
परंतु, उनके जीतने के बाद ही अमेरिका के कई शहरों में उनके ख़िलाफ़ प्रदर्शन होने लगे। डेनवर, न्यूयॉर्क, लॉस एंजेलेस, बॉस्टन में महिलाओं ने भी भारी तादाद में ट्रंप के खिलाफ प्रदर्शन किया। “सिस्टर मार्च” नाम से ये प्रदर्शन लन्दन, टोक्यो, सिडनी सहित विश्व के कई शहरों में हुए। उल्लेखनीय है कि अप्रैल 2017 में ट्रंप के कार्य के 100 दिन पूरे होने के बाद भी उनकी ‘National Approval Rating‘ 44% ही है। ब्रेक्ज़िट और ट्रंप की जीत के बाद यूरोप में दक्षिणपंथी राजनीति के अभियान बढ़े लेकिन नीदरलैंड में गीर्ट वाइल्डर्स जैसे अतिदक्षिणपंथी नेता की हार के बाद दक्षिणपंथ को झटका लगा।

इसके बाद मार्च 2017 में ‘ फ्रांस ‘में अतिदक्षिणपंथी (Far Right) मरी ला पैन की हार ने दक्षिणपंथी राजनीति को नीचे धकेल दिया। इसी बीच ‘दक्षिण कोरिया’ में भी वामपंथी रुझान वाले मून जे इन को राष्ट्रपति चुना गया। हाल ही में हुए ब्रिटेन के संसदीय चुनाव में ‘कंज़र्वेटिव पार्टी’ बहुमत नहीं जुटा पाई, जबकि ‘लेबर पार्टी’ को 2015 के मुकाबले बढ़त मिली। प्रधानमंत्री टेरीज़ा मे ने ये मध्यावधि (Mid term) चुनाव इसलिए कराए थे कि ब्रेक्ज़िट की 2 साल की प्रक्रिया पूरी होने के बाद ईयू को पूरी तरह से छोड़ने में कोई बाधा ना आए। इन सभी देशों में दक्षिणपंथी राजनीतिक दल और नेताओं की हार को देखें तो दक्षिणपंथी राजनीति का गिरता मयार साफ़ नज़र आता हैं।
दरअसल, दक्षिणपंथी राजनीति का कितना उदय हुआ था ये कहना भी मुश्किल हैं। गौरतलब है कि 2008 की आर्थिक तंगी (Financial Crisis) के बाद कई देशों ने अपनी कल्याणकारी योजनाओं (Welfare Schemes) में कटौती करनी शुरू कर दी। इसके साथ ही वैश्वीकरण (Globalisation) का सिद्धांत भी कमज़ोर होता नज़र आया। जनता के एक तबके का बहुत ज़्यादा विकास हुआ और एक का बहुत कम। 2016 की ‘ग्लोबल वैल्थ डाटाबुक’ की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 58.4% संपत्ति के मालिक केवल 1% लोग है और पूरे विश्व में आंकड़े इसी प्रकार की असमानता दिखा रहे हैं।
इस सब के कारण जनता को कोई ऐसा नेता चाहिए जो उन्हें इस आर्थिक असुरक्षा से बाहर निकाल सके। इसी का फ़ायदा उठाकर ब्रेक्ज़िट और अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में जनता को उनकी इस हालत का ज़िम्मेदार प्रवासियों को बताया गया तथा उनसे कभी ना पूरे होने वाले वादे किये गए। इस प्रकार के वादों को देखते हुए एक नया शब्द आया ‘POST TRUTH’ यानि उत्तरसत्य। जब फ़्रांस में लोगों को इमैनुअल मैक्रो जैसा उम्मीदवार मिला जो बिना नफ़रत फैलाए सब कुछ सही करने का वादा कर रहे थे तो जनता ने इन्ही को चुना।
इस सब का परिणाम इस रूप में देखा जा सकता है कि जनता को बस ऐसा नेता चाहिये जो उन्हें कठिन परिस्थितियों से बाहर निकाल सके। इस बात को भी पूरी तरह नहीं नकारा जा सकता कि लोग दक्षिणपंथ में विश्वास नहीं रखते, लेकिन अधिकतर मतदाता हालातों में केवल सुधर चाहते है और अब जब दक्षिणपंथ के चयन से भी उनके हालात नहीं सुधरे तो उन्होंने उससे मुंह मोड़ना शुरू कर दिया।
इसके अलावा नई पीढ़ी भी दक्षिणपंथ में ज़्यादा विश्वास नहीं रखती है। उल्लेखनीय है कि अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में 18 से 29 साल के 37% लोगों ने ही ट्रंप के लिए मतदान किया और ब्रेक्ज़िट में भी युवाओं का मतदान ईयू के साथ रहने के लिए अधिक रहा। हाल ही के ब्रिटेन के संसदीय चुनाव में भी जिन सीटों पर 18 से 24 साल के मतदाता ज़्यादा हैं, वहां ‘लेबर पार्टी’ ने अधिक वोट हासिल किये हैं। ये युवा पीढ़ी ही भविष्य की सक्रिय मतदाता होगी और इनके राजनीतिक रुझान को देखते हुए दक्षिणपंथ के भविष्य पर भी सवाल खड़े होते हैं।
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